Dec ०३, २०२४ १६:१६ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-909

सूरए शूरा, आयतें 24-28

आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 24 की तिलावत सुनते हैं:

أَمْ يَقُولُونَ افْتَرَى عَلَى اللَّهِ كَذِبًا فَإِنْ يَشَأِ اللَّهُ يَخْتِمْ عَلَى قَلْبِكَ وَيَمْحُ اللَّهُ الْبَاطِلَ وَيُحِقُّ الْحَقَّ بِكَلِمَاتِهِ إِنَّهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ (24)

इस आयत का अनुवाद हैः

क्या ये लोग (तुम्हारे बारे में कहते हैं कि इस (रसूल) ने ख़ुदा पर झूठा बोहतान बाँधा है तो अगर (ऐसा) होता तो ख़ुदा चाहता तो तुम्हारे दिल पर मोहर लगा देता (कि तुम बात ही न कर सकते) और ख़ुदा तो झूठ को नीस्त-व-नाबूद और अपनी बातों से हक़ को साबित करता है वह यक़ीनन दिलों के राज़ से ख़ूब वाक़िफ है।[42:24]

पिछले कार्यक्रम में हमने पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से मुहब्बत को रसूले ख़ुदा के संघर्ष और मिशन के आध्यात्मिक पारितोषिक क़रार दिए जाने के बारे में बात की। यह आयत कहती है कि बेशक कुछ मुनाफ़िक़ इंसान पैग़म्बरे इस्लाम पर तोहमत लगाते थे कि पैग़म्बर जो कुछ कर रहे हैं वो अल्लाह की तरफ़ से नहीं ख़ुद पैग़म्बर की तरफ़ से है, इसी तरह वो जो कुछ क़ुरआन, वहि और अहले बैत से मुहब्बत के बारे में कहते हैं वो अल्लाह की कही हुई बातें नहीं हैं। इन लोगों के जवाब में अल्लाह कहता है कि अगर पैग़म्बर एसा करते तो अल्लाह उनके दिल पर मुहर लगा देता और इस बात की अनुमति ही न देता कि जो अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल नहीं हुआ है उसको वो अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुआ बताएं। क्योंकि अगर अल्लाह इस पर रोक न लगाए तो लोगों की गुमराही का रास्ता खुलेगा और यह अल्लाह की हिकमत और नियम के ख़िलाफ़ है जो इंसानों की हिदायत पर ज़ोर देता है। सूरए हाक़्क़ा की आयत संख्या 44 से 46 तक कहा गया है कि अगर पैग़म्बर कही हुई कुछ ही बातों को झूठे तौर पर हमसे जोड़ते तो हम ताक़त से उसे जकड़ लेते और उनके दिल की रग काट देते।

आयत में आगे जाकर इस बिंदु पर ज़ोर दिया गया है कि अल्लाह असत्य और बातिल को मिटा देता है, अपमानित करता है और इस बात की अनुमति नहीं देता कि असत्य, वहि के दायरे में कहीं जगह बना सके। अल्लाह जो बातें नाज़िल करता है उनके माध्यम से हक़ को स्थापित कर देता है।

इस आयत से हमने सीखाः

मोमिन इंसान उन सारी चीज़ों को क़ुबूल करता और उन पर यक़ीन करता है जो पैग़म्बर अल्लाह की तरफ़ से ले आए। यह नहीं कि जो उसे अच्छा लगे स्वीकार कर ले और जिसे पसंद न करे उसका इंकार कर दे और उससे बेरुख़ी का बर्ताव करे।

अल्लाह किसी के भी मामले में ढिलाई नहीं बरतता। अगर पैग़म्बर से भी ग़लती हो जाए और वो किसी झूठी बात को अल्लाह से जोड़ना चाहें तो उन्हें अपमानित कर देगा और झूठ को बेनक़ाब कर देगा और उन्हें वहि से वंचित कर देगा।

 

असत्य को मिटा कर सत्य का बोलबाला करवाना अल्लाह का पक्का वादा है। यह वादा अल्लाह ने ईमान वालों से किया है।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 25 और 26 की तिलावत सुनते हैं,

