Dec ०३, २०२४ १५:५९ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-906

सूरए शूरा ,आयतें 11-14

आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 11 और 12 की तिलावत सुनते हैं,

فَاطِرُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ جَعَلَ لَكُمْ مِنْ أَنْفُسِكُمْ أَزْوَاجًا وَمِنَ الْأَنْعَامِ أَزْوَاجًا يَذْرَؤُكُمْ فِيهِ لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ وَهُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ (11) لَهُ مَقَالِيدُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَشَاءُ وَيَقْدِرُ إِنَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ (12)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

सारे आसमान व ज़मीन का पैदा करने वाला (वही) है उसी ने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिन्स के जोड़े बनाए और चारपायों के जोड़े भी (उसी ने बनाए) उस (तरफ़) में तुमको फैलाता रहता है कोई चीज़ उसके जैसी नहीं और वह हर चीज़ को सुनता देखता है। [42:11] सारे आसमान व ज़मीन की कुन्जियाँ उसके पास हैं जिसके लिए चाहता है रोज़ी को बढ़ा देता है और (जिसके लिए चाहता है) तंग कर देता है बेशक वह हर चीज़ से ख़ूब अवगत है।[42:12]

पिछले कार्यक्रम में इस बारे में बात हुई कि अल्लाह ही वास्तव में इंसानों का सरपरस्त है लेकिन कुछ लोग अल्लाह को अपना सरपरस्त मानने के लिए तैयार नहीं हैं और उसके आदेशों और नियमों का पालन नहीं करते। यह आयतें कहती हैं कि उसी ने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया और उन पर स्थापित व्यवस्था उसी के द्वारा चलती है।

अल्लाह के हाथों व्यवस्था के संचालन की एक निशानी यह है कि उसने इंसानों के लिए उन्हीं जैसी हक़ीक़त का जोड़ा पैदा किया। जिससे एक तरफ़ उनके मन और आत्मा को सुकून मिलता है और और दूसरी तरफ़ इसी के नतीजे में उनका अस्तित्व और उनकी नस्ल जारी रहती है। अल्लाह ने जोड़े की व्यवस्था इंसानों के साथ ही मवेशियों में भी रखी और दूसरी रचनाओं में भी इसे लागू किया है।

क्या आपको दुनिया में कहीं कोई ऐसा नज़र आता है कि जिसके पास इस तरह का ज्ञान और शक्ति हो? उसके समान तो दुनिया की कोई भी चीज़ नहीं है और वह कायनात की चीज़ों में पायी जाने वाली हर तरह की कमी और त्रुटि से पाक है।

बदक़िस्मती से कुछ लोग यह मानते हैं कि अगर कोई ख़ुदा है तो उसने केवल चीज़ों और लोगों की रचना का काम कर दिया और उसके बाद सारे मामलों की ज़िम्मेदारी इंसानों के सिपुर्द कर दी और अब इस कायनात के संचालन में उसकी कोई भूमिका नहीं है। क़ुरआन ने इस ग़लत नज़रिए को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया है और कहा है कि वो पैदा करने वाला भी है और कायनात के मामलों का संचालन भी वही करता है, वो सुनने और देखने वाला है। वो लोगों के कथनों और नज़र को देखता है, आसमानों और ज़मीन के ख़ज़ाने और चाभियां उसके हाथ में हैं। हर चीज़ की रोज़ी का अख़तियार उसी के पास है। वो जिसकी रोज़ी में चाहता है बरकत पैदा कर देता है और जिसकी रोज़ी चाहता है तंग और सीमित कर देता है। यह सब कुछ उसके ज्ञान और हिकमत के अनुसार होता है।

इन आयतों से हमने सीखाः

इंसानों की नस्ल का बाक़ी रहना शादी पर निर्भर है, अलबत्ता शादी महिला और पुरुष के बीच होनी चाहिए, समान लिंग के बीच नहीं जो इस समय कुछ समाजों में प्रचलित हो रही है।

 

अल्लाह का कोई समतुल्य नहीं है और इंसानों की तरह उसे जीवनसाथी की ज़रूरत नहीं है।

 

अल्लाह ने चीज़ों और लोगों को पैदा करके छोड़ नहीं दिया है बल्कि हमेशा उन पर नज़र रखता है और उनके मामलों को संभालता है।

रोज़ी का कम या ज़्यादा होना अल्लाह के हाथ में है यह उसकी मुहब्बत या नाराज़गी की निशानी नहीं है। हो सकता है कि कोई काफ़िर बड़ा दौलतमंद हो और मोमिन ग़रीब हो या उसके उलट हो जाए।

 

