Dec ०३, २०२४ १६:०९ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-907

सूरए शूरा, आयतें 15-18

आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 15 और 16 की तिलावत सुनते हैं:

فَلِذَلِكَ فَادْعُ وَاسْتَقِمْ كَمَا أُمِرْتَ وَلَا تَتَّبِعْ أَهْوَاءَهُمْ وَقُلْ آَمَنْتُ بِمَا أَنْزَلَ اللَّهُ مِنْ كِتَابٍ وَأُمِرْتُ لِأَعْدِلَ بَيْنَكُمُ اللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ لَنَا أَعْمَالُنَا وَلَكُمْ أَعْمَالُكُمْ لَا حُجَّةَ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ اللَّهُ يَجْمَعُ بَيْنَنَا وَإِلَيْهِ الْمَصِيرُ (15) وَالَّذِينَ يُحَاجُّونَ فِي اللَّهِ مِنْ بَعْدِ مَا اسْتُجِيبَ لَهُ حُجَّتُهُمْ دَاحِضَةٌ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ وَلَهُمْ عَذَابٌ شَدِيدٌ (16)

इन आयतों का अनुवाद हैः

तो (ऐ रसूल) तुम (लोगों को) उसी (दीन) की तरफ़ बुलाते रहे तो जैसा तुमको हुक्म हुआ है (उसी पर क़ायम रहो और उनकी ख़्वाहिशों की पैरवी न करो और साफ़ साफ़ कह दो कि जो भी किताब ख़ुदा ने नाज़िल की है उस पर मैं ईमान रखता हूँ और मुझे हुक्म हुआ है कि मैं तुम्हारे विवादों का इन्साफ़ (से फ़ैसला) करूँ ख़ुदा ही हमारा भी परवरदिगार है और वही तुम्हारा भी परवरदिगार है। हमारी कारगुज़ारियाँ हमारे ही लिए हैं और तुम्हारी कारस्तानियाँ तुम्हारे वास्ते। हममें और तुममें तो कुछ हुज्जत (व तकरार की ज़रूरत) नहीं ख़ुदा ही (क़यामत में) हम सबको इकट्ठा करेगा। [42:15] और उसी की तरफ़ लौट कर जाना है और जो लोग उसके मान लिए जाने के बाद ख़ुदा के बारे में (ख़्वाह मख़्वाह) झगड़ा करते हैं उनके परवरदिगार के नज़दीक उनकी दलील निरर्थक और बातिल है और उन पर (ख़ुदा का) ग़ज़ब और उनके लिए सख्त अज़ाब है। [42:16]

पिछले कार्यक्रम में इस बारे में बात हुई कि बुनियाद और असलियत के हिसाब से अल्लाह के सारे दीन एक ही हैं। यह आयतें पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती हैं कि सारे लोगों को चाहे वे बहुईश्वरवादी हों या आसमानी किताबों को मानने वाले हों, उस दीन की तरफ़ बुलाओ जो तुम पर वहि के ज़रिए उतारा गया है। क्योंकि यह अल्लाह की आख़िरी शरीयत है। जिस चीज़ की तुम पर वहि की गई है उसे बिल्कुल उसी रूप में लोगों तक पहुंचा दो। इस राह में दृढ़ता और सहनशीलता के साथ डटे रहो और लोगों को ख़ुश करने के लिए अपने कर्तव्य पर अमल करने में कोताही न करो। हर समूह कोशिश कर रहा है कि तुम्हें अपने हितों और स्वार्थों की ओर झुका ले लेकिन तुम उनकी इच्छाओं और चाहतों के ग़ुलाम न बनो सबको अपने परवरदिगार के दीन पर एकत्रित करो।

यहूदियों और ईसाइयों से कह दो कि अल्लाह की तरफ़ से जो भी किताब उतारी गई मैं उस पर ईमान रखता हूं। मैं तुम्हारी किताबों और पैग़म्बरों को मानता हूं और मेरी रेसालत उसी मिशन की अगली कड़ी है। दर हक़ीक़त मेरा दीन पुराने धर्मों का ही समग्र और मुकम्मल रूप है।

जिस तरह अतीत में पैग़म्बरों को ज़िम्मेदारी दी गई थी कि समाज में इंसाफ़ क़ायम करें और ख़ुद भी इंसाफ़ से काम करें उसी तरह मेरी भी ज़िम्मेदारी है कि तुम्हारे बीच इंसाफ़ करूं।

