क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-908
सूरए शूरा, आयतें 19-23
आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 19 और 20 की तिलावत सुनते हैं:
اللَّهُ لَطِيفٌ بِعِبَادِهِ يَرْزُقُ مَنْ يَشَاءُ وَهُوَ الْقَوِيُّ الْعَزِيزُ (19) مَنْ كَانَ يُرِيدُ حَرْثَ الْآَخِرَةِ نَزِدْ لَهُ فِي حَرْثِهِ وَمَنْ كَانَ يُرِيدُ حَرْثَ الدُّنْيَا نُؤْتِهِ مِنْهَا وَمَا لَهُ فِي الْآَخِرَةِ مِنْ نَصِيبٍ (20)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और ख़ुदा अपने बन्दों पर बड़ा मेहरबान है जिसको (जितनी) चाहता है रोज़ी देता है वह शक्तिशाली और अजेय है। [42:19] जो व्यक्ति आख़ेरत की खेती का तालिब हो हम उसके लिए उसकी खेती में वृद्धि करेंगे और दुनिया की खेती का चाहने वाला हो तो हम उसको उसी में से देंगे मगर आख़ेरत में फिर उसका कुछ हिस्सा न होगा। [42:20]
पिछले कार्यक्रम में क़यामत का इंकार करने वालों पर अल्लाह के अज़ाब के बारे में बात हुई। अब यह आयतें कहती हैं कि अल्लाह अपने सारे बंदों पर मेहरबान है, सबको रोज़ी देता है, यहां तक कि उनको भी जो काफ़िर हैं और उस पर ईमान नहीं रखते। अलबत्ता अल्लाह की रोज़ी उसके असीम ज्ञान के तहत निर्धारित की जाती है। वह दुनिया और आख़ेरत में उन नियमों और उसूलों के तहत काम करता है जो उसने निर्धारित कर दिए हैं।
यह ख़ुदाई क़ानून है कि जो भी आख़ेरत के लिए काम करता है उसे दुनिया में भी उसका फ़ायदा मिलता है और आख़ेरत में भी उसे अल्लाह के करम की छाया नसीब होगी। मगर जो क़यामत को नहीं मानता और उसके लिए सब कुछ यही दुनिया की ज़िंदगी है, वो इस सीमित दुनिया की सीमित ज़िंदगी में अपने सारे लक्ष्य तो हासिल कर नहीं पाता और आख़ेरत में भी ख़ाली हाथ रह जाएगा।
क़ुरआन बड़ी सुंदर उपमा का प्रयोग करते हुए दुनिया के इंसानों को किसानों के समान बताता है जिनमें एक समूह आख़ेरत के लिए खेती करता है और दूसरा समूह दुनिया के लिए। जो आख़ेरत की खेती का तलबगार है अल्लाह उसे बरकत अता करता है और उसकी फ़सल में वृद्धि कर देता है, लेकिन जो केवल दुनिया के लिए खेती करता है और उसकी सारी कोशिश इस मिट जाने वाली और अस्थायी पूंजी तक सीमित होती है उसे अपनी चाहत का थोड़ा हिस्सा ही मिल पाता है जबकि आख़ेरत में वो बिल्कुल ख़ाली हाथ होगा और कोई फ़ायदा हासिल नहीं कर पाएगा।
तो यह कहा जा सकता है यह दुनिया हमारी खेती है और हमारे कर्म इस खेती में बोए जाने वाले बीज। ज़ाहिर है कि बीज अलग अलग तरह के होते हैं। कुछ से बड़ी अच्छी फ़सल तैयार होती है और कुछ बीज इस तरह के होते हैं कि उनसे अच्छी फ़सल नहीं मिलती बल्कि बहुत कम होती है और उसका फल कड़वा और बदमज़ा होता है।
इन आयतों से हमने सीखाः
अल्लाह का करम सारे बंदों पर होता है। मोमिन और काफ़िर दोनों को अल्लाह की नेमतों का फ़ायदा मिलता है।
हमें ख़ुद चयन करना है। आख़ेरत की चाहत रखने वालों को दुनिया में भी फ़ायदा मिलता है अलबत्ता मुमकिन है कि उन्हें मिलने वाला फ़ायदा कम और सीमित हो। मगर जो केवल दुनिया की चाहत रखते हैं उन्हें आख़ेरत में कुछ भी मिलने वाला नहीं है।
नीयत और लक्ष्य अहम है। काम का ज़ाहिरी रूप नहीं। क्योंकि कुछ काम हैं जो ज़ाहिर में तो एक समान हैं लेकिन उनके लक्ष्य अलग अलग हैं। अलबत्ता अगर नीयत इलाही होगी तो काम में बरकत होगी।
अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 21 और 22 की तिलावत सुनते हैं,
أَمْ لَهُمْ شُرَكَاءُ شَرَعُوا لَهُمْ مِنَ الدِّينِ مَا لَمْ يَأْذَنْ بِهِ اللَّهُ وَلَوْلَا كَلِمَةُ الْفَصْلِ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ وَإِنَّ الظَّالِمِينَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ (21) تَرَى الظَّالِمِينَ مُشْفِقِينَ مِمَّا كَسَبُوا وَهُوَ وَاقِعٌ بِهِمْ وَالَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فِي رَوْضَاتِ الْجَنَّاتِ لَهُمْ مَا يَشَاءُونَ عِنْدَ رَبِّهِمْ ذَلِكَ هُوَ الْفَضْلُ الْكَبِيرُ (22)
इन आयतों का अनुवाद हैः
क्या उन मुशरिकों के (बनाए हुए) ऐसे ख़ुदा हैं जिन्होंने उनके लिए ऐसा दीन मुक़र्रर किया है जिसकी ख़ुदा ने इजाज़त नहीं दी और अगर फ़ैसले (के दिन) का वादा न होता तो उनका यक़ीनन अब तक फ़ैसला हो चुका होता और ज़ालिमों के वास्ते ज़रूर दर्दनाक अज़ाब है। [42:21] (क़यामत के दिन) देखोगे कि ज़ालिम लोग अपने अमल (के वबाल) से डर रहे होंगे और वह उन पर पड़ कर रहेगा और जिन्होने ईमान क़ुबूल किया और अच्छे काम किए वह जन्नत के बाग़ों में होंगे वह जो कुछ चाहेंगे उनके लिए उनके परवरदिगार की बारगाह में (मौजूद) होगा, यही तो (ख़ुदा का) बड़ा करम है। [42:22]
यह आयतें मुशरिकों की तरफ़ इशारा करते हुए कहती हैं कि क्या अल्लाह के अलावा भी कोई उनका पूज्य है जिसने उनके लिए किताब और शरीयत भेजी हो और वो उसके दीन की पैरवी करते हों? हालांकि क़ानून बनाना तो केवल उस ख़ुदा का काम है जिसने सबको पैदा किया है और जो संसार का चलाने वाला है, उसके अलावा किसी को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं है।
आज की दुनिया में राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर तरह की क़ानून साज़ी अगर अल्लाह के क़ानूनों के ख़िलाफ़ हो तो वह ग़लत और ख़त्म हो जाने वाली होगी। बल्कि सच तो यह है कि इस तरह के क़ानून इंसानियत पर अत्याचार के समान हैं। क्योंकि यह क़ानून इंसान को अल्लाह के अनुसरण से बाहर निकाल कर उन लोगों के हाथ में दे देते हैं जो इंसानियत की वास्तविक भलाई से आगाह नहीं हैं और वो भौतिक हितों के मामले में अपने स्वार्थों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
अलबत्ता अल्लाह ने दुनिया में इंसानों को मोहलत दी है कि वो अपनी मर्ज़ी से अपना रास्ता चुनें। अब जो इंसान जो अमल करेगा आख़ेरत में उसका नतीजा उसके सामने आएगा। इंसानों का कुफ़्र और ज़ुल्म उन्हें जहन्नम में ले जाएगा। लेकिन ईमान और नेक अमल की मदद से इंसान जन्नत से सबसे सुंदर बाग़ों में सबसे ऊंचे आध्यात्मक स्थान पर पहुंच सकता है।
बेशक मोमिनों पर अल्लाह का करम यहीं तक सीमित नहीं है। उन पर अल्लाह की नेमतों की इस तरह बारिश होगी कि वो जो भी चाहेंगे उनके लिए मुहैया करा दिया जाएगा। उनको मिलने वाला प्रतिफल हर दृष्टि से असीम होगा। अलबत्ता सबसे बड़ा प्रतिफल तो अल्लाह का सामिप्य है जो उन्हें हासिल होगा।
इन आयतों से हमने सीखाः
इंसान की ज़िंदगी के लिए क़ानून और शरीयत की ज़रूरत है और इस क़ानून को अल्लाह के अलावा कोई नहीं बना सकता। किसी और से क़ानून लिया गया तो यह इंसानों पर ज़ुल्म है।
