Feb ०२, २०२५ १७:२३ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-914

सूरए शूरा, आयतें 48 - 53

आइए सबसे पहले सूरए शूरा की आयत संख्या 48 की तिलावत सुनते हैं:

 

فَإِنْ أَعْرَضُوا فَمَا أَرْسَلْنَاكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا إِنْ عَلَيْكَ إِلَّا الْبَلَاغُ وَإِنَّا إِذَا أَذَقْنَا الْإِنْسَانَ مِنَّا رَحْمَةً فَرِحَ بِهَا وَإِنْ تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيهِمْ فَإِنَّ الْإِنْسَانَ كَفُورٌ (48)

इस आयत का अनुवाद हैः

फिर अगर मुँह फेर लें तो (ऐ रसूल) हमने तुमको उनका निगहबान बनाकर नहीं भेजा तुम्हारा काम तो सिर्फ  पैग़ाम पहुँचा देना है और जब हम इन्सान को अपनी रहमत का मज़ा चखाते हैं तो वह उससे ख़ुश हो जाता है और अगर उनको उन्हीं के हाथों की पहली करतूतों की बदौलत कोई तकलीफ पहुँची तो (सब एहसान भूल गए) बेशक इन्सान बड़ा नाशुक्रा है।[42:48]

अल्लाह के पैग़म्बरों की विशेषता इंसानों की हिदायत के लिए फ़िक्रमंद रहना था और जब कुछ लोग ईमान के रास्ते पर  नहीं आते थे और हिदायत का रास्ता नहीं चुनते थे तो पैग़म्बर इस पर बहुत दुखी रहते थे। उनकी सतत यही कोशिश होती थी कि जहां तक संभव हो लोगों को हिदायत के रास्ते पर ले आएं।

यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है कि ऐ रसूल तुम चाहे जितनी कोशिश करो कुछ लोग मुंह फेर लेंगे और आपकी दावत स्वीकार नहीं करेंगे तो फिर आपकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। क्योंकि तुमने अल्लाह का पैग़ाम उन्हें पूरी तरह पहुंचा दिया है। अल्लाह यह नहीं चाहता कि लोगों को मजबूर करके ईमान के रास्ते पर लाया जाए, तुम पर यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि उन्हें सत्य स्वीकार करने के लिए मजबूर करो। अल्लाह यह चाहता है कि इंसान ख़ुद अपनी इच्छा और मर्ज़ी से ईमान और सत्य का रास्ता चुनें। क्योंकि केवल इसी प्रकार के ईमान का मूल्य और महत्व है।

आयत में आगे जाकर पैग़म्बर को दिलासा दिया गया है कि अगर कुछ लोग आपसे मुंह फेर लेते हैं तो वे अल्लाह से भी मुंह मोड़ लेते हैं। अल्लाह ने उन्हें ढेरों नमतें दी हैं और इन्हीं नेमतों पर वो इतना घमंड करने लगते हैं कि अल्लाह को भूल जाते हैं और उसकी नेमत का शुक्र अदा नहीं करते। यहां तक कि उनके गुनाहों की वजह से उन पर जो मुसीबतें पड़ती हैं उनसे भी उनकी आंख नहीं खुलती और उसी ग़फ़लत में पड़े रहते हैं।

इस आयत से हमने सीखाः

दीन के उपदेशकों की ज़िम्मेदारी अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाना होता है लोगों को उसे स्वीकार करने के लिए मजबूर करना नहीं।

आम तौर पर लोगों में गहराई नहीं होती, ख़ुशी मिलते ही ग़ुरूर में पड़ जाते हैं और अल्लाह की नेमत का शुक्र अदा नहीं करते।

इंसान की ज़िंदगी की तकलीफ़ें और परेशानियां उसके अपने अमल का नतीजा हैं वरना अल्लाह उन्हें सख़्ती नहीं देना चाहता।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 49 और 50 की तिलावत सुनते हैं:

لِلَّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ يَهَبُ لِمَنْ يَشَاءُ إِنَاثًا وَيَهَبُ لِمَنْ يَشَاءُ الذُّكُورَ (49) أَوْ يُزَوِّجُهُمْ ذُكْرَانًا وَإِنَاثًا وَيَجْعَلُ مَنْ يَشَاءُ عَقِيمًا إِنَّهُ عَلِيمٌ قَدِيرٌ (50)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

सारे आसमान व ज़मीन की हुकूमत ख़ास ख़ुदा ही की है जो चाहता है पैदा करता है (और) जिसे चाहता है (फ़क़त) बेटियाँ देता है और जिसे चाहता है (महज़) बेटा अता करता है। [42:49] या उनको बेटे बेटियाँ (औलाद की) दोनों किस्में इनायत करता है और जिसको चाहता है बांझ बना देता है बेशक वह बड़ा ज्ञानी और क़ादिर है।[42:50]