وَهُوَ الَّذِي يَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهِ وَيَعْفُو عَنِ السَّيِّئَاتِ وَيَعْلَمُ مَا تَفْعَلُونَ (25) وَيَسْتَجِيبُ الَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَيَزِيدُهُمْ مِنْ فَضْلِهِ وَالْكَافِرُونَ لَهُمْ عَذَابٌ شَدِيدٌ (26)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और वही तो है जो अपने बन्दों की तौबा क़ुबूल करता है और गुनाहों को माफ़ करता है और तुम लोग जो कुछ भी करते हो वह जानता है।[42:25] और जो लोग ईमान लाए और अच्छे अच्छे काम करते रहे उनकी (दुआ) क़ुबूल करता है अपने फज़्ल व क़रम से उनको बढ़ा कर देता है अलबत्ता काफिरों के लिए सख़्त अज़ाब है।[42:26]

इंसान पर अल्लाह का एक बड़ा करम यह है कि उसने अपने गुनहगार बंदों के लिए वापसी का रास्ता हमेशा खुला रखा है, उनके तौबा करने की राह में कोई रुकावट नहीं है। हम इंसानों का यह दस्तूर है कि अगर कोई हमसे ज़्यादती करे और माफ़ी मांगे तो अगर यही बार बार होने लगे तो फिर हम उसे माफ़ नहीं करते, उसके माफ़ी मांगने का भी असर नहीं होता। मगर अल्लाह ने कहा है कि जब भी मेरा बंदा ग़लत काम करने के बाद अपने किए पर पछताने लगे और सही रास्ते की तरफ़ लौटना चाहे तो उसके लिए तौबा का रास्ता खुला हुआ है और अल्लाह उनकी ग़लतियों को माफ़ करता है। यह तब है कि जब अल्लाह को हर ज़ाहिर व पोशीदा बात की जानकारी है कोई भी चीज़ उसके ज्ञान के दायरे से बाहर नहीं है।

गुनाहें माफ़ करने के अलावा भी बंदों पर उसका इतना करम है कि उनकी इच्छाएं पूरी करता है। जो लोग ईमान वाले हैं और सुकर्मी हैं उनकी मांगों को स्वीकार कर लेता है और उन्हें वो चीज़ें भी अता कर देता है जो उनकी सोच से भी परे थीं यह अल्लाह का अपार करम और लुत्फ़ है मोमिन बंदो के साथ।

इन आयतों से हमने सीखाः

इस्लाम में कोई भी मुश्किल ऐसी नहीं जिसका हल न हो। वापसी का रास्ता हमेशा खुला हुआ है। जो भी तौबा करना चाहे उसके लिए तौबा का मौक़ा रहता है।

अल्लाह ने गुनहगारों से वादा किया है कि अगर वो तौबा करते हैं तो उनकी तौबा क़ुबूल करेगा। इस तरह उसने गुनहगारों को वापसी और तौबा के लिए प्रोत्साहित किया है।

दुआ क़ुबूल होने की शर्त अल्लाह पर ईमान और भले कर्म हैं।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 27 और 28 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَوْ بَسَطَ اللَّهُ الرِّزْقَ لِعِبَادِهِ لَبَغَوْا فِي الْأَرْضِ وَلَكِنْ يُنَزِّلُ بِقَدَرٍ مَا يَشَاءُ إِنَّهُ بِعِبَادِهِ خَبِيرٌ بَصِيرٌ (27) وَهُوَ الَّذِي يُنَزِّلُ الْغَيْثَ مِنْ بَعْدِ مَا قَنَطُوا وَيَنْشُرُ رَحْمَتَهُ وَهُوَ الْوَلِيُّ الْحَمِيدُ (28)

 

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और अगर ख़ुदा अपने बन्दों की रोज़ी में विस्तार कर दे तो वे लोग ज़रूर ज़मीन पर सरकशी करने लगें मगर वह तो मुनासिब मेक़दार में जिसकी रोज़ी (जितनी) चाहता है नाज़िल करता है। वह बेशक अपने बन्दों से आगाह है (और उनको) देखता है।[42:27] और वही तो है जो लोगों के नाउम्मीद हो जाने के बाद पानी बरसाता है और अपनी रहमत (बारिश की बरकतों) को फैला देता है और वही कारसाज़ (और) हम्द व प्रशंसा के लायक़ है।[42:28]

यह आयतें अल्लाह की उस हिकमत और तत्वज्ञान की ओर इशारा करती हैं जो दुनिया की हर चीज़ में लागू है। आयतें कहती हैं कि सृष्टि की पूरी व्यवस्था इस तरह है कि सब कुछ हर चीज़ और हर इंसान की क्षमता को मद्देनज़र रखते हुए पैदा किया गया है और अल्लाह हर चीज़ और हर इंसान को इससे अधिक क्षमताएं और संसाधन दे सकता था लेकिन एसा करना अल्लाह की हिकमत से मेल न खाता। क्योंकि एसी स्थिति में लोग सरक़शी पर उतर आते और सामाजिक सिस्टम टूट जाता।