दीन के नाम पर किसी भी तरह की ख़ुराफ़ात एक तरह का शिर्क और ज़ुल्म है।
अल्लाह के अज़ाब का डर इस बात का सबब बनना चाहिए कि इस दुनिया में इंसान बुरे कामों से बचे वरना क़यामत में इस डर का कोई फ़ायदा नहीं होगा।
दीन के आदेशों पर अमल का तक़ाज़ा यह है कि कुछ सीमितताओं और वंचितताओं को सहन किया जाए। बेशक इन सीमितताओं पर सब्र का फल आख़ेरत में मिलेगा। जन्नत में मोमिन बंदे जो चाहेंगे उन्हें मिलेगा।
अब सूरए शूरा की आयत संख्या 23 की तिलावत सुनते हैं,
ذَلِكَ الَّذِي يُبَشِّرُ اللَّهُ عِبَادَهُ الَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ قُلْ لَا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَى وَمَنْ يَقْتَرِفْ حَسَنَةً نَزِدْ لَهُ فِيهَا حُسْنًا إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ شَكُورٌ (23)
इस आयत का अनुवाद हैः
यही (इनाम) है जिसकी ख़ुदा अपने उन बन्दों को ख़ुशख़बरी देता है जो ईमान लाए और नेक काम करते रहे (ऐ रसूल) तुम कह दो कि मैं इस (तबलीग़े रिसालत) का अपने क़रीबी लोगों (अहले बैत) की मोहब्बत के सिवा तुमसे कोई बदला नहीं मांगता और जो व्यक्ति नेकी हासिल करेगा हम उसके लिए उसकी ख़ूबी में इज़ाफा कर देंगे बेशक वह बड़ा बख़्शने वाला क़द्रदान है। [42:23]
यह आयत पहले इस बिंदु पर ज़ोर देती है कि अगर मोमिन बंदे दुनिया में अपने ईमान की हिफ़ाज़त की वजह से कुछ कठिनाइयां सहन करते हैं तो अल्लाह उन्हें इसका इनाम देगा और बड़े इनामों के साथ उन्हें जन्नत प्रदान करने की ख़ुशख़बरी दे रहा है।
इसके आगे आयत रसूले ख़ुदा को यह ज़िम्मेदारी देती है कि वे मोमिन बंदों के बीच एलान कर दें कि पिछले पैग़म्बरों की तरह मैं भी रेसालत की ज़िम्मेदारी अदा करने का तुमसे कोई बदला नहीं चाहता बस यह चाहता हूं कि मेरे क़रीबी परिजनों अहलेबैत से मुहब्बत करो। मैंने जो कुछ अंजाम दिया है वो ऐसी ज़िम्मेदारी थी जो अल्लाह ने मेरे कांधों पर रखी थी। मेरे बाद तुम्हारे मार्गदर्शन का इंतेज़ाम यह है कि मेरे क़रीबी परिजनों या अहलेबैत से मुहब्बत करो। उन्हें हक़ और बातिल की शिनाख़्त के लिए अपने जीवन का आदर्श बनाओ उनकी बातों पर अमल करो।
दूसरी आयतों में रसूल का यह क़ौल है कि मैने रेसालत के दायित्व के बदले अगर कुछ चाहा है तो वो तुम्हारे फ़ायदे में है। यह वह चीज़ है जो तुम्हें अल्लाह के रास्ते पर ले जाएगा।
आयत में आगे ताकीद की गई है कि ईमान रखने वाले नेक अमल करने की फ़िक्र में रहें और उनके कामों की बरकत दूसरों तक पहुंचे ताकि अल्लाह उन पर अपना करम करे, उनकी नेकियों में इज़ाफ़ा करे और उनकी ग़लतियों को क्षमा करे।
इस आयत से हमने सीखाः
पैग़म्बरों को कोई भौतिक प्रतिफल नहीं चाहिए लेकिन अल्लाह के आदेशों का पालन और पैग़म्बरों के योग्य उत्तराधिकारियों का अनुसरण वह चीज़ है जिसकी वह लोगों से मांग करते हैं। यह भी दरअस्ल इंसानों को फ़ायदा ही पहुंचाने की एक विधि है।
ईमान तब मुकम्मल होता है जब इंसान पैग़म्बर के अहलेबैत से मुहब्बत करे। अलबत्ता इस मुहब्बत को संपूर्ण बनाने के लिए दो चीज़ें ज़रूरी होती हैं। एक अहलेबैत की शिनाख़्त क्योंकि जब तक इंसान किसी को पहचानता न हो उससे सही इश्क़ नहीं कर सकता और दूसरी चीज़ है उनका अनुसरण।
अल्लाह की रहमत व मग़फ़ेरत अल्लाह के बंदों से अच्छा बर्ताव करने और नेक कामों पर निर्भर है।