पिछली आयत में यह कहा गया कि इस दुनिया में हर नेमत और रहमत अल्लाह की तरफ़ से है। अब यह आयतें कहती हैं कि आसमानों और ज़मीन की हुकूमत अल्लाह की है। वो जिसे चाहता है पैदा करता है। अल्लाह मुसलसल अपनी मख़लूक़ पैदा करता है। यह नहीं है कि मख़लूक़ को पैदा करने का काम ख़त्म हो चुका है। इसके बाद अल्लाह एक बड़ी अहम नेमत का उल्लेख करता है जो औलाद की नेमत है।

यह तो साफ़ है कि बच्चों को बनाने वाले मां बाप नहीं हैं बल्कि उन्हें अल्लाह ने अपनी मख़लूक़ पैदा करने का ज़रिया बनाया है। बच्चों को चाहे बेटियां हों या बेटे अल्लाह ही पैदा करता है।

यह आयतें कहती हैं कि बेटे भी और बेटियां भी अल्लाह का दिया हुआ तोहफ़ा हैं। उनके बीच किसी तरह का अंतर करना क़ुरआन की नज़र में दुरुस्त नहीं है। अलबत्ता अगर कोई बांझ है तो यह भी अल्लाह के इरादे और उस व्यक्ति की मसलहेत की बुनियाद पर है। अल्लाह को कायनात के सारे हालात और स्थितियों की जानकारी है, वो जिस चीज़ का भी इरादा कर ले उसे अंजाम देने में सक्षम है।

इन आयतों से हमने सीखाः

औलाद, चाहे बेटा हो या बेटी अल्लाह का तोहफ़ा है जो अल्लाह मां बाप को देता है उनके बीच कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए।

अल्लाह मुसलसल मख़लूक़ की रचना करता रहता है, दुनिया के किसी भी स्थान पर जन्म लेने वाला नजवात अल्लाह की रचना की निशानी है।

अगर हमें अल्लाह के इल्म और शक्ति पर ईमान है तो इस बारे में कि हमारे यहां औलाद होगी या नहीं और अगर होगी तो बेटा होगा या बेटी हमें अल्लाह पर भरोसा रखना चाहिए।

अब आइए सूरए शूरा की आयत संख्या 51 की तिलावत सुनते हैं:

وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَنْ يُكَلِّمَهُ اللَّهُ إِلَّا وَحْيًا أَوْ مِنْ وَرَاءِ حِجَابٍ أَوْ يُرْسِلَ رَسُولًا فَيُوحِيَ بِإِذْنِهِ مَا يَشَاءُ إِنَّهُ عَلِيٌّ حَكِيمٌ (51)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

और किसी आदमी के लिए ये मुमकिन नहीं कि ख़ुदा उससे बात करे मगर वहि के ज़रिए से या परदे के पीछे से या कोई फ़रिश्ता भेज कर, वह अपने अख़्तियार से जो चाहता है पैग़ाम भेज देता है, बेशक वह महान और हिकमत वाला है। [42:51]  

सूरए शूरा की शुरूआत अल्लाह के संदेश वहि से हुई और इसी विषय पर यह सूरा ख़त्म हुआ है। पहले कहा गया कि अल्लाह प्रत्यक्ष रूप से किसी इंसान को मुख़ातिब नहीं करता क्योंकि अल्लाह का शरीर नहीं है कि वो मुंह और ज़बान से बात करे और इंसान अपने कान से उसकी बातें सुनें। अल्लाह तीन तरीक़ों से अपने पैग़म्बरों से संपर्क रखता है। एक रास्ता है कि वह बात जो पैग़म्बर को बतानी होती है कि पैग़म्बर उसे लोगों के बीच में बयान करें, अल्लाह पैग़म्बर के दिल में वो बात डाल देता है।

दूसरा रास्ता यह है कि अल्लाह आवाज़ पैदा कर देता है और पैग़म्बर उस आवाज़ को सुन लेते हैं हालांकि वो किसी को देख नहीं रहे होते हैं। यह हज़रत मूसा के साथ हुआ था। तीसरा रास्ता यह है कि अल्लाह वहि के फ़रिश्ते को भेजता है और पैग़म्बर उसके ज़रिए से वहि यानी अल्लाह का ख़ास संदेश प्राप्त कर लेते हैं जैसे जिबरईल पैग़ाम लाते थे।

बहरहाल वहि इस तरह की होती थी कि पैग़म्बर को यक़ीन हासिल हो जाता था कि यह अल्लाह का पैग़ाम है। आम लोगों को पैग़म्बर के चमत्कार देखकर यक़ीन हो जाता है कि पैग़म्बर के ज़रिए अल्लाह का जो संदेश उन्हें दिया जा रहा है वो सही है और वहि का संदेश देने वाले पैग़म्बर का अल्लाह से संपर्क है।

इस आयत से हमने सीखाः

अल्लाह अलग अलग रास्तों से अपने पैग़म्बरों से संपर्क रखता है और अपनी बात उन तक पहुंचाता है कि वे अल्लाह का पैग़ाम लोगों को पुहंचा दें और लोग हक़ के रास्ते पर चलें।