मेरा और तुम्हारा परवरदिगार एक ही है। मैंने अपनी सत्यता के तर्क और सुबूत तुम्हारे सामने पेश कर दिए। हमारा अपना अपना अमल हमारे साथ है। हमें और तुम्हें अपने अपने अमल के बारे में जवाब देना है। तो तुम पर हुज्जत तमाम हो गई। अब बहस करने और झगड़ने की ज़रूरत नहीं है। हमारे और तुम्हारे बीच कोई निजी झगड़ा नहीं है। अल्लाह हमें और तुम्हें क़यामत के दिन एकत्रित करेगा और उस दिन हम सब का फ़ैसला करने वाला एक ही होगा। अब देखना है कि उस दिन जब हम और तुम अल्लाह की अदालत में पेश होंगे तो अल्लाह क्या फ़ैसला करता है?

आयत आगे कहती है कि खेद की बात है कि लोग बहस करने और झगड़ने पर उतारू हो जाते हैं और इस्लाम धर्म को कमज़ोर करने लगते हैं। क्योंकि वे देख रहे हैं कि कुछ लोग इस धर्म को स्वीकार कर चुके हैं और बहुत सारे लोग भविष्य में इसे स्वीकार कर लेंगे।

वे अनेकेश्वरवादी जो सत्य के स्पष्ट हो जाने के बाद ज़िद में अपनी ग़लत आस्थाओं पर अड़े हुए हैं और अल्लाह के बारे में बेवजह बहस करते हैं वे तर्क को स्वीकार करने वाले लोग नहीं हैं। वे इस्लाम स्वीकार न करने की एसी वजहें बयान करतें हैं जो अल्लाह के निकट ग़लत और निराधार हैं। उनके इस काम से अल्लाह उन पर नाराज़ होता है और उन्हें सख़्त अज़ाब में डालेगा।

इन आयतों से हमने सीखाः

दूसरों को ख़ुश करने के लिए अपने धार्मिक निर्देशों के पालन में कोताही नहीं करनी चाहिए बल्कि दृढ़ता के साथ उस पर अमल करना चाहिए।

आस्था पर मज़बूती से जमे रहना अच्छी बात है मगर तब जब वह सत्य और सही हो वरना आंख बंद करके ग़लत आस्था पर डट जाना उचित नहीं है।

समाज में इंसाफ़ क़ायम करना अल्लाह के सारे धर्मों का लक्ष्य है। यह ज़ाहिर है कि शासन की स्थापना के बग़ैर समाज में न्याय की स्थापना संभव नहीं है।

बहस और तकरार तब तक सही और तार्किक है जब तक वह सत्य को सामने लाने पर केन्द्रित हो। जब सत्य स्पष्ट हो जाए तो फिर बहस और तकरार बंद कर देना चाहिए और सामने वाले को उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 17 और 18 की तिलावत सुनते हैं:

اللَّهُ الَّذِي أَنْزَلَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ وَالْمِيزَانَ وَمَا يُدْرِيكَ لَعَلَّ السَّاعَةَ قَرِيبٌ (17) يَسْتَعْجِلُ بِهَا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِهَا وَالَّذِينَ آَمَنُوا مُشْفِقُونَ مِنْهَا وَيَعْلَمُونَ أَنَّهَا الْحَقُّ أَلَا إِنَّ الَّذِينَ يُمَارُونَ فِي السَّاعَةِ لَفِي ضَلَالٍ بَعِيدٍ (18)

इन आयतों का अनुवाद हैः

ख़ुदा ही तो है जिसने सच्चाई के साथ किताब नाज़िल की और न्याय (व इन्साफ़ भी नाज़िल किया) और तुमको क्या मालूम शायद क़यामत क़रीब ही हो। [42:17] (फिर ये ग़फ़लत कैसी) जो लोग इस पर ईमान नहीं रखते वो तो इसके लिए जल्दी कर रहे हैं और जो मोमिन हैं वो उससे डरते हैं और जानते हैं कि क़यामत यक़ीनी और बर हक़ है आगाह रहो कि जो लोग क़यामत के बारे में शक किया करते हैं वो परले दर्जे की गुमराही में हैं। [42:18]

पिछली दोनों आयतों के ही क्रम में जिनमें पैग़म्बर ने अनेकेश्वरवादियों और आसमानी किताब पर अक़ीदा रखने वालों के सामने अपने दीन का परिचय करवाया, अब यह आयतें कहती हैं कि जिस अल्लाह पर हम ईमान रखते हैं, वो एसा ख़ुदा है जिसने लोगों की हिदायत के लिए आसमानी किताब भेजी है और हक़ व बातिल को पहचानने का पैमाना उसमें बयान कर दिया है।

