क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-902
सूरए फ़ुस्सेलत आयतें 45-48
आइए पहले सूरए फ़ुस्सेलत की आयत नंबर 45 की तिलावत सुनते हैं,
وَلَقَدْ آَتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ فَاخْتُلِفَ فِيهِ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَبِّكَ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ وَإِنَّهُمْ لَفِي شَكٍّ مِنْهُ مُرِيبٍ (45)
इस आयत का अनुवाद हैः
और हम ही ने मूसा को भी किताब (तौरैत) अता की तो उसमें भी मतभेद पैदा हो गया और अगर तुम्हारे परवरदिगार की पुरानी परम्परा न होती (कि वह लोगों को मोहलत देता है) तो उन के बीच कब का (विनाश का) फ़ैसला कर दिया गया होता, और ये लोग (भी मूसा की क़ौम की तरह) ऐसे शक में पड़े हुए हैं जिसने उन्हें बेचैन कर दिया है। [41:45]
पिछले कार्यक्रम में हमने ज़िक्र किया कि मक्के के अनेकेश्वरवादी किस तरह की बहाने बाज़ी किया करते थे और पैग़म्बर से कहते थे कि चूंकि आपका क़ुरआन अरबी भाषा में है इसलिए वह चमत्कार नहीं हो सकता। अगर आप किसी और ज़बान में ग्रंथ लेकर आएं तो वह एक चमत्कार होगा।
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है कि हज़रत मूसा के ज़माने में भी बनी इस्राईल क़ौम इसी तरह के बहाने लाती थी और तौरैत के बारे में शक करती थी। मगर अल्लाह काफ़िरों को तुरंत सज़ा नहीं देता क्योंकि सज़ा देने में जल्दबाज़ी अल्लाह की रहमत से मेल नहीं खाती। वरना इसी दुनिया में अल्लाह का अज़ाब तत्काल काफ़िरों को अपनी चपेट में ले लेता।
अलबत्ता क़ुरआन के बारे में अनेकेश्वरवादियों का संदेह प्राकृतिक संदेह नहीं है कि उन्हें वाक़ई जिज्ञासा हो और वह सच्चाई जानना चाहते हों और शक दूर होने के बाद सत्य बात को स्वीकार करने का इरादा रखते हों। बल्कि मसला यह है कि वे बदगुमानी में हैं। वे हर दिन नया बहाना खोज लेते हैं, संदेह पैदा करते हैं ताकि दूसरों को ईमान लाने से रोकें।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह की रहमत का तक़ाज़ा है कि काफ़िरों और गुनहगारों को मोहलत दे ताकि शायद वे तौबा कर लें और ग़लत रास्ते से वापस आ जाएं। अगर यह न होता तो हर किसी को पहली ही ग़लती और पहले ही गुनाह पर सज़ा दे दी जाती और उसके जीवन का काम तमाम हो जाता।
संदेह हक़ीक़त तक पहुंचने का ज़रिया है। शक के नतीजे में सत्य को जानने के लिए सवाल जवाब शुरू होना चाहिए। इसे सत्य के इंकार और उसके बारे में बदगुमानी का ज़रिया नहीं बनना चाहिए।
अब आइए सूरए फ़ुस्सेलत की आयत संख्या 46 की तिलावत सुनते हैं,
مَنْ عَمِلَ صَالِحًا فَلِنَفْسِهِ وَمَنْ أَسَاءَ فَعَلَيْهَا وَمَا رَبُّكَ بِظَلَّامٍ لِلْعَبِيدِ (46)
इस आयत का अनुवाद हैः