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 13 की तिलावत सुनते हैं,

شَرَعَ لَكُمْ مِنَ الدِّينِ مَا وَصَّى بِهِ نُوحًا وَالَّذِي أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ وَمَا وَصَّيْنَا بِهِ إِبْرَاهِيمَ وَمُوسَى وَعِيسَى أَنْ أَقِيمُوا الدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُوا فِيهِ كَبُرَ عَلَى الْمُشْرِكِينَ مَا تَدْعُوهُمْ إِلَيْهِ اللَّهُ يَجْتَبِي إِلَيْهِ مَنْ يَشَاءُ وَيَهْدِي إِلَيْهِ مَنْ يُنِيبُ (13)

इस आयत का अनुवाद हैः

उसने तुम्हारे लिए दीन का वही रास्ता मुक़र्रर किया जिस (पर चलने का) नूह को हुक्म दिया था और (ऐ रसूल) उसी की हमने तुम्हारे पास वहि भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया था (वह ये है) कि दीन को क़ायम रखना और उसमें तफ़रक़ा न डालना जिस दीन की तरफ़ तुम मुशरेकीन को बुलाते हो वह उन को बहुत तकलीफ़देह लगता है ख़ुदा जिसको चाहता है अपनी बारगाह का चुनिंदा बना लेता है और जो उसकी तरफ़ जाए उसे अपनी तरफ़ (पहुँचने) का रास्ता दिखा देता है। [42:13]

यह आयत कहती है कि पैग़म्बरों का पैग़ाम और मिशन एक ही रहा है। पैग़म्बरे इस्लाम का आगमन पूरे इतिहास के पिछले पैग़म्बरों के मिशन को ही आगे ले जाने का एक इंतेज़ाम है अतः एकेश्वरवाद का संदेश और उपदेश कोई नई चीज़ नहीं है। पैग़म्बर लोगों को जिस रास्ते पर बुलाते हैं वह वही रास्ता है जिस पर चलने की दावत अतीत के पैग़म्बरों ने अपने ज़माने के लोगों को दी।

वे सब यह पैग़ाम देने के लिए आए कि अल्लाह के दीन को क़ायम करो, उसके आदेशों और फ़रमान पर अमल करो, अपनी मनपसंद चीज़ों से जो इच्छाओं के प्रवाह में पैदा होती हैं दूर रहो और अल्लाह के फ़रमान के सामने सिर झुकाओ।

इस आयत में एक दीन की बात कही गई है। इससे पता चलता है कि अलग अलग दौर में पैग़म्बर जो अल्लाह का दीन लेकर आए वह सब दीन एक ही है। मगर इसके बावजूद इंसानी समाज के उत्थान और परिपूर्णता के चरण तक पहुंचने के लिए ज़रूरी है कि हर दौर में इंसानों की परिपूर्णता की स्थिति और प्रक्रिया के अनुसार शरीयत आए और लगातार बुलंदी की ओर बढ़ती जाए। यहां तक कि आख़िरकार अपनी संपूर्णता के चरण को छू ले। इस्लाम धर्म अल्लाह का आख़िरी धर्म है जो सबसे संपूर्ण धर्म है और जिसके पास सबसे मुकम्मल और समग्र शरीयत है।

अधिकतर धर्मों को जिस मुसीबत का सामना हुआ वह सांप्रदायिकता है जो दीन के बारे में कुछ लोगों की ग़लत समझ का नतीजा होती है या फिर दीन के मामलों में निजी पसंद और सामूहिक स्वार्थ को आधार बनाकर काम करने से पैदा होती है। इसीलिए क़ुरआन ने दीन के मानने वालों को सचेत किया है कि धर्म के मामले में फूट की मुसीबत से बचें।

इस आयत में इस बिंदु का भी ज़िक्र किया गया है कि एकेश्रवरवाद की दावत अनेकेश्वरवादियों के लिए बड़ी असहनीय होती है क्योंकि उनके वजूद में ग़लत आस्था और शिर्क इस तरह गहराई तक उतर चुका होता है कि उन्हें एकेश्वरवाद की दावत से चिंता होने लगती है।

आयत में आगे बहुत महत्वपूर्ण बिंदु पर ज़ोर दिया गया है कि पैग़म्बरों का चयन इंसानों के हाथों नहीं होता बल्कि अल्लाह अपने ज्ञान के आधार पर जिसे योग्य समझता है पैग़म्बर बनाता है और इंसानों की हिदायत की ज़िम्मेदारी सौंपता है। ज़ाहिर है कि जो भी अल्लाह की तरफ़ उन्मुख होता है उसके अंदर अल्लाह की लुत्फ़ व करम प्राप्त करने की योग्यता पैदा होती है और वह अल्लाह का हियादत के नूर का लाभ उठाता है।

इस आयत से हमने सीखाः

सारे पैग़म्बरों के मिशन का आधार और केन्द्र एक ही रहा है, अल्लाह के दीन को क़ायम करना और हर प्रकार की फूट से परहेज़।