यह इसलिए है कि इंसान अपनी मर्ज़ी और इच्छा के अनुसार हक़ और बातिल की परिभाषा पेश न करें और फिर उसी आधार पर काम न करने लगें।

अल्लाह हक़ है और उससे हासिल होने वाली हर चीज़ हक़ है। अल्लाह के कथन और अमल में बातिल और असत्य की गुंजाइश ही नहीं है। इसी तरह प्रकृति की पूरी व्यवस्था जिसे अल्लाह ने पैदा किया है हक़ और इंसाफ़ पर केन्द्रित है। शरीयत भी जो वहि के रूप में पैग़म्बर पर नाज़िल होकर लोगों तक पहुंची है वह भी हक़ और हक़ीक़त पर केन्द्रित है और इंसानों के लिए उन तथ्यों को बयान करती है जिन्हें इंसान अपनी इंद्रियों से देख और समझ नहीं पाता।

एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसका इंसान की ज़िंदगी में बड़ा महत्वपूर्ण रोल है और क़ुरआन ने भी जिसे खुलकर बयान किया है क़यामत का विषय है। क़यामत में हक़ इंसाफ़ और तराज़ू या पैमाना बिल्कुल स्पष्ट रहेगा। इसीलिए क़ुरआन इंसानों को क़यामत की तरफ़ उन्मुख कराता है और उन्हें इस दिन की सख़्तियों और ख़तरो के बारे में ख़बरदार करता है। क़ुरआन कहता है कि तुम्हें क्या मालूम, हो सकता है कि क़यामत नज़दीक हो। लेकिन अफ़सोस के कुछ लोग जो क़यामत पर ईमान नहीं रखते कोई ठोस दलील और तर्क दिए बग़ैर क़यामत के अक़ीदे का मज़ाक़ उड़ाते थे और इंसान करते हुए पैग़म्बरों से कहते थे कि अगर तुम सही कहते हो तो इस क़यामत को जल्दी बुला लो ताकि तुम जन्नत में दाख़िल हो जाओ और हम जहन्नम में चले जाएं।

क़यामत का अक़ीदा और अल्लाह की अदालत  में पेश होने का यक़ीन ईमान वालों पर गहरा असर रखता है। वो क़यामत के डर से हमेशा अपने अमल का ख़याल रखते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि क़यामत आने वाली है। उनकी नजर में यह दुनिया एक अलग कायनात की भूमिका है और अगर वो कायनात न होती तो इस दुनिया का अस्तित्व निरर्थक होता।

ज़ाहिर है कि क़यामत कब आएगी यह किसी को नहीं मामूल है। यहां तक कि पैग़म्बरों को भी उसका सही समय नहीं पता है। मगर उसके आने के समय के बारे में जानकारी न होने का यह मतलब नहीं है कि हम यह मान लें कि क़यामत नहीं आएगी। जानकारी न होने के नतीजे में इंसान यह सोचता है कि वह कभी भी आ सकती है इसलिए ग़लत कामों से दूर रहता है। लेकिन जो लोग क़यामत को स्वीकार करने पर तैयार नहीं हैं वो हर दिन कोई न कोई संदेह पैदा करके दूसरों को विचलित करते हैं। यह लोग दूसरों से ज़्यादा ख़ुद को नुक़सान पहुंचा रहे हैं। क़ुरआन के अनुसार जिन लोगों ने क़यामत के बारे में कोई संदेह किया और उसके बारे में निरर्थक बहस करते हैं वो गहरी गुमराही में हैं।

इन आयतों से हमने सीखाः

क़ुरआन सत्य और असत्य की पहचान का पैमाना है क्योंकि यह अल्लाह की तरफ़ से आया है और असत्य के लिए उसमें कोई गुंजाइश ही नहीं है।

किसी भी इंसान को क़यामत का सटीक समय पता नहीं है जब लोगों के अमल का हिसाब लिया जाएगा। यह कभी भी आ सकती है। तो हमें अपनी काल्पनिक इच्छाओं के जाल में नहीं फंसना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि क़यामत नज़दीक हो।

ईमान की एक निशानी ज़बान और अमल की गहरी निगरानी रखना है। क्योंकि मोमिन इंसान को हमेशा यह फ़िक्र रहती है कि उसे अपने अमल का हिसाब क़यामत के दिन देना है।

विरोधियों का एक कार्यक्रम ईमान वालों में संदेह पैदा करना है और इसके लिए वो संदेह पैदा करने वाले सवाल उठाते हैं।