जिसने अच्छे अच्छे काम किये तो अपने फ़ायदे क़े लिए और जो बुरा काम करे उसका नुक़सान भी उसी पर है और तुम्हारा परवरदिगार तो बन्दों पर (कभी) ज़ुल्म करने वाला नहीं। [41:46]
पिछली आयत में काफ़िरों के बारे में अल्लाह की परम्परा का ज़िक्र किया गया अब यह आयत अल्लाह की एक अन्य परम्परा के बारे मे बताती है जो सारे इंसानों के कर्मों के बारे में लागू होती है। परम्परा यह है कि जो भी नेक काम करता है उसका फ़ायदा उसी को मिलता है और जो भी बुरा काम करता है वह ख़ुद ही को नुक़सान पहुंचाता है। दूसरे शब्दों में हर इंसान के अमल की सज़ा या पारितोषिक उसके अमल के अनुरूप होता है हर इंसान को अपने कर्म के अनुसार अच्छा और कड़वा फल मिलता है। क्योंकि अल्लाह हरगिज़ अपने बंदों पर ज़ुल्म नहीं करता।
दूसरा बिंदु यह है कि इंसानी समाजों में सज़ा और प्रतिफल की व्यवस्था में कर्म और प्रतिफल के बीच उचित मुताबिक़त होती है। इसी आधार पर बहुत सारे क़ानून बनाए गए हैं। मगर अल्लाह के यहां सज़ा या इनाम देने की व्यवस्था अलग प्रकार की है। वहां तो कर्म की जो सही प्रतिक्रिया है वही सज़ा या इनाम के रूप में मिलती है।
मिसाल के तौर पर अगर किसी ने जान बूझ कर ख़राब खाना खा लिया तो बीमार होगा, दर्द और पीड़ा झेलेगा। यह दर्द और पीड़ा उस ख़राब खाने की वजह से है जो इंसान ने खाया है। इस मसले में वह किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकता। निःसंदेह कुफ़्र और गुनाह का इंसान की आत्मा और मन पर गहरा असर पड़ता है। यह गहरा असर दुनिया में भी अलग अलग रूप में दिखाई देता है जो उसके इस गुनाह का दुनियावी नतीजा है और आख़ेरत में भी उसे जहन्नम के अज़ाब के रूप में अपने इस गुनाह का बदला मिलेगा।
इस आयत से हमने सीखाः
जब तक हमें अपने कामों का अधिकार और अख़तियार है उस समय तक हम अपने कर्मों के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते।
जीवन की अप्रिय घटनाओं के लिए हम अल्लाह को ज़िम्मेदार न ठहराएं क्योंकि अल्लाह तो किसी पर ज़ुल्म नहीं करता। यह मुसीबत हमारे अपने कर्मों का नतीजा है।
अब आइए सुरए फ़ुस्सेलत की आयत संख्या 47 और 48 की तिलावत सुनते हैं,
إِلَيْهِ يُرَدُّ عِلْمُ السَّاعَةِ وَمَا تَخْرُجُ مِنْ ثَمَرَاتٍ مِنْ أَكْمَامِهَا وَمَا تَحْمِلُ مِنْ أُنْثَى وَلَا تَضَعُ إِلَّا بِعِلْمِهِ وَيَوْمَ يُنَادِيهِمْ أَيْنَ شُرَكَائِي قَالُوا آَذَنَّاكَ مَا مِنَّا مِنْ شَهِيدٍ (47) وَضَلَّ عَنْهُمْ مَا كَانُوا يَدْعُونَ مِنْ قَبْلُ وَظَنُّوا مَا لَهُمْ مِنْ مَحِيصٍ (48)
इन आयतों का अनुवाद हैः
क़यामत आने के समय की आगाही उसी की तरफ़ पलटती है (यानि वही जानता है) और बग़ैर उसके इल्म (व इरादे) के न तो फल अपनी कलियों से निकलते हैं और न किसी औरत को हम्ल रुकता है और न वह बच्चा जनती है और जिस दिन (ख़ुदा) उन मुशरेकीन को पुकारेगा और पूछेगा कि मेरे शरीक कहाँ हैं- वह कहेंगे हम तो तुझ से अर्ज़ कर चुके हैं कि हम में से कोई (उनसे) वाकिफ़ ही नहीं। [41:47] और इससे पहले जिन माबूदों की इबादत करते थे वे ग़ायब हो गये और ये लोग समझ जाएगें कि उनके लिए अब फ़रार का रास्ता नहीं है। [41:48]
