Dec ०३, २०२४ १६:२५ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-912

सूरए शूरा, आयतें 40-43

आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 40 की तिलावत सुनते हैं:

وَجَزَاءُ سَيِّئَةٍ سَيِّئَةٌ مِثْلُهَا فَمَنْ عَفَا وَأَصْلَحَ فَأَجْرُهُ عَلَى اللَّهِ إِنَّهُ لَا يُحِبُّ الظَّالِمِينَ (40)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

और बुराई का बदला तो वैसी ही बुराई है उस पर भी जो शख़्स माफ़ कर दे और (मामले का) सुधार कर ले तो इसका सवाब अल्लाह के ज़िम्मे है। बेशक वो ज़ुल्म करने वालों को पसन्द नहीं करता।[42:40]

 

पिछले कार्यक्रम की आख़िरी आयत में दूसरों के हक़ पर हमला करने वालों का मुक़ाबला करने के बारे में बात की गई। यानी मोमिन इंसान ज़ुल्म पर ख़ामोश नहीं रहता और ज़रूरत पड़ने पर दूसरों से मदद लेता है ताकि ज़ालिम पर अंकुश लगाए।

अब यह आयत कहती है कि अलबत्ता बुरे को दंडित करते समय सीमा से नहीं बढ़ना चाहिए। बल्कि उसके ज़ुल्म के अनुसार और इंसाफ़ को ध्यान में रखते हुए सज़ा देनी चाहिए। सूरए बक़रह की आयत 194 भी इसी पर ज़ोर देती है कि ग़लती के अनुसार ही सज़ा दी जानी चाहिए। आयत आगे कहती है कि अलबत्ता अगर ज़ालिम अपने किए पर शर्मिंदा हो जाए और माफ़ी मांगे तो उसे माफ़ कर दीजिए और उस से सुलह कर लीजिए कि अल्लाह इस चीज़ को ज़्यादा पसंद करता है। और इस क्षमाशीलता की वजह से तुम्हे इनाम देगा। बेशक अल्लाह का यह आदेश ज़ालिम का बचाव करने के अर्थ में नहीं है। बल्कि समाज के लोगों के बीच से नफ़रत और द्वेष की भावना ख़त्म करने और उनके बीच शांति का माहौल स्थापित करने के उद्देश्य से है।

इस आयत से हमने सीखाः

जिसने किसी पर ज़ुल्म किया उसको सज़ा देने का अधिकार मज़लूम को है। वो न्याय को ध्यान में रखते हुए उसे सज़ा दे सकता है या फिर उसे माफ़ कर सकता है। अलबत्ता अगर उसने माफ़ न किया तो सज़ा उस ज़ुल्म के अनुसार और उसी अनुपात में होनी चाहिए। इसमें न्याय की सीमा को नहीं लांघना चाहिए।

दीन की सिफ़ारिश है कि ग़लती करने वाले को माफ़ कर दिया जाए जबकि उसे दंडित करना आपके बस में हो। जो माफ़ कर देता है अल्लाह उसे बहुत बड़ा बदला देता है।

क़ानून का प्रभुत्व स्थापित करने के साथ साथ लोगों को नैतिकता, मेल मुहब्बत और प्यार से रहने की दावत देनी चाहिए। क़ुरआन ने बदला लेने के साथ ही माफ़ी पर भी ज़ोर दिया है।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 41 और 42 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَمَنِ انْتَصَرَ بَعْدَ ظُلْمِهِ فَأُولَئِكَ مَا عَلَيْهِمْ مِنْ سَبِيلٍ (41) إِنَّمَا السَّبِيلُ عَلَى الَّذِينَ يَظْلِمُونَ النَّاسَ وَيَبْغُونَ فِي الْأَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ أُولَئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ (42)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और जिस पर ज़ुल्म हुआ हो अगर वह उसके बाद इन्तेक़ाम ले तो ऐसे लोगों पर कोई मलामत नहीं।[42:41]  मलामत तो बस उन्हीं लोगों पर होगी जो लोगों पर ज़ुल्म करते हैं और ज़मीन में ना-हक़ ज़्यादतियाँ करते फिरते हैं उन्हीं लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।[42:42] 

पिछली आयत के विषय को आगे बढ़ाते हुए जो ज़ालिम को सज़ा देने या माफ़ कर देने के बारे में थी, यह आयत इस बात पर ज़ोर देती है कि माफ़ी मज़लूम की तरफ़ से हो और वो अपनी इच्छा और इरादे से माफ़ करे, दूसरे उसे माफ़ करने पर मजबूर न करें। इसलिए कि स्वाभाविक रूप से उसे यह अधिकार है कि अपना हक़ लेने के लिए ज़ालिम से इंतेक़ाम ले यहां तक कि अगर उसके पास अकेले इसकी ताक़त न हो तो दूसरों की मदद से इंतेक़ाम ले।

