एशियाई देशों को चीन के ख़िलाफ़ एकजुट करने की कोशिश अमेरिकी कोशिश, वॉशिंग्टन पर भरोसा करना नई दिल्ली के लिए कितना सही कितना ग़लत?
(last modified Tue, 03 Nov 2020 11:22:25 GMT )
Nov ०३, २०२० १६:५२ Asia/Kolkata
  • एशियाई देशों को चीन के ख़िलाफ़ एकजुट करने की कोशिश अमेरिकी कोशिश, वॉशिंग्टन पर भरोसा करना नई दिल्ली के लिए कितना सही कितना ग़लत?

अमेरिका में चुनावी सरगर्मियों के बावजूद इस देश के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो महीनों से एशिया दौरों पर जुटे हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य चीन के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाना था। पिछले दिनों उन्होंने वियतनाम सहित पांच एशियाई देशों का दौरा किया।

इस बार के एशिया दौरे में माइक पोम्पियो ने भारत के अलावा वियतनाम, इंडोनेशिया, श्रीलंका और मालदीव की यात्रा की। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों से पहले पोम्पियो का एशिया दौरा चुनाव में चीन विरोधी रवैये का फ़ायदा उठाने पर भी लक्षित था। इसलिए इन देशों में चीन पर उनके बयान काफ़ा तीखे रहे। अपने कई बयानों में उन्होंने चीन और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में अंतर किया और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को तानाशाही और मानवाधिकारों का हनन करने वाली ग़ैर-लोकतांत्रिक पार्टी तक का आरोप लगा दिया। पोम्पियो के लिए अमेरिका की चीन नीति में एशियाई देशों का महत्व बढ़ गया है। चुनावों के बाद राष्ट्रपति कोई बने, अमेरिका के लिए चीन फिलहाल उसकी विदेशनीति के केंद्र में रहेगा। भारत के दौरे के बाद पोम्पियो श्रीलंका गए जहां उन्होंने श्रीलंका के राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे से भी मुलाक़ात की। साझा लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर ध्यान दिलाते हुए पोम्पियो ने कहा कि अमेरिका हमेशा से ही श्रीलंका का दोस्त रहा है। इसके साथ-साथ वह यह कहना भी नहीं भूले चीन जैसे देशों से श्रीलंका को बचकर रहना होगा। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी -शासित चीन पर उन्होंने दूसरे देशों को बेल्ट एंड रोड परियोजना के बहाने ठगने, मनमानी नीतियां और दोहरे मानदंड रखने के आरोप भी लगाए। इस बीच अमेरिका को यह उम्मीद है कि गोताबाया राजपक्षे के कार्यकाल में दोनों देशों के संबंध मज़बूत होंगे। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि पिछले साल श्रीलंका के चुनावों में भाग लेने से पहले तक गोताबाया राजपक्षे अमेरिका के ही नागरिक थे।

चीन पर पोम्पियो द्वारा लगाए गए आरोपों से श्रीलंका ने ख़ुद को किया अलग

श्रीलंका की स्थिति आसान नहीं है। पोम्पियो की चीन को लेकर आलोचनाओं के बावजूद गोताबाया चुप ही रहे। 500 करोड़ डालर के चीनी निवेश और श्रीलंका अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए न सिर्फ चीन पर फिलहाल निर्भर है बल्कि शायद आगे भी कई वर्षों तक निर्भर रहेगा। मार्च में ही 50 करोड़ डॉलर का उधार लेने के बाद अब गोताबाया की सरकार 70 करोड़ डॉलर का उधार और लेने की कोशिश में है। अब ऐसी स्थिति में पोम्पियो की चीन विरोधी बातें तो बात बिगाड़ने वाली ही लगती हैं। लिहाज़ा, श्रीलंका सरकार ने पोम्पियो की तमाम बातों के जवाब में यह कहा कि वह गुटनिरपेक्ष नीति का समर्थक है। किसी एक देश को दूसरे के ऊपर वरीयता देना उसकी विदेश नीति का हिस्सा नहीं है। एशिया के तमाम देशों की तरह श्रीलंका भी इस स्थिति में नहीं कि चीन या अमेरिका में से एक देश को चुन सके और उसी पर पूरी तरह निर्भर रहे। वैसे जानकारों का मानना है कि चीन इस समय अमेरिका से ज़्यादा भरोसेमंद साथी है।

वहीं व्हाइट हाउस पोम्पियो की मालदीव यात्रा का कामयाब मान रहा है। श्रीलंका के उलट मालदीव ने इंडो-पैसिफिक का जमकर समर्थन किया। महमूद सोलेह के 2018 में सत्तासीन होने के बाद से ही मालदीव और चीन के रिश्तों में खटास आयी है। अमेरिका की मालदीव से रक्षा संबंध मज़बूत करने की कोशिश एकतरफ़ा नहीं है यह इस बात से बिलकुल साफ है कि सितंबर 2018 में ही इन दोनों देशों ने रक्षा सहयोग के फ्रेमवर्क समझौते को मंज़ूरी दे दी थी। पोम्पियो ने मालदीव में अमेरिकी दूतावास खोलने का निर्णय लिया है। अभी तक मालदीव में दूतावास के काउंसिलर ऑफिस संबंधी काम-काज श्रीलंका स्थित दूतावास से ही संचालित होते थे।

