Nov २८, २०२४ १२:४४ Asia/Kolkata
  •  क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-899 

सूरए फ़ुस्सेलत आयतें 31-36

 

आइए पहले सूरए फ़ुस्सेलत की आयत नंबर 31 और 32 की तिलावत सुनते हैं,

نَحْنُ أَوْلِيَاؤُكُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَفِي الْآَخِرَةِ وَلَكُمْ فِيهَا مَا تَشْتَهِي أَنْفُسُكُمْ وَلَكُمْ فِيهَا مَا تَدَّعُونَ (31) نُزُلًا مِنْ غَفُورٍ رَحِيمٍ (32)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

हम दुनिया की ज़िन्दगी में तुम्हारे दोस्त थे और आख़ेरत में भी, और जिस चीज़ का भी तुम्हारा जी चाहे जन्नत में तुम्हारे वास्ते मौजूद है और जो चीज़ तलब करोगे वहाँ तुम्हारे लिए (हाज़िर) होगी।[41:31] (ये) बख़्शने वाले मेहरबान (ख़ुदा) की तरफ़ से (तुम्हारी मेहमानी) है।[41:32]

पिछली आयतों में मोमिनों के दिलों पर अल्लाह के फ़रिश्तों के नाज़िल होने का उल्लेख किया गया और अब इसके आगे यह आयतें कहती हैं कि वे केवल दुनिया में मोमिन बंदों के मददगार और उनकी आत्मा को ढारस देने वाले नहीं हैं बल्कि आख़ेरत में भी वफ़दार साथियों की तरह उनकी मदद करेंगे और उन्हें अपने साथ जन्नत की ओर ले जाएंगे।

दुनिया में फ़रिश्ते उन मोमिन बंदों को जो सत्य के रास्ते पर अडिग रहते हैं और दृढ़ता से अपने पांव  जमाए रखते हैं, असत्य पर सत्य की विजय की शुभसूचना देते हैं। आख़ेरत में भी उन्हें जन्नत में बिछे हुए अल्लाह के दस्तरख़्वान पर अपने साथ बिठाएंगे। वहां इंसान जो भी नेमत चाहेगा और मांगेगा वह पहले से मुहैया होगी। केवल भौतिक नेमतें नहीं बल्कि आध्यात्मिक और रूहानी आनंद या इस तरह की कोई और भी चीज़ अगर वे चाहेंगे तो उन्हें हासिल होगी।

इसकी वजह यह है कि दुनिया में मोमिन बंदों की एक ज़िम्मेदारी यह थी कि अपनी इच्छाओं पर क़ाबू रखें और बेलगाम इच्छाओं के बहाव में बहने से ख़ुद को बचाएं क्योंकि ऐसा होने की स्थिति में वे बर्बाद हो सकते हैं। लेकिन आख़ेरत में अल्लाह उनके इस संयम और इच्छाओं को मारने के प्रशंसनीय अमल का यह बदला देगा कि उन्हें वो सब कुछ हासिल होगा जिसकी उन्हें इच्छा होगी। क्योंकि स्वर्ग तो तबाही और बर्बादी की जगह नहीं है। वे जन्नत में अल्लाह के मेहमान होंगे और अल्लाह उनकी मेज़बानी करेगा जो बड़ा मेहरबान और बख़्शने वाला है। उसके मेहमान पाकीज़ा और जन्नती इंसान होंगे।

इन आयतों से हमने सीखाः

अगर सत्य के मार्ग पर अडिग रहने वाले मोमिन बंदों के दोस्त दुनिया में कम हों तो कोई बात नहीं आसमान के फ़रिश्ते उनके दोस्त बनते हैं जो दुनिया के साथ ही आख़ेरत में भी उनका साथ देंगे।

जन्नत का आनंद केवल भौतिक आनंद तक सीमित नहीं है बल्कि वहां इंसान को हर वो चीज़ हासिल होगी जिससे उसे किसी तरह का भी आनंद मिलता हो। ज़ाहिर है कि जन्नत में जाने वालों के लिए आध्यात्मिक आनंद भौतक आनंद से कम नहीं होगा।

जन्नत वालों के साथ अल्लाह का बर्ताव रहमत और बख़्शिश पर आधारित होगा। इससे उनके लिए अल्लाह के असीम करम और कृपा का पता चलता है।

अब आइए सूरए फ़ुस्सेलत की आयत संख्या 33 की तिलावत सुनते हैं,

وَمَنْ أَحْسَنُ قَوْلًا مِمَّنْ دَعَا إِلَى اللَّهِ وَعَمِلَ صَالِحًا وَقَالَ إِنَّنِي مِنَ الْمُسْلِمِينَ (33)

 

इस आयत का अनुवाद हैः  

और इस से बेहतर किसकी बात हो सकती है जो (लोगों को) ख़ुदा की तरफ़ बुलाए और अच्छे अच्छे काम करे और कहे कि मैं भी यक़ीनन (ख़ुदा के) समर्पित बन्दों में हूं। [41:33]

