क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-869
ज़ोमर आयतें 51-53
فَأَصَابَهُمْ سَيِّئَاتُ مَا كَسَبُوا وَالَّذِينَ ظَلَمُوا مِنْ هَؤُلَاءِ سَيُصِيبُهُمْ سَيِّئَاتُ مَا كَسَبُوا وَمَا هُمْ بِمُعْجِزِينَ (51)
इस आयत का अनुवाद हैः
फिर उनके कर्मों के बुरे नतीजे उन्हें भुगतने पड़े और उन (मक्का के नास्तिकों) में से जिन लोगों ने नाफ़रमानियाँ की हैं उन्हें भी अपने अपने किए की सज़ाएँ भुगतनी पड़ेंगी और ये लोग (ख़ुदा को) बेबस नहीं कर सकते। [39:51]
पिछले कार्यक्रम में नाशुक्री करने वाले लोगों की बात की गई जो कठिनाई के समय तो अल्लाह को याद करते हैं लेकिन नेमत और आसानियां मिल जाने के बाद अल्लाह को भूल जाते हैं और यह समझने लगते हैं कि नेमतें उन्हें अल्लाह ने नहीं दीं बल्कि उन्होंने ख़ुद अपनी क़ाबिलियत से हासिल की हैं। अब यह आयत इसके आगे कहती है कि उन्हें जो कठिनाइयां और समस्याएं झेलनी पड़ी हैं वह उन्हीं के कर्मों का नतीजा है। इसी तरह वे आज जो ज़ुल्म कर रहे हैं या कल तक जो ज़ुल्म किया है उसका ख़मियाज़ा भी आने वाले दिनों में भुगतेंगे। अलबत्ता उनके कर्मों का अस्ली नतीजा उन्हें क़यामत के दिन नज़र आएगा। उन्हें इस भूल में नहीं रहना चाहिए कि वे अपने कर्मों की सज़ा और प्रतिफल से बच जाएंगे।
इस आयत से हमने सीखाः
जिस तरह प्रकृति में क्रिया और प्रतिक्रिया का क़ानून लागू है उसी तरह इंसान के कामों के बारे में भी अल्लाह का यह क़ानून लागू है। इसलिए हर इंसान को अपने किए का नतीजा देखना पड़ेगा। उसे एक न एक दिन अपने कर्मों का नतीजा देखना पड़ेगा।
नेमतें अल्लाह की तरफ़ से हैं जबकि कठिनाइयां और समस्याएं हमारे अपने ग़लत फ़ैसलों और कर्मों का नतीजा हैं।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 52 की तिलावत सुनते हैं,
أَوَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَشَاءُ وَيَقْدِرُ إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآَيَاتٍ لِقَوْمٍ يُؤْمِنُونَ (52)
इस आयत का अनुवाद हैः
क्या उन लोगों को इतनी बात भी मालूम नहीं कि ख़ुदा ही जिसके लिए चाहता है रोज़ी बढ़ा देता है और (जिसके लिए चाहता है) तंग करता है इसमें शक नहीं कि इसमें ईमानदार लोगों के लिए (कुदरत की) बहुत सी निशानियाँ हैं [39:52]
पिछले कार्यक्रम की आयतों में बताया गया कि कुछ लोग नेमतों को अपने ज्ञान का नतीजा और प्रतिफल ज़ाहिर करने की कोशिश करते हैं। यह आयत इस ग़लत नज़रिए को रद्द करते हुए कहती है कि रोज़ी तो अल्लाह की तरफ़ से मिलती है इसलिए एसा नहीं है कि जिसके पास भी ज्ञान आ गया उसे बहुत अधिक रोज़ी भी ज़रूर मिल जाएगी।
बेशक इंसान की ज़िम्मेदारी है कि ज्ञान के मैदान में मेहनत करे और अपने जीवन के कामों को संभाले और अल्लाह जाहिल व काहिल इंसानों को पसंद नहीं करता। इसके साथ ही इंसान को यह ख़याल भी रखना चाहिए कि इंसान यह न सोचना शुरू कर दे कि हर चीज़ उसकी इच्छा और इरादे के मुताबिक़ है।
रोज़ी वह चीज़ है जो आख़िरकार इंसान को हासिल हो जाती है। अलबत्ता इसमें अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक कारकों की भूमिका होती है और अल्लाह अपनी हिकमत के आधार पर उसे अपने बंदों के बीच तक़सीम करता है।
इस आयत से हमने सीखाः
हमारी ज़िम्मेदारी रोज़ी कमाने के लिए मेहनत करना है लेकिन किसको कितना रिज़्क़ मिलेगा इसका फ़ैसला अल्लाह के हाथ में है।