अल्लाह किस को संबोधित करे यह अल्लाह के अख़तियार में है। अल्लाह अपने इल्म और हिकमत के आधार पर चयन करता है और अपना पैग़ाम चुने हुए व्यक्ति को पहुंचाता है।

अब आइए सूराए शूरा की आयत नंबर 52 और 53 की तिलावत सुनते हैं:

 وَكَذَلِكَ أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ رُوحًا مِنْ أَمْرِنَا مَا كُنْتَ تَدْرِي مَا الْكِتَابُ وَلَا الْإِيمَانُ وَلَكِنْ جَعَلْنَاهُ نُورًا نَهْدِي بِهِ مَنْ نَشَاءُ مِنْ عِبَادِنَا وَإِنَّكَ لَتَهْدِي إِلَى صِرَاطٍ مُسْتَقِيمٍ (52)                                                                      

     صِرَاطِ اللَّهِ الَّذِي لَهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ أَلَا إِلَى اللَّهِ تَصِيرُ الْأُمُورُ (53)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

और इसी तरह हमने अपने फ़रमान की रूह (क़ुरान) को तुम्हारी तरफ़ 'वही' के ज़रिए से भेजा तो तुम न किताब ही को जानते थे कि क्या है और न ईमान को मगर इस (क़ुरान) को एक नूर बनाया है कि इससे हम अपने बन्दों में से जिसकी चाहते हैं हिदायत करते हैं और इसमें शक़ नहीं कि तुम (ऐ रसूल) सीधा ही रास्ता दिखाते हो।[42:52]  (यानि) उसका रास्ता कि जो आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है (ग़रज़ सब कुछ) उसी का है सुन रखो सारे मामले ख़ुदा ही की तरफ़ पलटेंगे और वही फ़ैसला करेगा।[42:53]

यह आयतें जिन पर सूरए शूरा ख़त्म होता है पिछली आयतों के विषय को जिनमें वहि के अलग अलग रास्तों के बारे में बताया गया था, आगे बढ़ाते हुए पैग़म्बर से कहती हैं कि जिस तरह हमने पिछले पैग़म्बरों पर वहि नाज़िल की, यह क़ुरआन आप पर वहि के रूप में नाज़िल किया है जो इंसान की ज़िंदगी का आधार है और रूह की तरह मानव समाज के पैकर में हरकत करता है कि उसे जीवित रखे। क़ुरआन सूरए अनफ़ाल की आयत 24 में कहता है कि ऐ ईमान लाने वालो! जब भी अल्लाह और रसूल तुम्हें किसी चीज़ की दावत दें कि वो तुम्हें जीवन प्रदान करने वाली है तो उस दावत को क़ुबूल कर लो।

आयत में आगे कहा गया है कि वहि का नाज़िल होना अल्लाह का एहसान था जिससे पहले तो पैग़म्बरे इस्लाम का फ़ैज़ पहुंचा कि उन पर क़ुरआन की आयतें नाज़िल हुईं, वो इसकी पूरी विषय वस्तु पर ईमान लाए। इसके बाद यह करम सारे इंसानों तक पहुंचा और पैग़म्बर के ज़रिए दूसरे इंसानों को वहि और ईमान की हक़ीक़त का ज्ञान हुआ।

इसी संदर्भ में अयतें पैग़म्बर से कहती हैं कि क़ुरआन आपके लिए नूर तो है ही दूसरे लोगों के लिए भी यह प्रकाश है। यह दुनिया के लोगों की सत्य के रास्ते की हिदायत करने का ज़रिया है। आप लोगों को ज़िंदगी के सही रास्ते की हिदायत करते हैं। सीधे रास्ते का विवरण यह दिया गया है कि यह अल्लाह का रास्ता है कि आसमानों और ज़मीन की सारी चीज़ें जिसके अख़तियार में हैं। यह रास्ता इंसान को अल्लाह की बारगाह में ले जाता है। यही रास्ता इंसान को अल्लाह तक पहुंचा सकता है। इससे सीधा और रौशन रास्ता क्या हो सकता है जो कायनात को पैदा करने वाले की बारगाह तक पहुंचाता है?

इन आयतों से हमने सीखाः

पैग़म्बरों को भी अल्लाह की हिदायत की ज़रूरत है कि वो इंसानों की हिदायत कर सकें और उनका प्रशिक्षण करें। उनके पास अपनी कोई हिदायत नहीं होती।

क़ुरआन की शिक्षाएं लोगों की हिदायत और समाज के जीवन का आधार हैं अलबत्ता जब उसे स्वीकार किया जाए और उस पर अमल किया जाए केवल क़ुरआन की आयतों को बिना समझे पढ़ लेना काफ़ी नहीं है।

क़ुरआन अकेले काफ़ी नहीं है बल्कि इसके साथ एक उस्ताद और रहबर की ज़रूरत है ताकि उसकी जीवनदायक शिक्षाओं को समाज के भीतर व्यवहारिक रूप दे और दूसरों के लिए आदर्श बने।