अमेरिका का दावा दक्षिणपूर्व एशिया में उसको मिल रहा है समर्थन

दक्षिण एशिया और हिंद महासागर से निकल कर पोम्पियो दक्षिणपूर्व एशिया पहुंचे। इंडोनेशिया के 28-29 अक्टूबर पड़ाव में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो से मुलाक़ात की। अभी कुछ ही दिनों पहले इंडोनेशिया के रक्षामंत्री प्रबोबो सोबियांतो पहली बार अमेरिका दौरे पर भी गए थे। ग़ौरतलब है कि जापान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा अपनी पहली विदेश यात्रा पर इंडोनेशिया ही गए थे। जापान और अमेरिका दोनों को इंडोनेशिया में एक मुखर सामरिक और आर्थिक सहयोगी के तौर पर एक बड़ी संभावना दिख रही है। इंडोनेशिया ने पिछले कुछ महीनों में चीन को लेकर अपने रुख में सख्ती बरती है। इंडो-पैसिफिक को लेकर इंडोनेशिया न सिर्फ उत्साहित है बल्कि उसकी अपनी एक इंडो-पैसिफिक नीति भी है। दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों के संगठन आसियान की इंडो-पैसिफिक आउटलुक प्रपत्र में भी इंडोनेशिया ने बड़ी भूमिका निभाई। इंडोनेशिया में चीन के अल्पसंख्यक उइगुर मुस्लिम समुदाय के साथ अमानवीय बर्तावों का उल्लेख कर पोम्पियो ने इंडोनेशिया राष्ट्र की भावनाओं से भी लाभ उठाने की कोशिश की और चीन की उइगर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नीतियों पर निशाना भी साधा। विश्व का सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश होने के नाते इंडोनेशिया के लोगों में उइगुर मुस्लिमों को लेकर चिंता है लेकिन इस देश की सरकार ने आरंभ से ही इस विषय पर चुप्पी साधे रखी है।

भारत के साथ कई अहम सामरिक समझौते

इन तमाम देशों की यात्रा के पीछे पोम्पियो का उद्देश्य ना सिर्फ चीन को लेकर अपनी चिंताओं को उजागर करना था बल्कि बल्कि इन देशों को चीन के ख़िलाफ़ एकजुट करना भी है। अपनी भारत यात्रा के दौरान पोम्पियो ने भारत–अमेरिका 2+2 संवाद में हिस्सा लिया। दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच होने वाली इस उच्चस्तरीय वार्ता में दोनों देशों ने कई महत्वपूर्ण समझौते किए। बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए) के तहत भारत को अमेरिकी जियोस्पेशियल तकनीक का फ़ायदा मिलेगा। बीईसीए समझौते के साथ ही भारत और अमेरिका के बीच तीन मूलभूत रक्षा समझौतों की शर्त पूरी हो गयी है। दोनों देशों ने इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी अनेक्स (आईएसए) पर भी समझौता किया है। आईएसए के साथ साथ तीनों मूलभूत रक्षा समझौतों - लोजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) 2016, कम्युनिकेशन कांपेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (सीओएमसीएएसए) 2018, और बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए), 2020 ने भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों को नए आयाम दिए हैं।

अमेरिका काफ़ी समय से चीन के मुक़ाबले के लिए भारत को सामरिक तौर पर मज़बूत करने की कोशिश में रहा है। भारतीय रक्षा और विदेश नीति के इतिहास में इतना बड़ा समझौता पहले नहीं हुआ। चीन को लेकर भारत की चिंताएं लगातार बढ़ती जा रही है। क्वाड देशों का चतुष्कोणीय सहयोग इन्हीं चिंताओं और चुनौतियों से पार पाने के लिए बना है जिसमें अमेरिका और भारत समेत जापान और आस्ट्रेलिया की भी साझेदारी है। चीन के साथ डोकलाम और गलवान सीमा संघर्षों ने साफ कर दिया है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए कोई ठोस नीति का सहारा लेना होगा। जहां तक अमेरिका का सवाल है तो वह इसमें महत्वपूर्ण कारक बन रहा है, लेकन साथ ही वह भारत से ज़्यादा अपने हितों के बारे में सोच रहा है। वहीं इस समय भारत के पास भी चीन से मुक़ाबले के लिए अमेरिका से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं है। जानकारों का यह भी मानना है कि भारत चीन से मुक़ाबले के लिए जितना अमेरिका पर निर्भर होता जाएगा उतना ही वह और दलदल में फंसता जाएगा इसलिए भारत को चाहिए कि चीन के साथ अपने विवाद को आपसी वार्ता के माध्यम से ही हल करे। (RZ)

 

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