क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-905
सूरए शूरा, आयतें 7-10
आइए पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 7 की तिलावत सुनते हैं,
وَكَذَلِكَ أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ قُرْآَنًا عَرَبِيًّا لِتُنْذِرَ أُمَّ الْقُرَى وَمَنْ حَوْلَهَا وَتُنْذِرَ يَوْمَ الْجَمْعِ لَا رَيْبَ فِيهِ فَرِيقٌ فِي الْجَنَّةِ وَفَرِيقٌ فِي السَّعِيرِ (7)
इस आयत का अनुवाद हैः
और हमने तुम्हारे पास यूँ अरबी क़ुरान भेजा ताकि तुम मक्का वालों को और जो लोग इसके इर्द गिर्द रहते हैं उनको डराओ और (उनको) क़यामत के दिन से भी डराओ जिस (के आने) में कुछ भी शक़ नहीं (उस दिन) एक समूह जन्नत में होगा और समूह दोज़ख़ में। [42:7]
पिछले कार्यक्रम में गुज़रे ज़मानों के पैग़म्बरों पर अल्लाह की वहि उतरने के बारे में बात हुई। अब यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है कि वहि के उसी सिलसिले को जारी रखते हुए पिछले पैग़म्बरों की तरह हम आप पर भी वहि नाज़िल कर रहे हैं और हमने क़ुरआन को मक्कावासियों की ज़बान के मुताबिक़ जो इस पैग़ाम के सबसे पहले संबोधक थे अरबी ज़बान में नाज़िल किया। ताकि पहले मरहले में मक्का और आसपास के निवासियों को इस किताब के ज़रिए हिदायत का रास्ता दिखाओ और क़यामत से डराओ, उन्हें उनके बुरे कर्मों के बुरे अंजाम से ख़बरदार करो। वे कर्म जो क़यामत के दिन उनके लिए मुसीबत बन जाएंगे।
आयत आगे यह इशारा करती है कि क़यामत के दिन सारे इंसान जमा किए जाएंगे और उनके कर्मों का हिसाब लिया जाएगा। वहां लोग दो समूहों में बट जाएंगे। एक ईमान लाने वालों का समूह होगा जो भले कर्म करने वाले होंगे वे जन्नत में प्रवेश करेंगे और एक समूह जहन्नम में जाएगा।
इस आयत से हमने सीखाः
हालांकि क़ुरआन की ज़बान अरबी है लेकिन यह ग्रंथ अरबों से विशेष नहीं है। इसीलिए क़ुरआन में कहीं भी इस तरह संबोधन नहीं है कि हे अरबो! हर जगह ख़ेताब आम है जिसमें सारे इंसान शामिल हैं।
दीन के प्रचार में उन लोगों की विशेषताओं, ज़रूरतों और प्राथमिकताओं को मद्देनज़र रखा जाना चाहिए जिनको संबोधित किया जा रहा है।
क़ुरआन की एक बड़ी विशेषता यह है कि उसके शब्द उसी रूप में हैं जिस रूप में पैग़म्बर पर नाज़िल हुए थे। गुज़रते समय के साथ उसमें कोई बदलाव और हेरफेर नहीं किया गया।
कोई भी यह दलील नहीं दे सका कि बुद्धि के लेहाज़ से क़यामत का आना असंभव है। तो हमें इस विषय में शंका और संदेह के आधार पर लोगों के बहकने और भटकने का रास्ता नहीं खोलना चाहिए।
अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 8 और 9 की तिलावत सुनते हैं,
وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ لَجَعَلَهُمْ أُمَّةً وَاحِدَةً وَلَكِنْ يُدْخِلُ مَنْ يَشَاءُ فِي رَحْمَتِهِ وَالظَّالِمُونَ مَا لَهُمْ مِنْ وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ (8) أَمِ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِهِ أَوْلِيَاءَ فَاللَّهُ هُوَ الْوَلِيُّ وَهُوَ يُحْيِي الْمَوْتَى وَهُوَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ (9)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और अगर ख़ुदा चाहता तो इन सबको एक ही उम्मत बना देता मगर वह तो जिसको चाहता है (हिदायत करके) अपनी रहमत में दाख़िल कर लेता है और ज़ालिमों का तो (उस दिन) न कोई दोस्त है और न मददगार। [42:8] क्या उन लोगों ने ख़ुदा के सिवा (दूसरे) कारसाज़ बनाए हैं तो कारसाज़ बस ख़ुदा ही है और वही मुर्दों को ज़िन्दा करेगा और वही हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है। [42:9]
पिछली आयत के आख़िर में अल्लाह ने कहा कि क़यामत में लोग दो समूहों में होंगे। एक समूह जन्नत में और दूसरा जहन्नम में जाएगा। अब यह आयत कहती है कि दुनिया में भी यही स्थिति है। सारे लोग एक जैसे नहीं हैं। एक समूह भले कर्मों और अच्छी भावनाओं वाले लोगों का है और एक समूह बुरी भावनाओं और बुरे कर्म वाले लोगों का है।
अब यह सवाल पैदा होता है कि अल्लाह ने यह क्यों नहीं किया कि सबको दुनिया में अच्छी सोच और अच्छे कर्म का मालिक बना देता ताकि क़यामत में सब जन्नत में जाते।
यह आयत कहती है कि अगर अल्लाह चाहता कि सबको पैग़म्बर की हिदायत स्वीकार करने पर मजबूर करे तो उन्हें मजबूर कर सकता था कि वे सब ईमान लाएं और अच्छे काम करें। लेकिन मजबूरी में ईमान लाने का कोई महत्व नहीं है। अल्लाह की परम्परा यह है कि इंसान अपनी इच्छा और इरादे से अपना रास्ता चुने और उसी के आधार पर अमल करे। क्योंकि इंसान की परिपूर्णता इसी पर निर्भर है।
बेशक यह बहुत बड़ी नेमत है जो अल्लाह ने इंसान को दी है और इसी रास्ते पर चलकर उसकी परिपूर्णता की मंज़िल मिलती है। अतः इंसानों के बीच यह मतभेद उनके इरादे और अख़तियार की वजह से है। दूसरे शब्दों में अल्लाह के इस मतभेद और अनेकता का महत्व मजबूरी की समरूपता से ज़्यादा है। क्योंकि इस अनेकता की बुनियाद इरादा है और उस समरूपता की बुनियाद मजबूरी। ज़ाहिर है कि अख़्तियार का महत्व मजबूरी से ज़्यादा है।
चूंकि अल्लाह तत्वदर्शी और न्यायी है इसलिए हर किसी के साथ उसके चयन के अनुसार पेश आएगा। जिसने अपने इरादे से सत्य का रास्ता चुना है उस पर अल्लाह की रहमत नाज़िल होगी और जिसने अपने इरादे से दूसरों पर ज़ुल्म किया है उसने दर हक़ीक़त दुनिया और आख़ेर में ख़ुद को अल्लाह की कृपा से वंचित कर लिया है।
जो भी अल्लाह के अलावा किसी को अपना अभिभावक मान बैठा है और इंसान के बनाए हुए त्रुटिपूर्ण नियमों को अपने जीवन का नियम बना लिया है उसने ख़ुद को अल्लाह की सरपरस्ती से वंचित कर लिया है। इस तरह का इंसान दुनिया और आख़ेरत में बे सरपरस्त होगा। आयतें आगे चलकर अल्लाह के अलावा हर किसी की सरपरस्ती को नकारती हैं और तअज्जुब के साथ सवाल करती हैं कि क्या अल्लाह के अलावा किसी और को उन्होंने अपना सरपरस्त बना लिया है? जबकि अस्ली सरपरस्त तो केवल अल्लाह है।
सरपरस्त होने की पहली शर्त शक्ति और अस्ली क़ुदरत है जो केवल अल्लाह के पास है। इसलिए वही सरपरस्त बन सकता है। वही मुर्दों को जीवन देता है और हर काम करने की शक्ति रखता है। तो अगर इंसान अपना सरपरस्त चुनना चाहते हैं तो अल्लाह को चुनें जिसकी सरपरस्ती व्यापक और नितांत है। दूसरों की नहीं।
इन आयतों से हमने सीखाः
