Jun २९, २०२२ १५:०० Asia/Kolkata

ईरानी कैलेंडर में 27 जून से लेकर 3 जुलाई तक को अमरीकी मानवाधिकार सप्ताह का नाम दिया गया है। इसका कारण यह है कि अमरीकी अपराधों विशेष रूप से ईरानी जनता पर अमरीकी अत्याचारों को याद रखा जाए।

बड़ी शक्तियां अपने हितों को साधने के लिए अपनी ताक़त का इस्तेमाल करत रही हैं, ताकि वह हालात को अपने हितों के मुताबिक़ मोड़ सकें। एक ऐसा हथकंडा जिसका आजकल बड़ी शक्तियां बहुत ज़्यादा इस्तेमाल कर रही हैं, आतंकवाद का समर्थन है। दर असल आतंकवाद का दोहरा इस्तेमाल किया जा रहा है। बड़ी शक्तियां जब अपने हितों के मुताबिक़ आतंकवाद का इस्तेमाल करती हैं तो उसे कभी लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष तो कभी कोई दूसरा नाम दे दिया जाता है। वहीं अगर संघर्ष बुनियादी अधिकारों के लिए है, लेकिन वह उनके हितों के अनुसार नहीं है तो उस पर आतंकवाद का लेबल चिपका दिया जाता है।

व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति कोई भी रहा हो, उसने मानवाधिकारों के समर्थन और आतंकवाद के ख़िलाफ़ का नारा बुलंद किया है। लेकिन जब ज़मीनी हक़ीक़त पर नज़र डाली जाती है तो पता चलता है कि आतंकवादी गुटों का समर्थन करके व्हाइट हाउस अपने हितों को साध रहा है और मानवाधिकारों की बलि भी ख़ूब धूमधाम से चढ़ाई जा रही है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि अमरीकी सरकारों और ईरान की इस्लामी क्रांति के विरोधी आतंकवादियों के बीच एक संबंध रहा है। इस बारे में कई दस्तावेज़ मौजूद हैं, उनमें से एक यह है कि अमरीकी अधिकारी उनके सम्मेलनों में भाग लेते रहे हैं।

न्यूज़ वीक ने अक्तूबर 2019 के अपने संस्करण में लिखा थाः अमरीका के राष्ट्रीय सलाहकार जॉन बोल्टन के अलावा, अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की वकील रूडी जोलियानी और कई अन्य अधिकारियों ने इस्लामी क्रांति के विरोधी आतंकवादियों के सम्मेलन में भाग लिया और उनका समर्थन करने के बदले उनसे पैसा वसूल किया। इराक़ी संसद की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के पूर्व सदस्य अस्कंदर वतूत ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वर्षों से फ़्रांसीसी और अमरीकी आतंकवादी गुट मुजाहेदीने ख़ल्क़ का इस्तेमाल ईरान को चोट पहुंचाने के लिए कर रहे हैं। यह ऐसा आतंकवादी गुट है कि जिसने दसियों आतंकवादी कार्यवाहियों को अंजाम दिया है और दाइश के साथ इसके गहरे संबंध हैं।

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मुजाहेदीने ख़ल्क़ सिर्फ़ एक ऐसा आतंकवादी गुट नहीं है, जिसका अमरीका समर्थन करता रहा हो। अमरीका कई आतंकवादी गुटों का समर्थन करता रहा है और कई का उसने गठन भी किया है। इस दावे के लिए कई पुख़्ता सबूत भी मौजूद हैं। रीगन के शासनकाल में सीआईए के प्रमुख विलियम एडम्स ने अपनी यादों की किताब में लिखा हैः अमरीका अपने हितों को साधने के लिए आतंकवाद का इस्तेमाल करता था। 80 के दशक में अमरीका ने उसामा बिन लादिन और अल-क़ायदा का इस्तेमाल किया ताकि इस्लामी जगत में अपने हितों को साध सके। हालांकि औपचारिक रूप से वाशिंगटन कट्टरवाद का विरोध करता था, लेकिन हथियार के तौर पर उसका इस्तेमाल भी करता था।