हज़रत नूह व्यापक और सर्वव्यापी शरीयत वाले पहले पैग़म्बर और हज़रत मुहम्मद सर्वव्यापी शरीयत वाले आख़िरी पैग़म्बर हैं। चूंकि इस्लाम अल्लाह का आख़िरी दीन है और उसमें पिछले सारे धर्मों की शिक्षाएं शामिल हैं इसलिए वह सबसे मुकम्मल और समग्र धर्म व शरीयत है।

इख़्तेलाफ़ और फूट धर्म के लिए मुसीबत है इससे समाज में धार्मिक शिक्षाओं को लागू करने में रुकावटें आती हैं।

पैग़म्बरों का चयन अल्लाह के ज़रिए हुआ है और उसने सबसे पाक और योग्य इंसानों को इस ज़िम्मेदारी के लिए चुना है।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 14 की तिलावत सुनते हैं:

وَمَا تَفَرَّقُوا إِلَّا مِنْ بَعْدِ مَا جَاءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًا بَيْنَهُمْ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَبِّكَ إِلَى أَجَلٍ مُسَمًّى لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ وَإِنَّ الَّذِينَ أُورِثُوا الْكِتَابَ مِنْ بَعْدِهِمْ لَفِي شَكٍّ مِنْهُ مُرِيبٍ (14)

इस आयत का अनुवाद हैः

और ये लोग मुतफ़र्रिक़ हुए भी तो इल्म (हक़) आ चुकने के बाद और (वह भी) महज़ आपस की ज़िद से और अगर तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से एक मुक़र्रर वक़्त तक के लिए (क़यामत का) वादा न हो चुका होता तो उनमें कब का फ़ैसला हो चुका होता और जो लोग उनके बाद (ख़ुदा की) किताब के वारिस हुए वो उसकी तरफ़ से बहुत सख़्त संदेह में (पड़े हुए) हैं। [42:14]

पिछली आयत में हमने पढ़ा कि सारे पैग़म्बरों ने लोगों को आपसी फूट से होशियार रहने की दावत दी क्योंकि सारे धर्मों के उसूल एक हैं और यह बात समझ से परे है कि एक ही समय में कई दीन और शरीयतें लोगों के बीच मौजूद रहें।

जब किसी दौर में कोई पैग़म्बर आ गया तो उस दौर के लोगों की ज़िम्मेदारी है कि उसके पैग़ाम को सुनें और मानें, यह न कहें कि हम तो पिछले पैग़म्बर के दीन पर बाक़ी हैं और नए धर्म को चुनने वाले काफ़िर हैं।

जब लोगों को नए पैग़म्बर की सत्यता का पता चल जाए तो उसके बाद इस तरह की बातें द्वेष और ज़िद का ही नतीजा हो सकती हैं। इस ग़लत नज़रिए का यह नतीजा निकला कि हमारे ज़माने में कुछ धर्मों जैसे ईसाइयत और यहूदियत के मानने वाले इस्लाम को स्वीकार करने पर तैयार नहीं हुए जो बाद में आने वाला संपूर्ण और मुकम्मल दीन है। खेद तो इस पर है कि पिछले धर्मों के कुछ ज़िम्मेदार अलग अलग तरीक़ों से इस्लाम और क़ुरआन की सत्यता पर सवाल उठाने लगे ताकि अवाम उसी पिछले धर्म पर बाक़ी रहें। संदेह पैदा करके वे लोगों को इस्लाम की तरफ़ जाने और इस सच्चे धर्म को अपनाने से रोकते थे।

आयत में आगे कहा गया है कि अगर अल्लाह की तरफ़ से तुम्हें कोई फ़रमान न दिया गया होता कि काफ़िर तो एक निर्धारित समय तक ही जीवित और आज़ाद हैं, तो अल्लाह उनके बीच अभी फ़ैसला और उनका हिसाब कर देता, उन्हें मिटा देता और सत्य के मानने वालों को फ़तह दिला देता।

आयत आख़िर में आसमानी किताब के उन वारिसों की तरफ़ इशारा करती है जो सत्य और हक़ के बारे में भी शक में पड़े हुए हैं और ईमान नहीं लाते। चूंकि उनके शक की वजह उनकी ज़िद है इसलिए वो हक़ीक़त समझ नहीं पाते।

इस आयत से हमने सीखाः

अल्लाह का दीन एक ही है और लोगों के बीच फूट की वजह जलन, द्वेष और दुश्मनी जैसे कारक होते हैं।

ज्ञानियों और धर्म के जानकारों की ज़िम्मदारी है कि धर्मों के अनुयाइयों को एकजुट करने के लिए कोशिश करें, ख़ुद विवाद खड़े करने में न लग जाएं।

गुनहगारों को मोहलत देना अल्लाह की परम्परा है।

शक और संदेह अगर स्वाभाविक हो तो इंसान अध्ययन और शोध से उसे दूर कर लेता है लेकिन अगर शक ज़िद और अड़ियलपन की वजह से हो तो यह ज़िद उसे सत्य और हक़ को स्वीकार करने से रोकती है।