Jan २९, २०२३ २०:३० Asia/Kolkata
  • इस्राईल ने बैतुल मुक़द्दस के फ़िलिस्तीनियों की पहचान मिटा देने के लिए एक मंसूबा बनाया, क्या उसे कामयाबी मिली?

तुर्की की समाचार एजेंसी ने एक फ़ीचर रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें यह जायज़ा लिया गया है कि इस्राईल ने फ़िलिस्तीनी युवाओं को उनकी असली पहचान से दूर कर देने के लिए बड़ी जटिल और बहुमुखी योजना बनाई थी मगर अब सवाल यह पैदा होता है कि इस्राईल की यह साज़िश कितनी कामयाब रही। रिपोर्ट में इसी का जायज़ा  लिया गया है।

जैसे ही बैतुल मुक़द्दस में बैत हनीना और हज़मा में स्थित नबी याक़ूब ज़ायोनी बस्ती में फ़ायरिंग का वाक़या हुआ बैतुल मुक़द्दस में रहने वाले फ़िलिस्तीनियों ने पटाख़े छोड़कर और सड़कों पर गाड़ियों के हार्न बजाकर ख़ुशी मनाई और इस्राईलियों के मारे जाने पर मिठाइयां बाटीं।

फ़िलिस्तीनियों ने ऊंची आवाज़ में वह तराने और गीत बजाए जो फ़िलिस्तीनियों के प्रतिरोध का बखान करते हैं और जिन्हें इस्राईल ने बैन कर रखा है।

1967 में बैतुल मुक़द्दस पर इस्राईल का क़ब्ज़ा होने के बाद से ही क़ाबिज़ इस्राईल ने बैतुल मुक़द्दस में रहने वाले फ़िलिस्तीनियों की संस्कृति और पहचान बदल देने के लिए बड़ी विध्वंसकारी योजनाएं बनाईं जिनके तहत फ़िलिस्तीनी युवाओं को स्कूल और कालेज से दूर रखने की कोशिश की गई ताकि वे जल्दी मामूली दिहाड़ी पर मज़दूरी के कामों में लग जाएं। उनके लिए हेब्रू भाषा सिखाने की क्लासें रख दीं और फ़िलिस्तीनी युवाओं को नशे का आदी बनाने के लिए मादक पदार्थों का बाज़ार तैयार कर दिया।

फ़िलिस्तीनी मुहल्लहों में डेमोक्रेसी केन्द्र के नाम से अपने अड्डे बनाए और इस तरह वह फ़िलिस्तीनी समुदाय के भीतर घुस गया।

इस्राईल ने यह सब कुछ इसलिए किया कि फ़िलिस्तीनी युवा अपनी पहचान भूलकर इस्राईल और उसकी साज़िश के वफ़ादार बन जाएं। मगर अब जैसे जैसे इस्राईलियों पर हमले की घटनाएं हो रही हैं साफ़ पता चल रहा है कि इस्राईल का एजेंडा नाकाम रहा क्योंकि इस्राईली योजनाकार शायद ख़याली दुनिया में रह रहे थे।

जो फ़िलिस्तीनी युवा इस्राईली बाज़ारों में काम करते हैं और बड़ी फ़्लुएंट हेब्रू बोलते हैं और जो युनिवर्सिटी की शिक्षा हासिल नहीं कर सके हैं वहीं इस्राईल को ज़्यादा बड़ा दर्द देने वाले आप्रेशन कर रहे हैं। इसकी एक मिसाल उदै तमीमी हैं और दूसरी हालिया मिसाल ख़ैली अलक़म नाम का युवा है।

इस स्थिति में इस्राईल और ज़ायोनी बैतुल मुक़द्दस में अपने आप को बेबस पा रहे हैं हालांकि उन्होंने इस शहर की हर गली में अपना पांव पसार रखा है।

मिसाल के तौर पर जब बैतुल मुक़द्दस का बड़ा हमला हुआ तो हमलावर के घर के सामने दर्जनों की संख्या में फ़िलिस्तीनी युवा जमा हो गए हालांकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि इस्राईली सैनिक कभी भी वहां हमला करेंगे और उन्हें गिरफ़तार कर सकते है। यह भय भी उन्हें अलक़म के परिवार के पास जाने से नहीं रोक सका।

इस समय बैतुल मुक़द्दस में फ़िलिस्तीनियों का जो समाज तैयार हुआ है उसको देखते हुए इस्राईल को महसूस हो रहा है कि उसने फ़िलिस्तीनी युवाओं के बारे में जो साज़िश तैयार की थी वह कामयाब नहीं रही। वर्ष 2018 में इस्राईल ने कुछ क़ानून पास किए जिनके तहत पूर्वी बैतुल मुक़द्दस में प्रशिक्षण और ट्रेनिंग के लिए लगभग 27 मिलियन डालर सालाना ख़र्च किया गया। पांच साल में कुल मिलाकर 136 मिलियन डालर की रक़म इस प्रोग्राम पर ख़र्च की गई जिसका मक़सद एसे फ़िलिस्तीनी युवा तैयार करना था जिन्हें फ़िलिस्तीन से कोई हमदर्दी न हो।

इस प्रोग्राम के तहत 5 साल के भीतर पूर्वी बैतुल मुक़द्दस में अलग प्रकार के स्कूल बनाए गए जहां मुफ़्त शिक्षा दी जाती है। इन स्कूलों में बच्चों को बड़ी बारीकी से इस्राईल की पालीसियों के क़रीब लाने की कोशिश की जाती है।

क़ुद्स के एक शोधकर्ता एमाद अबू अव्वाद ने अलजज़ीरा नेट से बातचीत में कहा कि कई कारण थे जिसकी वजह से इस्राईल का यह मंसूबा फ़ेल हुआ।

पहली चीज़ तो यह थी कि बैतुल मुक़द्दस के सारे लोग मस्जिदुल अक़सा से भावनात्मक और मानसिक रूप से इस तरह जुड़े हुए हैं कि यह उनके लिए रेड लाइन है। इस वजह से इस्राईल इन युवाओं को उनकी असली पहचान से दूर नहीं कर सका।

जब भी पवित्र स्थलों को निशाना बनाया जाता है और दूसरी तरफ़ हर मैदान में भेदभाव दिखाई देता है तो फ़िलिस्तीनी युवा इस्राईलीकरण की हर कोशिश को नकार देता है।

दूसरी चीज़ बैतुल मुक़द्दस में बसने वाले फ़िलिस्तीनियों का साहस है। यह फ़िलिस्तीनी हरगिज़ इस्राईली सैनिकों से नहीं डरते। इन सैनिकों से उनका रोज़ ही टकराव होता है और उन्हें अच्छी तरह पता है कि इस्राईली सैनिकों से कैसे निपटना है।

24 घंटे के भीतर फ़ायरिंग की दो घटनाओं में 8 फ़िलिस्तीनियों की मौत और दर्जनों के घायल होने के बाद इस्राईली नेता और अधिकारी आक्रोश में डूबे हुए बयान दे रहे हैं और हमला करने वाले फ़िलिस्तीनी युवाओं के घर ढहा देने की बात कर रहे हैं मगर इससे फ़िलिस्तीनियों का साहस कमज़ोर होने वाला नहीं है।

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