इंसान का अख़तियार और चुनने का अधिकार अल्लाह की निश्चित परम्पराओं का हिस्सा है कोई भी इंसान से यह अधिकार नहीं ले सकता।
काफ़िर और मुशरिक अल्लाह के दीन और उसके पैग़म्बरों पर ज़ुल्म करते हैं तो यह दरअस्ल वे ख़ुद पर ज़ुल्म करते हैं क्योंकि ख़ुद को अल्लाह की सरपरस्ती से महरूम कर लेते हैं।
सरपरस्ती के योग्य वही है जो सारे काम करने की शक्ति रखता हो और इंसानों की ज़िंदगी और मौत उसके हाथ में हो, वह नहीं जिसके पास अपनी ही ज़िंदगी और मौत का अख़तियार नहीं है।
अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 10 की तिलावत सुनते हैं,
وَمَا اخْتَلَفْتُمْ فِيهِ مِنْ شَيْءٍ فَحُكْمُهُ إِلَى اللَّهِ ذَلِكُمُ اللَّهُ رَبِّي عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَإِلَيْهِ أُنِيبُ (10)
इस आयत का अनुवाद हैः
और तुम लोग जिस चीज़ में आपस में एख़्तेलाफ़ात रखते हो उसका फ़ैसला ख़ुदा ही के हवाले है वही ख़ुदा तो मेरा परवरदिगार है मैं उसी पर भरोसा रखता हूँ और उसी की बारगाह का रुख़ करता हूँ। [42:10]
पिछली आयतों के ही क्रम में जिनमें अल्लाह की सरपरस्ती के विषय पर बात हुई अब यह आयत अल्लाह की सरपरस्ती का एक पहलू बयान करते हुए कहती है कि जिसने अल्लाह की सरपरस्ती में रहना क़ुबूल कर लिया है उसे चाहिए कि हर चीज़ में यहां तक कि मतभेद वाली बातों में भी अल्लाह का फ़ैसला माने और उसी की मदद ले। अपनी मनमानी और जान पहचान वालों की मर्ज़ी से काम न करे। खेद की बात है कि हम में अधिकतर लोग सत्य और हक़ पर ध्यान देने के बजाए अपनी इच्छा के पीछे भागते हैं। इसलिए जब समाज में किसी विषय के बारे में अलग अलग विचार पैदा हो जाते हैं तो जो विचार हमारी पसंद, हमारे हितों और हमारी इच्छा से मेल खाता है उसी को हम स्वीकार करते हैं। जबकि ईमान की निशानी यह है कि वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, क़ानूनी अधिक विषयों में इसी तरह विवाद वाली बातों में हमें अल्लाह के ज्ञान की मदद लेनी चाहिए। बल्कि यूं कहा जाए कि हर चीज़ का आदेश हमें क़ुरआन और पैग़म्बर की सुन्नत में तलाश करना चाहिए और पैग़म्बर के परिजनों की शिक्षाओं में खोजना चाहिए। वहां हमें जो आदेश मिले उसी को स्वीकार करना चाहिए चाहे वह हमारी इच्छा से मेल न भी खाता हो।
ज़ाहिर सी बात है कि अल्लाह के आदेश पर अडिग रहने की क़ीमत भी चुकानी पड़ती है और मुमकिन है कि समाज या परिवार उसे स्वीकार न करे। तो इस स्थिति में हमें अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए और कठिनाइयों को सहन करना चाहिए जो दीन की पाबंदी की वजह से उठानी पड़ती हैं। अल्लाह से मदद मांगनी चाहिए कि इस रास्ते पर हमें मज़बूती से क़ायम रहने की तौफ़ीक़ दे।
इस आयत से हमने सीखाः
दीन आस्था और नैतिकता की बातें पेश करने के साथ ही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और परवारिक मामलों में हमारी ज़रूरतें भी पूरी करता है तो सारे मामलों में हमें दीन की शिक्षाओं पर ध्यान देना चाहिए।
कमज़ोर आधार वाली ताक़तों का सहारा लेने के बजाए अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए और कठिनाइयों के समय उसी से मदद मांगनी चाहिए।