क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-911
सूरए शूरा, आयतें 36-39
आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 36 की तिलावत सुनते हैं:
فَمَا أُوتِيتُمْ مِنْ شَيْءٍ فَمَتَاعُ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَمَا عِنْدَ اللَّهِ خَيْرٌ وَأَبْقَى لِلَّذِينَ آَمَنُوا وَعَلَى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ (36)
इस आयत का अनुवाद हैः
(लोगों) तुमको जो कुछ (माल) दिया गया है वह दुनिया की ज़िन्दगी का (चन्द रोज़ का) साज़ोसामान है और जो कुछ ख़ुदा के यहाँ है वह कहीं बेहतर और टिकाऊ है (मगर ये) ख़ास उन ही लोगों के लिए है जो ईमान लाए और अपने परवरदिगार पर भरोसा रखते हैं।[42:36]
पिछले कार्यक्रमों में ज़मीन और समुद्र में अल्लाह की नेमतों की बात हुई। अब यह आयत कहती है कि अल्लाह ने जो कुछ अपने बंदो को दुनिया में दिया है वो सब सामयिक और मिट जाने वाली नेमतें हैं, यह कल्पना नहीं करनी चाहिए कि यह सब कुछ हमेशा उनके पास रहेगा। मगर परलोक की नेमतें और पूंजी हमेशा रहने वाली है। जिसे ईमान वाले भले और नेक काम करके हासिल करते हैं। तो अगर कोई सामयिक और मिट जाने वाली दुनिया की नेमतों के बदले में स्थायी और हमेशा रहने वाली नेमतें हासिल करता है तो यह बड़े मुनाफ़े का सौदा होगा।
दुनिया के नेमतें सारे इंसानों को मिली हैं। इसमें अल्लाह ने मोमिन और काफ़िर के बीच कोई अंतर नहीं रखा है। लेकिन आख़ेरत की नेमते मोमिनों और पाकीज़ा लोगों के लिए विशेष होंगी जिन्होंने दुनिया की नेमतों को अपनी आख़ेरत संवारने के लिए इस्तेमाल किया। ज़ाहिर है कि मोमिन इंसान दीन के उसूलों और नियमों की पाबंदी करने की वजह से बहुत से ग़लत कामों से ख़ुद को दूर रखता है और कुछ वंचितताएं सहन करता है तो आख़ेरत में अल्लाह इसकी भरपाई करते हुए उसे भारी इनाम देगा और हमेशा रहने वाली नेमतों से उसे नवाज़ेगा।
लालची और कंजूस लोग तो दुनिया में ही डूब जाते हैं और उसी से प्यार करते हैं जबकि ईमान वाले लोग अल्लाह पर भरोसा रखते हैं और धन जमा करने के बजाए अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं। वे अपनी दौलत और दुनिया के संसाधनों पर भरोसा करने के बजाए जो उनकी नज़र में सामयिक हैं अल्लाह की रहमत और ताक़त पर भरोसा रखते हैं जो हमेशा उनके साथ है।
इस आयत से हमने सीखाः
मोमिन इंसान दुनिया के संसाधनों को इस्तेमाल करता है लेकिन उसका लक्ष्य आख़ेरत है और इसी सोच के साथ वक़्ती नेमतों को स्थायी नेमतों में बदल लेता है।
मोमिन दुनिया में जिन चीज़ों से ख़ुद को अल्लाह की ख़ातिर वंचित रखता है अल्लाह क़यामत में उनसे बेहतर बदला मोमिन को देगा। क़यामत का दिन अल्लाह पर भरोसा रखने वाले मोमिन बंदों का दिन है।
अपनी दौलत पर भरोसा करने के बजाए अल्लाह पर भरोसा करना ईमान वालों की पहचान है। तवक्कुल मोमिनों का स्थायी तरीक़ा है।
अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 37 की तिलावत सुनते हैं,
وَالَّذِينَ يَجْتَنِبُونَ كَبَائِرَ الْإِثْمِ وَالْفَوَاحِشَ وَإِذَا مَا غَضِبُوا هُمْ يَغْفِرُونَ (37)