रोज़ी में अल्लाह के इंसाफ़ का मतलब यह नहीं है कि हर इंसान को एक जैसी रोज़ी मिले बल्कि अल्लाह सृष्टि के भीतर अनेक प्रकार के कारकों के आधार पर रोज़ी देता है। रोज़ी किसी इंसान को बदल नहीं देती लेकिन उसे जितना रिज़्क़ मिलता है उसका हिसाब उससे लिया जाएगा।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 53 की तिलावत सुनते हैं,
قُلْ يَا عِبَادِيَ الَّذِينَ أَسْرَفُوا عَلَى أَنْفُسِهِمْ لَا تَقْنَطُوا مِنْ رَحْمَةِ اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ يَغْفِرُ الذُّنُوبَ جَمِيعًا إِنَّهُ هُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ (53)
इस आयत का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) कह दो कि ऐ मेरे (ईमानदार) बन्दो! जिन्होंने (गुनाह करके) अपनी जानों पर ज्यादतियाँ की हैं तुम लोग ख़ुदा की रहमत से नाउम्मीद न होना बेशक ख़ुदा (तुम्हारे) कुल गुनाहों को बख़्श देगा वह बेशक बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है। [39:53]
यह उन आयतों में है जो इंसानों के अंदर उम्मीद जगाती हैं। यहां अल्लाह बड़े मुहब्बत और प्रेम भरे स्वर में बात करते हुए सबके लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोलता है और आम माफ़ी का एलान करता है। यह आयत सारे गुनहगारों और उन लोगों के लिए जिन्होंने अपने साथ ज़्यादती की और अपनी उम्र और क्षमताएं गवां दीं ख़ुशख़बरी देता है कि वापसी का रास्ता हमेशा खुला है और अल्लाह का लुत्फ़ व करम ऐसा है कि किसी को भी अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होना चाहिए और यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उसके गुनाह माफ़ नहीं हो सकते।
रहमत और बख़्शिश के दरवाज़े सारे बंदों के लिए खुले हुए हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इंसान यह समझ ले कि उससे ग़लती हुई है और ख़ुद को संभाल ले। जब इंसान वास्तविक अर्थों में अपनी ग़लती पर शर्मिंदा हो जाता है और फ़ैसला कर लेता है कि उसे अपनी ज़िंदगी का रास्ता अब बदल देना है और गुनाह के रास्ते से हट जाना है तो उसकी बख़्शिश का रास्ता साफ़ हो जाता है और अल्लाह उसके गुनाहों को माफ़ कर देता है।
यह अल्लाह का करम है कि गुनहगार इंसानों को भी अपना बंदा कहता है बिल्कुल उस बाप की तरह जो अपने बच्चों के काम से नाराज़ है मगर उन्हें सज़ा देने के बजाए बुरे काम छोड़ने के लिए समझाता है। वह यही तो कहेगा कि कुछ भी हो तुम मेरे बेटे हो मैं तुम्हारी पिछली ग़लतियों को माफ़ करता हूं। अब कोशिश करो कि आइंदा इस तरह की कोई ग़लती न हो।
इस आयत में एक बात कही गई है कि कुछ लोग वे हैं जिन्होंने अपने आप पर ज़ुल्म किया है। यह दरअस्ल इस बात की तरफ़ इशारा है कि ऐ इंसान! तेरे बुरे कर्मों का सबसे ज़्यादा नुक़सान तुझे ही पहुंचने वाला है। तो तू अपने ऊपर अत्याचार न कर बल्कि अपना ख़याल रख।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह की रहमत सीमित नहीं है बल्कि इसके दायरे में सारे बंदे आते हैं यह केवल मोमिनों तक सीमित नहीं है।
अल्लाह की रहमत गुनाहों की बख़्शिश पर केन्द्रित है इसलिए अल्लाह की रहमत से मायूसी जायज़ नहीं है, गुनहगारों को किसी भी हाल में अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होना चाहिए।
गुनाह एक प्रकार से अपने ऊपर अत्याचार है और संतुलन के मार्ग से बहक जाने के अर्थ में है।
जो इंसान गुनाह करके अल्लाह के आदेशों की अवमानना करता है वह दर हक़ीक़त अपना नुक़सान करता है अल्लाह को कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकता।