Mar ३१, २०२४ ११:१४ Asia/Kolkata
  • एशिया की सदी, पश्चिम के अपमानजनक वर्चस्व से दुनिया की मुक्ति की भूमिका

पिछले दशक के दौरान एशिया या एशियाई सदी के उदय की बात, वैश्विक रणनीतिक चर्चाओं में सबसे महत्वपूर्ण विषय रही है।

यह चर्चा सबसे ताज़ा विषयों में है और साथ ही यह एशियाई महाद्वीप पर विश्व समुदाय के बढ़ते ध्यान की सबसे शक्तिशाली परिकल्पनाओं में है। पिछले दशक के दौरान एशिया या एशियाई सदी के उदय की बात, वैश्विक रणनीतिक चर्चाओं में सबसे महत्वपूर्ण विषय रही है। यह चर्चा सबसे ताज़ा विषयों में है और साथ ही यह एशियाई महाद्वीप पर विश्व समुदाय के बढ़ते ध्यान की सबसे शक्तिशाली परिकल्पनाओं में है।

21वीं सदी के शुरुआती वर्षों में, अमेरिका की बढ़ती कमजोरियों और अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था की घटती ताक़त के बारे में सामने आने वाली रिपोर्टों ने एशियाई सदी की इस धारणा को और भी तेज़ कर दिया है।

इस अवधारणा की जड़ें हालिया दशकों के दौरान जापान, चीन, भारत और ईरान सहित बड़ी एशियाई शक्तियों की सफलताओं में निहित हैं।

एशियाई सदी के बारे में प्रमुख धारणाएं अक्सर ऐसी होती हैं जैसे लगता है कि संबंधित प्रक्रियाएं न केवल इस महाद्वीप में आर्थिक परिवर्तन पर नज़र रखे हुए हैं बल्कि इसमें ढांचागत और मापदंड के आयाम भी शामिल होते हैं।

एशियाई शताब्दी वास्तव में एशियाईकरण का ही परिणाम है। एशियाईकरण अपने आप में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत एशिया के विविध और अनेक क्षेत्र लगातार और तेजी से अपने अद्वितीय सामान्य आर्थिक और सभ्यतागत एजेंडों के आसपास जमा हो रहे हैं।

आज के एशिया में, अपनी भौगोलिक और राजनीतिक विविधता के बावजूद, एक समान विशेषता यह है कि यह तीव्र आर्थिक विकास और सभ्यताओं को आपस में जोड़ने का एक बेहतरीन केन्द्र भी है।

नई सदी में, एशिया विभिन्न आर्थिक आयामों से आपस में जुड़ा हुआ है जिसमें व्यापार, मूल्यों की श्रृंखलाएं, उत्पादन और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश शामिल हैं।

इसका मतलब यह है कि उम्मीद की जाती है कि वर्ष 2040 तक वैश्विक उपभोग और विश्व के मध्यम वर्ग में एशियाई महाद्वीप की हिस्सेदारी 39.54 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी जबकि वहीं, 2017 में यह अनुपात 28.40 प्रतिशत के बराबर था।

20वीं सदी में पश्चिमी जगत सभी आर्थिक, सामरिक, कूटनीतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहा था लेकिन 21वीं सदी में दाख़िल होते ही आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का संतुलन एशिया के पक्ष में झुक गया जिसकी वजह से आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का केन्द्र यूरोप से अटलांटिक एशिया-प्रशांत की ओर शिफ़्ट हो गया।

वास्तव में, यह कहा जा सकता है कि 1980 के दशक से आर्थिक गतिविधियों में पूरब की ओर से रणनीतिक बदलाव शुरू हो गया है और अगर यह स्थिति वर्ष 2050 तक रही तो विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र एशिया बन जाएगा।

2050  तक दुनिया की चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन यानी अमरीका के साथ (चीन, भारत और जापान) एशिया से होंगी। इसलिए दुनिया को एक प्रकार के पश्चिम से पूरब की ओर शक्ति के विभाजन की प्रक्रिया का सामना करना पड़ रहा है।

अलबत्ता एशियाई देशों में जो बेदारी और जागरुकता आ रही है उसका मतलब दुनिया पर पश्चिम के प्रभाव का खत्म या समाप्त हो जाना नहीं है बल्कि एशिया शताब्दी का अर्थ पूरब के मुकाबले में पश्चिम के आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व का समाप्त हो जाना है।

आज की दुनिया में एशियाई देश, निर्भर, कमज़ोर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पश्चिमी शक्तियों की कठपुतली की तरह अनुसरण करने वाले नहीं हैं बल्कि वे धीरे- धीरे मज़बूत व प्रभावी हो रहे हैं और बहुत से अवसरों पर वे पश्चिम की वर्चस्ववादी सरकारों के मुकाबले में स्वतंत्र व स्वाधीन रूप से अमल करते हैं।

यूक्रेन और गज्जा जंग में रूस और चीन के दृष्टिकोण एक तरफ और सुरक्षा परिषद में अमेरिका एक तरफ और पश्चिम एशिया से अमेरिका को निकालने हेतु ईरान की कार्यवाहियों में इस विषय को अच्छी तरह देखा जा सकता है। ईरान ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि राष्ट्रों को आधार बनाकर पश्चिम और अमेरिका की खोखली सैनिक धाक को नीचा दिखाया जा सकता है। वास्तव में इस्लामी गणतंत्र ईरान ने नई विश्व व्यवस्था में विशेषकर पश्चिम एशिया में ज़ोरज़बरदस्ती करने वाली शक्तियों के मुकाबले में प्रतिरोध की भावना व सोच उत्पन्न कर दी है और ईरान ने जो सोच उत्पन्न कर दी है वह लैटिन अमेरिका के बहुत से देशों में भी आत्म विश्वास की भावना उत्पन्न होने का कारण बनी है जिन पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखा है।  

इस समय ईरान और चीन जैसे देश पहले से अधिक इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि नई विश्व व्यवस्था को इस प्रकार आगे ले जायें जो राष्ट्रों के हितों, मूल्यों और शैलियों व पद्धतियों को बयान करने वाला हो न कि पश्चिम के।

ईरान के राष्ट्रपति सैयद इब्राहीम रईसी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग

इसी कारण अमेरिका धीरे- धीरे न तो अगुवा रह जायेगा और न अगुवाई करने की ताकत क्योंकि पहले के विपरीत अमेरिका के पास वह चीज़ें ही नहीं रहेंगी जिसकी वजह से वह अंतरराष्ट्रीय सतह पर अगुवाई व नेतृत्व करता था और आंतरिक सतह पर बढ़ती खाई की वजह से वह दुनिया में थानेदार की जो भूमिका निभाता था वह भी नहीं निभा पायेगा।

ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने भी भविष्य में अमेरिका की भूमिका के बारे में कहा है कि अमेरिका दुनिया से अपने हाथ- पैर सिमेटने पर मजबूर हो जायेगा। इस समय दुनिया के बहुत से क्षेत्रों में अमेरिका की छावनियां हैं, हमारे क्षेत्र में, यूरोप में, एशिया में, अधिक संख्या में सैनिक छावनियां, इन छावनियों का खर्च भी बेचारे उन्हीं देशों से लेते हैं जहां छावनियां हैं, अमेरिकी खाते-पीते और दादागीरी करते हैं! अब यह खत्म हो जायेगा और पूरी दुनिया में अमेरिका की उपस्थिति का पैर सिमट जायेगा। MM

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