तो अगर मज़लूम अपना इंतेक़ाम ले रहा है तो इस पर उसकी मलामत नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि उसने कोई ग़लती नहीं की है। बुराई और मलामत तो उन लोगों की की जानी चाहिए जिन्होंने दूसरों का हक़ मारा है और दूसरों पर ज़ुल्म करते हैं। वही लोगे जो ख़ुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने के कारण उद्दंडता और सरकशी करते हैं क़ानून तोड़ते हैं। दुनिया में यह लोग मलामत और निंदा के क़ाबिल हैं और क़यामत के लिए जहन्नम के अज़ाब के हक़दार हैं।

इन आयतों से हमने सीखाः

मज़लूम को हक़ है कि दूसरों से मदद ले और समाज भी उसकी मदद करे ताकि वो अपना हक़ हासिल कर सके।

दूसरों के हक़ पर हमला करना चाहे किसी की तरफ़ से भी हो ग़लत है और इसकी सज़ा मिलनी चाहिए।

अल्लाह के नियमों की अवमाननता और सामाजिक क़ानूनों का हनन जिससे समाज में गड़बड़ी पैदा होती है बेनक़ाब किया जाना चाहिए और समाज के लोगों को चाहिए कि इस पर सवाल करें।

अब आइए सूराए शूरा की आयत संख्या 43 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَمَنْ صَبَرَ وَغَفَرَ إِنَّ ذَلِكَ لَمِنْ عَزْمِ الْأُمُورِ (43)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

और जो सब्र करे और क़ुसूर माफ़ कर दे तो बेशक ये बड़े हौसले के काम हैं। [42:43]

यह आयत एक बार फिर गुनहगार की ग़लती माफ़ कर दिए जाने के विषय की ओर पलटती है और इस बात पर ज़ोर देती है कि बेशक मज़लूम को हक़ है कि ज़ालिम को सज़ा दे मगर इस हक़ के चलते लोग आपस में एक दूसरे की ग़लती को माफ़ करना और एक दूसरे पर रहम करना न भूल जाएं।

आयत कहती है कि दूसरों की ग़लती माफ़ कर देना कठिन काम है और इसके लिए बड़े संयम और सहनशीलता की ज़रूरत होती है लेकिन यह बड़ा मूल्यवान और सराहनीय कार्य है। स्वाभाविक है कि इच्छाओं को दबा लेना और माफ़ कर देना हर किसी के बस की बात नहीं है। यह आसान काम नहीं है। लेकिन बड़े इंसानों के पास मज़बूत इरादा और संयम होता है और उनमें बड़ी अच्छी आदतें होती हैं। वो लोग इस तरह के काम कर सकते हैं। यह लोग अपने हक़ छोड़ देते हैं और माफ़ कर देना पसंद करते हैं।

इन आयतों में कुल मिलकर दो प्रकार के बर्ताव की बात की गई है जो दूसरों पर अत्याचार करने वाले के सिलसिले में अपनाया जा सकता है। एक तो है इंतेक़ाम और सज़ा और दूसरे माफ़ कर देना। ज़ाहिर है कि इस मामले में लोगों के अलग अलग प्रकार के हालात का भी असर होता है। ज़ालिम की परिस्थितियां और मज़लूम व्यक्ति की परिस्थितियां दोनों ही इस मामले में प्रभावी होती हैं।

कभी मुमकिन है कि ज़ालिम को अपने किए पर पछतावा हो और वो शर्मिंदगी ज़ाहिर करते हुए अपनी ग़लती की माफ़ी मांग रहा हो। मगर कभी मुमकिन है कि ज़ालिम को अपने किए पर पछतावा और शर्मिंदगी न हो बल्कि वो उद्दंडता के साथ अपने किए पर अड़ा हो और ज़ुल्म जारी रखना चाहता हो।

इसी तरह मज़लूम भी मुमकिन है कि बहुत महान व्यक्ति हो जो आसानी से दूसरों की ग़लती को नज़रअंदाज़ और माफ़ कर देता हो। लेकिन कभी मज़लूम इस हालत में है कि दूसरों के अत्याचार को सहन नहीं कर सकता और हर हाल में अपना अधिकार लेना चाहता है यानी ज़ालिम से इंतेक़ाम लेना चाहता है। पिछली आयतों में इस प्रकार के अलग अलग हालात का ज़िक्र किया गया है। तो हर प्रकार की स्थिति का एक अलग हुक्म है।

 

इस आयत से हमने सीखाः  

क़ुरआन की सिफ़ारिश संयम बरतना, सहनशीलता और दूसरों की ग़लती माफ़ कर देना है। हालांकि क़ानून और नियम के अनुसार मज़लूम को हक़ है कि ज़ालिम से अपना बदला और इंतेक़ाम ले।

सब्र और माफ़ी, महान इंसानों के गुणों में है जिसकी अल्लाह ने तारीफ़ की हैं

इस्लमा समावेशी दीन है, मज़लूम के अधिकार को भी मान्यता देता है और उसे साथ ही बड़प्पना और भले इंसानों जैसा बर्ताव करने की दावत और प्रोत्साहन देता है।