इस आयत का अनुवाद हैः
और जो लोग बड़े बड़े गुनाहों और बुरे कर्मों से बचे रहते हैं और ग़ुस्सा आ जाता है तो माफ़ कर देते हैं।[42:37]
पिछली आयत में ईमान वालों की पहचान बताई गई अब इसी क्रम में यह आयत उनके दो नैतिक गुणों का ज़िक्र करते हुए कहती है कि क़यामत में उन लोगों को अल्लाह की तरफ़ से इनाम मिलेगा जो बुरे कामों से दूर रहते हैं और अपनी रूह को बुराइयों से पाक साफ़ रखते हैं। क्योंकि नापाकी के साथ ईमान मेल नहीं खाता।
मोमिन बंदों को अपने पर कंट्रोल रहता है। जब ग़ुस्सा आ जाता है जो इंसान का बहुत संकटमय क्षण होता है तो यह लोग अपने हाथ और ज़बान पर कंट्रोल रखते हैं और ज़बान से कोई बुरी और ग़लत बात नहीं कहते। ग़ुस्सा तो एक आग की तरह है जो इंसानों के भीतर भड़क उठता है। बहुत से लोग ग़ुस्सा आ जाने पर आपा खो बैठते हैं। अलबत्ता ग़ुस्सा और आक्रोश एक स्वाभाविक स्थिति है जो किसी भी इंसान को पेश आ सकती है लेकिन अहम होता है कि इस हालत में इंसान अपने ग़ुस्से को नियंत्रित किस तरह करता है।
ईमान इंसान के भीतर रहम और बख़शिश की भावना मज़बूत कर सकता है ताकि वो दूसरों के साथ सहनशीलता क्षमाशीलता से पेश आए। मोमिन इंसान ग़ुस्सा आ जाने पर ख़द पर क़ाबू रखता है और कोई बुरा काम नहीं करता। वो अपने ग़ुस्से को पी जाता है। वो क्षमाशीलता का परिचय देते हुए अपने दिल को द्वेष से पाक कर लेता है और गुनहगारों को माफ़ कर देता है। रवायतों में भी आया है कि अपने दोस्त को ग़ुस्से के समय पहचानो कि वो अपने आप पर कांट्रोल कर पाता है या नहीं।
इस आयत से हमने सीखाः
ईमान केवल दिल तक सीमित रहने वाली चीज़ नहीं है बल्कि उसका असर इंसान के अमल और बर्ताव में नज़र आना चाहिए। गुनाहों से दूरी और ग़ुस्सा तथा यौन इच्छा पर कंट्रोल ईमान की निशानियों में है।
मोमिन इंसान अपने मन की इच्छाओं पर कंट्रोल रखता है यह इच्छाएं उस पर क़ाबू नहीं कर पातीं।
दूसरों को क्षमा कर देना ईमान की शर्तों में से एक है। जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता वो अस्ली मोमिन नहीं हो सकता है।
अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 38 और 39 की तिलावत सुनते हैं,
وَالَّذِينَ اسْتَجَابُوا لِرَبِّهِمْ وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَأَمْرُهُمْ شُورَى بَيْنَهُمْ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنْفِقُونَ (38) وَالَّذِينَ إِذَا أَصَابَهُمُ الْبَغْيُ هُمْ يَنْتَصِرُونَ (39)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और जो अपने परवरदिगार का हुक्म मानते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं और उनके कुल काम आपस के मशवरे से होते हैं और जो कुछ हमने उन्हें अता किया है उसमें से (राहे ख़ुदा में) ख़र्च करते हैं।[42:38] और (वह ऐसे हैं) कि जब उन पर किसी क़िस्म की ज्यादती की जाती है तो (घुटने नहीं टेकते बल्कि ज़ालिमों के ख़िलाफ़) मदद जमा करते हैं। [42:39]