जो लोग अवाम को पैग़म्बरों की बातें और क़ुरआन की आयतें सुनने से रोकते थे और सत्य की बात अवाम के कानों तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे उनके बारे में यह आयत कहती है कि कुछ लोग अपने अच्छे आचरण और बातों से लोगों को अल्लाह के रास्ते की तरफ़ बुलाते हैं। वे लोग अपने मुसलमान होने का एलान करते हैं और इस पर गर्व भी करते हैं।

इस आयत के अनुसार किसी की भी बात अल्लाह की तरफ़ बुलाने वाले और तौहीद की आवाज़ बुलंद करने वाले मार्गदर्शकों से बेहतर नहीं है। वे लोग जो अपने अच्छे और सुलझे हुए अमल से अपने ज़बानी पैग़ाम को और भी मज़बूती देते हैं। अलबत्ता इतना ही काफ़ी नहीं है कि इंसान ख़ुद हक़ व सत्य को पहचान ले और उस पर अमल कर ले बल्कि उसे चाहिए कि दूसरों को भी अल्लाह के रास्ते की तरफ़ बुलाए और अमल से भी साबित करे कि वो अल्लाह के आदेश के सामने समर्पित है अपने जीवन में अल्लाह के आदेशों पर अमल करता है।

इस संदर्भ में ज़रूरी है कि कुछ लोग दीन को समझने और उसे फैलाने और सत्य को आम करने के लिए मेहनत करें। यह वही आलिम और उपदेशक हैं जिनकी ज़िम्मेदारी धर्म की रक्षा करना अल्लाह के बंदों के दिलों से हर शंका व संदेह को दूर करना है।

अलबत्ता उनके इस काम से दूसरों की ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि हर किसी की ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपनी क्षमता भर दूसरों को धर्म की दावत दें और तौहीद को हक़ीक़त को बयान करने और उसे फैलाने के लिए कोशिश करें।

इस आयत से हमने सीखाः

बेहतरीन बात लोगों को अल्लाह के रास्ते पर ले आना है। अलबत्ता यह काम वही लोग करें जो ख़ुद अपने अमल से ज़ाहिर कर दें कि वे अल्लाह के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हैं।

लोगों को सत्य और अल्लाह के रास्ते पर बुलाना अज़ान देने के अर्थ में है।

हमें मुसलमान होने और अल्लाह के सामने समर्पित रहने पर गर्व होना चाहिए। विरोधी अगर दुश्मनी करें और मज़ाक़ उडाएं तो इससे हमारे इरादे में कोई कमज़ोरी नहीं आनी चाहिए।

आइए अब सूरए फ़ुस्सेलत की आयत नंबर 34 और 35 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَا تَسْتَوِي الْحَسَنَةُ وَلَا السَّيِّئَةُ ادْفَعْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ فَإِذَا الَّذِي بَيْنَكَ وَبَيْنَهُ عَدَاوَةٌ كَأَنَّهُ وَلِيٌّ حَمِيمٌ (34) وَمَا يُلَقَّاهَا إِلَّا الَّذِينَ صَبَرُوا وَمَا يُلَقَّاهَا إِلَّا ذُو حَظٍّ عَظِيمٍ (35)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और भलाई बुराई (कभी) बराबर नहीं हो सकती तो (दूसरों की बुराई का) ऐसे तरीक़े से जवाब दो जो निहायत अच्छा हो (ऐसा करोगे) तो (तुम देखोगे) जिस में और तुममें दुशमनी थी मानो वह तुम्हारा हमदर्द दोस्त हो गया है। [41:34] ये बात बस उन्हीं लोगों को हासिल हुई है जो सब्र करने वाले हैं और उन्हीं लोगों को हासिल होती है जो (ईमान और तक़वा में) अच्छा भाग हासिल करने वाले हैं। [41:35]

हक़ और सत्य के विरोधी अपशब्द बोलते हैं, झूठे आरोप लगाते हैं, दबाव डालते हैं और धमकियां देते हैं। तो विरोधियों को अगर सीधे रास्ते पर लाना है तो इसके लिए संयम और सहनशीलता की ज़रूरत है। इसी लिए अल्लाह इन आयतों में कहता है कि वे  लोग आपके विरोध के लिए ग़लत शैलियों का इस्तेमाल करते हैं लेकिन आपको हक़ नहीं है कि उन्हीं जैसा बर्ताव अपनाएं। आप हक़ के उसूलों के मुताबिक़ अमल कीजिए। बुराई का जवाब बुराई से न दीजिए। आपका बर्ताव प्रेम और नर्मी पर आधारित होना चाहिए। उनकी तल्ख़ और ग़लत बातों का जवाब आप नर्म और तार्किक बातों से दीजिए। ज़ाहिर है कि अगर यह सिलसिला चलता रहा तो दूसरों पर इसका असर होगा और उनका द्वेष और नफ़रत कम होगी, धीरे धीरे वे तुमसे प्रेम करने लगेंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम का जीवन गुज़ारने का तरीक़ा और अपना पैग़ाम लोगों तक पहुंचाने की शैली क़ुरआन की शिक्षाओं पर आधारित थी। वो अपने विरोधियों से हमेशा इस तरह का बर्ताव करते थे कि विरोधी अपनी कड़वी बातों और अभद्र बर्ताव पर शर्मिंदा हो जाया करते थे। जब मक्का पर मुसलमानों का नियंत्रण हो गया तो कुछ कुछ मुसलमान इंतेक़ाम लेने का नारा लगाने लगे। मगर पैग़म्बरे इस्लाम ने आम माफ़ी का एलान किया। पैगम़्बर के इस हैरतअंगेज़ बर्ताव का नतीजा यह हुआ कि लोगों की सोच बदल गई।