ट्रम्प खुलकर डेमेक्रेट्स पर दाइश के गठन का आरोप लगाते थे। उनके इस बयान की वीडियो मौजूद है, जिसमें उन्होंने कहा थाः एक बार फिर मैं आप लोगों से कहना चाहता हूं कि जिन लोगों से आज हम लड़ रहे हैं, 20 साल पहले ख़ुद हमने उनका गठन किया था। हमने उन्हें सऊदी अरब और दूसरे अरब देशों से निकलने की अनुमति दी, ताकि वे वहाबी इस्लाम का प्रचार कर सकें। सीरिया में भी हमने यही काम किया। यानी सीरिया और रूस के ख़िलाफ़ अल-क़ायदा का इस्तेमाल किया। अफ़ग़ानिस्तान में हमारी योजना ने लोकतांत्रिक सरकार को उखाड़ फेंका और सीरिया में भी अमरीका के प्रतिनिधित्व में इस्लामिक स्टेट यही कहानी दोहरा सकता है। 2016 में इंडिपेंडेंट ने जूलियन असांजे के हवाले से ट्रम्प के दावे के समर्थन में लिखा था कि क्लिंटन फ़ाउंडेशन और दाइश की वित्तीय सहायता करने वाले एक ही लोग हैं।

ऑस्ट्रेलियाई लेखक टिम एंडरसन ने अपनी किताब सीरिया की गंदी लड़ाई, व्यवस्था परिवर्तन और प्रतिरोध में लिखाः अमरीका हमेशा आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ने का दावा करता था, लेकिन ख़ुफ़िया तौर पर वह आतंकवादियों का प्रशिक्षण करता रहा और उन्हें हथियारों की आपूर्ति करता रहा। इस किताब के मुताबिक़, दाइश के कुछ सरग़ना ग्वांटानामो बे जेल में रह चुके थे, जैसे कि अब्दुर्हीम मुस्लिम दोस्त। दाइश का पहला सरग़ना अबू बक्र अल-बग़दादी इराक़ स्थित अमरीकी जेल में क़ैद था। जेल में ही उसका सीआईए और मोसाद के एजेंटों ने ब्रेन वाश किया था। 2015 में सीमिर हर्श ने लिखा था कि ओबामा शासन और सीआईए दाइश को हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं। अमरीकी सिनेटर लिंडसे ग्राहम ने स्वीकार किया था कि अमरीका ने इसलिए दाइश को हथियार दिए, क्योंकि फ़्री सीरियन आर्मी में बशार असद की आर्मी का मुक़ाबला करने की शक्ति नहीं थी।

अमरीकी व्हिसिल ब्लोवर एडवर्ड स्नूडन ने पर्दाफ़ाश करते हुए कहा था कि सीआईए, ब्रिटेन और ज़ायोनी शासन ने दाइश का गठन करने में अहम भूमिका निभाई थी। यूनिस्को ने भी अपनी एक रिपोर्ट में लिखा थाः इराक़ के लिए अमरीका के एक अरब डॉलर के मूल्य की हथियारों की खेप लापता हो गई है और संभवतः वह दाइश के हाथ लग गई है। इन रहस्योद्घाटनों से स्पष्ट है कि आतंकवाद, अमरीकी विदेश नीति का एक प्रमुख हथियार है। अमरीका द्वारा मानवाधिकारों के समर्थन का नारा दिखावटी है।

ख़ुद अमरीका में जब मानवाधिकारों की बात आती है तो कहा जाता है कि यह देश अपनी विदेश नीति में आक्रामता ज़रूरत रखता है, लेकिन आतंरिक रूप से वह अपने सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करता है और सभी के अधिकारों का भरपूर ख़याल रखा जाता है। अमरीकी राष्ट्रपति लोगों का वास्तविक प्रतिनिधि होता है और वह जो भी फ़ैसला लेता है वह आम लोगों के हितों को देखकर लेता है। मीडिया अमरीका की कुछ इसी तरह की तस्वीर पेश करती है। जबकि सच्चाई यह नहीं है। सच्चाई यह है कि अमरीका में अमरीकी नागरिक ही मानवाधिकारों के नाम पर सबसे पहले बलि चढ़ते हैं।