पिछली आयतों में की गई बहस को आगे बढ़ाते हुए यह आयतें भी ईमान वालों की निशानियां बयान करते हुए कहती हैं कि वे लोग सत्य के मार्ग पर चलने की परवरदिगार की दावत को स्वीकार करते हैं और अपने पूरे वजूद से अल्लाह के आदेश के समक्ष समर्पित हैं और केवल उसी की इबादत करते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं। इसके अलावा ज़रूरतमंदों की ख़बर लेते हैं और अपने धन का कुछ हिस्सा उन पर ख़र्च करते हैं।
पारिवारिक और सामाजिक मामलों में भी दूसरों के परामर्श का सम्मान करते हैं और अपने काम दूसरों के मशविरों से अंजाम देते हैं। इस्लाम के आरंभिक दौर के इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि रसूले ख़ुदा और उनके सहाबी इस उसूल के पाबंद थे। पैग़म्बरे इस्लाम भी जो वहि जैसे अज़ीम सिलसिले से जुड़े हुए थे सामाजिक मामलों में लोगों से मशविरा करते थे और अगर अधिकतर लोग किसी बारे में राय देते थे तो उनके विचार का सम्मान करते थे चाहे वह विचार उनकी अपनी इच्छा के विपरीत हो। जैसे ओहद की जंग में हुआ। रसूले ख़ुदा ने मुशरिकों से जंग की शैली के बारे में लोगों की राय पर अमल किया। हालांकि आख़िर में इस जंग में मुसलमानों को नुक़सान हुआ और पैग़म्बरे इस्लाम के 70 से अधिक लोग शहीद हो गए।
अलबत्ता ज़ाहिर है कि यह सलाह मशविरा पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक मामलों और समाज संचालन वग़ैर के बारे में है, इलाही हुक्म और नियमों के बारे में नहीं। क़ुरआन की आयतों में भी है कि ईमान वाले अपने कामों में मशविरा करते हैं मगर उन आदेशों के बारे में नहीं जिन्हें अल्लाह पहले ही निर्धारित कर चुका है।
रोचक बात यह है कि ईमान वालों की विशेषताओं में मशविरे की विशेषता इतनी महत्वपूर्ण है कि इस सूरे का नाम ही सूरए शूरा यानी मशिवरा रखा दिया गया।
इन आयतों में ईमान वालों की एक और विशेषता ज़ुल्म और ज़ालिम के सामने प्रतिरोध करना और डट जाना बतायी गई है। मोमिन इंसान जुल्म से डरता नहीं बल्कि उसके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए दूसरों से मदद जमा करता है ताकि ज़ालिम से नजात हासिल की जा सके। दूसरी आयतों में है कि ईमान वाले न ज़ुल्म करते हैं और न ज़ुल्म सहते हैं।
इन आयतों से हमने सीखाः
इस्लाम बहुत संपूर्ण और समग्र दीन है जो इंसान के जीवन के अलग अलग पहलुओं जैसे आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, इबादती और सियासी पहलुओं पर नज़र रखता है। इन आयतों में इसके नमूनों का ज़िक्र किया गया है।
ईमान का दावा अमल से साबित होना चाहिए। मोमिन इंसान को व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों जीवन में सही व्यवहार और स्वभाव का मालिक होना चाहिए। यह सही नहीं कि केवल नमाज़ रोज़ा करे और सामाजिक विषयों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दे।
अपनी मनमानी करना ईमान से मेल नहीं खाता। इसलिए मोमिन इंसान दूसरों के विचारों का सम्मान करता है।
ज़ुल्म सहन करना और ज़ुल्म पर ख़ामोश रहना अल्लाह पर ईमान से मेल नहीं खाता। यानी मोमिन इंसान ज़ालिम के मुक़ाबले में खड़ा हो जाता है और अपने अधिकार के लिए लड़ता है।