अलबत्ता स्वाभाविक है कि विरोधियों से इस अंदाज़ से पेश आना आसान काम नहीं है। इसके लिए फ़राख़दिली और उदार स्वभाव की ज़रूरत है, संयम भी दिखाना पड़ता है। दरअस्ल आत्म निर्माण की प्रक्रिया के तहत इंसान ख़ुद को ईमान की रौशनी में उस मक़ाम पर पहुंचाए कि उसके वजूद में इंतेक़ाम की ज्वाला भड़कने न पाए और वो बुराई का जवाब अच्छाई से दे।

इन आयतों से हमने सीखाः

अल्लाह के दीन की अमली दावत देने का एक नमूना यह है कि दूसरों की बुराई के जवाब में उनसे नेकी की जाए और भद्र बर्ताव किया जाए।

जंग के मैदान में दुश्मन को जैसे को तैसा के अनुसार जवाब देना सही और स्वीकार्य है मगर सामाजिक संबंधों में इंतेक़ाम और जैसे को तैसा वाला तरीक़ा संयमहीनता की निशानी है। जैसे को तैसा करने की वजह से समाज में तनाव बढ़ता है।

दूसरों की ग़लत बातों या कठोर बर्ताव के जवाब में संयम बरतने के लिए ज़रूरी है कि इंसान नैतिकता की दृष्टि से काफ़ी ऊंचाई पर हो।

अब आइए सूरए फ़ुस्सेलत की आयत संख्या 36 की तिलावत सुनते हैं,

وَإِمَّا يَنْزَغَنَّكَ مِنَ الشَّيْطَانِ نَزْغٌ فَاسْتَعِذْ بِاللَّهِ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ (36)

इस आयत का अनुवाद हैः

और अगर तुम्हें शैतान की तरफ़ से बहकावा पैदा हो तो ख़ुदा की पनाह माँग लिया करो बेशक वह (सबकी) सुनता, जानता है। [41:36]

यह बताना उचित होगा कि शैतान कई तरीक़ों से और कई रूपों में इंसान को बहकाने के लिए आगे आता है। इसका एक उदाहरण यह है कि शैतान हमेशा लोगों के बीच दुश्मनी और अदावत डालने की कोशिश करता है। लोगों के बीच प्यार मुहब्बत और शांति के माहौल से उसे तकलीफ़ पहुंचती है। इसलिए अल्लाह इस आयत में अपने रसूल और सारे मोमिन बंदों को मुख़ातिब करके कहता है कि लोगों को अल्लाह के दीन की तरफ़ बुलाने के मिशन में जब भी ग़लत और कठोर बातों को सहन करोगे और लोगों के साथ नर्मी और हमदर्दी से पेश आओगे तो शैतानी मेज़ाज के लोग यह समझाने की कोशिश करेंगे कि विरोधियों के सामने कमज़ोरी नहीं दिखाना चाहिए। बल्कि उन्हें उन्हीं के अंदाज़ में जवाब देना चाहिए। ध्यान रखिए कि इस तरह के बहकावे शैतानी बहकावे हैं चाहे यह बातें आपको अपने किसी दोस्त की ज़बान से सुनने को मिल रही हो। इसलिए इन बातों में हरगिज़ न पड़ो। अपना लक्ष्य यानी अवाम का मार्गदर्शन पूरा करने के लिए अपनी इच्छाओं और भावनाओं पर क़ाबू रखना चाहिए और बुरी बातें सुनकर नाराज़ होने के बजाए नर्मी से जवाब देना चाहिए। ख़ुद को अल्लाह के हवाले कर दो, उसके करम की छाया में शरण लो, उस पर भरोसा करो वह सुनने वाला और आगाह है।

इस आयत से हमने सीखाः

दूसरों के बुरे कामों का उनसे इंतेक़ाम लेने का विचार शैतानी बहकावा है जबकि दूसरों के बुरे कर्मों को नेकी से जवाब देना अल्लाह की तालीम है।

जो भी इंसान को बुरे कर्म करने के लिए बहकाए वो शैतान है चाहे ज़ाहिरी तौर पर वह दोस्त के रूप में नज़र आ रहा हो।

शैतान के बहकावों से नजात पाने का रास्ता अल्लाह की बारगाह में पनाह लेना और तौबा है।