सारे इंसान अल्लाह से ज़्यादा रोज़ी की दुआ करते हैं और इन दुआओं को पूरा करना अल्लाह के अख़तियार में है लेकिन अल्लाह की हिकमत और उसका ज्ञान इन दुआओं के पूरा होने की अनुमति नहीं देता।

रोज़ी का बटवारा बड़े सटीक मूल्यांकन के आधार पर होता है जो बंदों के बारे में अल्लाह के पास है क्येंकि उसे अपने बंदों का संपूर्ण ज्ञान है। वो हर व्यक्ति की क्षमता को जानता है। इसीलिए क्षमता और हित को ध्यान में रखकर वो रोज़ी का बटवारा करता है।

एतिहासिक अनुभव साबित करते हैं कि जिन इंसानों को बहुत अधिक रोज़ी और सुविधाएं मिल जाती हैं आम तौर पर वो अल्लाह को भूलकर ज़ुल्म और सरकशी में लग जाते हैं। क्योंकि इंसान की भूख ख़त्म नहीं होती और वो दौलत की किसी भी मात्रा पर संतुष्ट नहीं होता। उसकी इच्छा होती है कि जो कुछ भी दूसरों के पास हो उसे मिल जाए चाहे इसके लिए ज़ुल्म ही क्यों न करना पड़े। यही वजह है कि अल्लाह जितनी उचित समझता है अपने बंदे को उतनी रोज़ी देता है।

हम इंसानों की ज़िम्मेदारी यह है कि रोज़ी हासिल करने के लिए कोशिश करें और एक सामान्य हद तक जीवन की सुविधाओं को बढ़ाना भी उचित है। मगर इसके साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सृष्टि की व्यवस्था और अल्लाह की हिकमत हमारी इच्छाओं की पाबंद नहीं है। हमें उतनी ही रोज़ी मिलती है जितनी रोज़ी मिलने से सृष्टि की व्यवस्था में गड़बड़ी न पैदा हो।

अलबत्ता कभी रोज़ी में कमी ख़ुद इंसान की अपनी सुस्ती का नतीजा होती है। क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि अल्लाह का इरादा सीमित रोज़ी देने का ही है। बल्कि ख़ुद इंसान के अपने कर्मों का नतीजा भी उसे भुगतना पड़ता है। अगर हम मेहनत न करें और रोज़ी की उम्मीद में बैठे रहें तो हमें कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि अल्लाह ने बेकार बैठे इंसान को रोज़ी देने का वादा नहीं किया है।

इस बात का एक खुला सुबूत कि इंसानों की रोज़ी अल्लाह के हाथ में है बारिश का बरसना है जिसमें इंसान की कोई भूमिका नहीं होती। बारिश अल्लाह के ज्ञान और शक्ति का प्रतीक है। अगर बारिश न हो तो सूखा पड़ जाएगा और बारिश हो तो बस्तियां आबाद होती हैं और नेमतें बढ़ती हैं। अल्लाह बारिश के माध्यम से अपनी रहमत व बरकत का दायरा विस्तृत करता है। बारिश के माध्यम से मुर्दा ज़मीनें जीवित हो जाती हैं। हरियाली उगती है और इंसानों और जीवों को पीने का पानी मिलता है। यह इस बात की निशानी है कि अल्लाह अपने बंदों की एक बड़े परिवार की तरह परवरिश करता है तो उनका दायित्व है कि अल्लाह का शुक्र अदा करें।

इन आयतों से हमने सीखाः

बंदों की दुआ का क़ुबूल होना इस पर निर्भर है कि अल्लाह की हिकमत क्या है। क्योंकि कभी कुछ इच्छाओं के पूरा हो जाने के नतीजे में सरकशी उत्पन्न हो जाती है।

सृष्टि की व्यवस्था, ख़ास हिसाब किताब और मूल्यांकन पर आधारित है। हर चीज़ का अपनी जगह हिसाब किताब है।

बारिश अल्लाह की नेमत का नमूना है।

मुश्किलों और मायूसी के समय इंसान का सहारा अल्लाह है।