पिछली आयत में इस बारे में बात की थी कि अल्लाह अपने बंदों को सज़ा या इनाम देने में कोई नाइंसाफ़ी नहीं करता। अब यह आयत कहती है कि किसी को भी क़यामत आने के समय और वहां होने वाली घटनाओं की जानकारी नहीं है इसकी जानकारी केवल अल्लाह को है। अलबत्ता अल्लाह ने अपने दूतों के ज़रिए क़यामत से जुड़ी कुछ बातें अपने बंदों को बता दी हैं। मगर फिर भी उस दुनिया के राज़ अब भी इंसान की नज़र से पोशीदा ही हैं।
इसके आगे आयत कहती है कि क़यामत के राज़ ही नहीं बल्कि इस दुनिया के बहुत से रहस्य हैं जो तुम इंसानों को नहीं मालूम हैं जबकि वे सब अल्लाह के सामने खुली हुई किताब की तरह हैं। जब कोई फल तैयार होता है और अपने ग़ेलाफ़ से बाहर निकलता है या इंसान अथवा जानवर की मादा गर्भ धारण करती है और फिर बच्चे को जनती है तो यह सब कुछ अल्लाह के ज्ञान और उसकी तदबीर के अनुसार होता है।
आयत इसके आगे उन मुशरिकों के बारे में जो क़यामत का इंकार करते हैं यह कहती है कि क़यामत के मैदान में उनसे पूछा जाएगा कि वे चीज़ें और लोग कहां हैं जिन्हें तुम अल्लाह का शरीक समझते थे और उनकी शरण में रहा करते थे। पुकारो की आज वे तुम्हारी मदद करें और तुम्हें बचाएं। उन लोगों के पास कोई जवाब नहीं होगा। वे बस इतना कहेंगे कि अपनी बातों और आस्थाओं के लिए हमारे पास कोई गवाह नहीं है। आज हमारी समझ में आया कि हम जो कुछ कह रहे थे ग़लत और निराधार था। इस हालत में वे अपनी आंखों से देखेंगे कि जिन्हें वे अपने पूज्य और कठिनाइयों के समय में अपना मददगार समझते थे उनका कहीं अता पता नहीं है सब उनकी नज़रों से ग़ायब हो गए। तब उन्हें अच्छी तरह पता चलेगा कि उनके पास फ़रार का कोई रास्ता और शरण की कोई जगह नहीं है।
इन आयतों से हमने सीखाः
क़यामत का समय मालूम न होने का मतलब यह नहीं कि उसका इंकार कर दिया जाए। हम दूसरी भी बहुत सी चीज़ों का समय नहीं जानते जबकि वे यक़ीनी हैं।
अल्लाह कायनात की केवल मोटी मोटी चीज़ों को नहीं बल्कि सारी बारीकियों को जानता है उन चीज़ों को भी जिनके बारे में इंसानों को भनक तक नहीं है और वे पूरी तरह इस बारे में अनभिज्ञ हैं।
दुनिया में हमें उनकी शरण नहीं लेनी चाहिए जो क़यामत में हमारी कोई मदद नहीं कर सकते। उस दिन मुशरिक बुलंद आवाज़ में एलान करेंगे कि वे ख़ुद भी बेबस हैं और उनके माबूद भी बेबस हैं।
क़यामत के मैदान में सत्य इस तरह जगमगाएगा कि सारे झूठे ख़ुदाओं की क़लई ख़ुद ही खुल जाएगी। उस दिन मुशरिकों को यक़ीन हो जाएगा कि अतीत में उनकी आस्थाएं ग़लत थीं और आगे उनके पास फ़रार और नजात का कोई रास्ता नहीं है।