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इस संदर्भ में सबसे पहला बिंदू यह है कि अमरीकी लोकतंत्र बुनियादी तौर पर एक पूंजीवादी लोकतंत्र है। अमरीकी लेखक और शोधकर्ता माइकल प्रिंटी ने अमरीकी राजनीतिक व्यवस्था को अल्पसंख्यक केन्द्रित लोकतंत्र के रूप में वर्णित किया है, जो बहुमत के नाम पर शासन करता है, लेकिन अमीर अल्पसंख्यकों के पक्ष में काम करता है। प्रिंटी का मानना ​​है कि कई सरकारी नीतियां बड़े निवेशकों के लाभ के लिए और आम लोगों के नुक़सान में हैं। इस व्यवस्था में अमीर, अमीर होता चला जाता है, जिसके पास इतना पैसा होता है कि उसे नहीं पता कि इसका क्या करना है और इसे कैसे ख़र्च करना है। वहीं ग़रीबी रेखा के नीचे या उसके आसपास रहने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। उनका मानना ​​​​है कि अमरीकी राजनीतिक व्यवस्था,  दर असल एक राजशाही व्यवस्था है।

 दूसरा बिंदू यह है कि अमरीका के सामाजिक ढांचे में समानता नहीं पाई जाती है और भेदभाव इस समाज की एक बड़ी प्राचीन समस्या है। अफ़्रीक़ी और एशियाई मूल के नागरिकों के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव किया जाता है। यहां तक कि नौकरियों में भी कालों के साथ भेदभाव किया जाता है। अमरीका में अश्वेतों में बेरोज़गारी की दर श्वेतों से दोगुनी है। शिक्षा केन्द्रों में भी इस भेदभाव को देखा जा सकता है। 11 सितम्बर की घटना के बाद से मुसलमानों के साथ भेदभाव में काफ़ी वद्धि हो गई है। इस भेदभाव के परिणाम स्वरूप, जातिवादी हमलों में वृद्धि हुई है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के शासनकाल के दौरान अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हमलों में अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिली थी। इसके स्पष्ट उदाहरणों में से लैटिन आप्रवासियों पर दबाव में वृद्धि, उन्हें अमरीका से बाहर निकालने के लिए उठाए गए क़दम और कुछ इस्लामी देशों के नागरिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध के लिए राष्ट्रपति के तुग़लक़ी फ़रमान का उल्लेख किया जा सकता है।

अमरीकी समाज में अश्वेतों को किसी भी अन्य वर्ग की तुलना में सबसे ज़्यादा निशाना बनाया जाता है। अमरीका में अश्वेतों के अधिकारों के हनन के कई मुख्य कारण हैं। सबसे पहला यह कि आज तक अश्वेतों को समाज का हिस्सा नहीं समझा जाता है और उन्हें हाशिए पर रखा जाता है। अमरीका में अश्वेतों की आबादी 13 फ़ीसद है। वे अल्पसंख्यक हैं और उन्हें प्रथम श्रेणी का नागरिक नहीं समझा जाता है। बराक ओबामा ने अपने राष्ट्रपति काल की समाप्ति के बाद कहा था कि ख़ुद उन्हें अपने शासनकाल के दौरान अमरीका के राजनीतिक समुदाय की ओर से भेदभाव का सामना करना पड़ा।

अमरीकी समाज में जिस तरह से मीडिया और अभिव्यक्ति की आज़ादी का ढिंढोरा पीटा जाता है, वास्तव में ऐसा नहीं है। इस देश में राजनेताओं और ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा मीडिया और पत्रकारों को निशाना बनाया जाता है। ट्रम्प के शासनकाल में यह स्थिति ज़्यादा स्पष्ट रूप से सामने आई और मीडिया ने ट्रम्प को अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुश्मन क़रार दिया। ट्रम्प ने 2020 में श्वेत पुलिसकर्मियों के हाथों अश्वेत जॉर्ज फ़्लॉयड की दर्दनाक मौत के बाद होने वाले विरोध प्रदर्शनों को ताक़त के बल पर कुचलने का आदेश दिया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मानवाधिकार अमरीका की विदेश नीति का एक हथियार है, जिसे अमरीकी सरकारें अपने हितों के आधार पर इस्तेमाल करती रही हैं। जहां तक अमरीकी समाज की आंतरिक स्थिति की बात है, इसका इस्तेमाल पूंजीपतियों के अधिकारों की आपूर्ति और एक छोटे वर्ग के हितों के अनुसार किया जाता है। इस समाज के दूसरे वर्गों जैसे कि अश्वेतों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए मानवाधिकारों का कोई अर्थ नहीं है।

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