क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-917
सूरए ज़ुख़ुरुफ़ , आयतें 16-22
आइए सबसे पहले सूरए ज़ुख़ुरुफ़ की आयत संख्या 16 से 18 तक की तिलावत सुनते हैं:
أَمِ اتَّخَذَ مِمَّا يَخْلُقُ بَنَاتٍ وَأَصْفَاكُمْ بِالْبَنِينَ (16) وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُمْ بِمَا ضَرَبَ لِلرَّحْمَنِ مَثَلًا ظَلَّ وَجْهُهُ مُسْوَدًّا وَهُوَ كَظِيمٌ (17) أَوَمَنْ يُنَشَّأُ فِي الْحِلْيَةِ وَهُوَ فِي الْخِصَامِ غَيْرُ مُبِينٍ (18)
इन आयतों का अनुवाद हैः
क्या उसने अपनी मख़लूक़ात में से ख़ुद तो बेटियाँ ली हैं और तुमको चुनकर बेटे दिए हैं? [43:16] हालॉकि जब उनमें किसी शख़्स को उस चीज़ (बेटी) की ख़ुशख़बरी दी जाती है जैसी उसने ख़ुदा के लिए बयान की है तो वह (ग़ुस्से के मारे) सियाह हो जाता है और पेच व ताब खाने लगता है।[43:17] क्या वह (औरत) जो ज़ेवरों में पाली पोसी जाए और झगड़े में (अच्छी तरह) बात तक न कर सके (ख़ुदा की बेटी हो सकती है) [43:18]
यह आयतें इतिहास के लंबे समय में बहुत सारी मानवीय जातियों के बीच प्रचलित ग़लत विचार का ज़िक्र करती हैं जिसके आधार पर पुरुष को महिला से श्रेष्ठ माना जाता था। इतना ही नहीं बेटी को अभिषाप के रूप में देखा जाता था। इसलिए आयत कहती है कि यह क्या बात है कि तुम बेटे को बेटी से श्रेष्ठ मानते हो और जब बेटा पैदा होता है तो ख़ुश हो जाते है और जब बेटी पैदा होती है तो तुम्हारा मुंह बन जाता है और दुखी हो जाते हो?
इससे भी बुरी बात यह कि बेटे को तो अपना लेते हो और उस पर गर्व करते हो लेकिन बेटी के बारे में कहते हो कि वह अल्लाह की बेटी है जिसने उसे पैदा किया है जबकि हमारी यह इच्छा नहीं थी। बेटे को जो खेतीबाड़ी के कामों में, व्यापार में और लड़ाई में तुम्हारा मददगार होता है अपना समझते हो लेकिन बेटी को जो घर में अभूषणों के साथ बड़ी होती है और बहस में कमज़ोर पड़ जाती है उसे अल्लाह की बेटी बता देते हो?
ज़ाहिर है कि बेटा और बेटी दोनों अल्लाह की मख़लूक़ हैं और दोनों के वजूद से ही मानव समाज का अस्तित्व बाक़ी और जारी है। अल्लाह के निकट किसी को दूसरे पर श्रेष्ठता हासिल नहीं है। महिला और पुरुष जीवन में जो भूमिका निभाते हैं उनके अनुसार उनकी अलग अलग विशेषताएं हैं और दोनों के शरीरों में फ़र्क़ होता है। एक फ़र्क़ यह है कि महिलाओं की बातचीत और उनके बर्ताव पर भावनाओं का रंग चढ़ा होता है। दरअस्ल महिलाएं जीवन में मां के रूप में जो भूमिका निभाती हैं उसकी वजह से अल्लाह ने उनके अस्तित्व में कुछ विशेषताएं रखी हैं और उन्हें जंग के मैदान से दूर रखने के लिए कहा है।
इन आयतों से हमने सीखाः
बेटी और बेटे में भेदभाव करना बहुत पुरानी ग़लत सोच है जिसको खुलकर नकार दिया है।
लड़कियों और महिलाओं का आभूषण पसंद करना स्वाभाविक है और इसे स्वीकार करना चाहिए।
जंग और बहस के कठोर मैदान महिलाओं के लिए नहीं हैं। क्योंकि यह चीज़ें उनके स्वभाव से मेल नहीं खातीं।
अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 19 और 20 की तिलावत सुनते हैं,
وَجَعَلُوا الْمَلَائِكَةَ الَّذِينَ هُمْ عِبَادُ الرَّحْمَنِ إِنَاثًا أَشَهِدُوا خَلْقَهُمْ سَتُكْتَبُ شَهَادَتُهُمْ وَيُسْأَلُونَ (19) وَقَالُوا لَوْ شَاءَ الرَّحْمَنُ مَا عَبَدْنَاهُمْ مَا لَهُمْ بِذَلِكَ مِنْ عِلْمٍ إِنْ هُمْ إِلَّا يَخْرُصُونَ (20)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और उन लोगों ने फ़रिश्तों को कि जो ख़ुदा के बन्दे हैं (ख़ुदा की) बेटियाँ क़रार दे दिया है, क्या यह लोग फरिश्तों की पैदाइश खड़े देख रहे थे? अभी उनकी शहादत क़लम बन्द कर ली जाती है। [43:19] और (क़यामत) में उनसे सवाल किया जाएगा और कहते हैं कि अगर ख़ुदा चाहता तो हम उनकी इबादत न करते उनको इस बात की कुछ ख़बर ही नहीं, ये लोग तो बस अटकलें लगाते हैं।
मुशरिकों की एक ग़लत आस्था यह थी कि फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियां समझते थे और इन ग़लत धारणाओं पर इतनी ताकीद करते थे कि मानो फ़रिश्तों की पैदाइश के समय वे गवाह के रूप में मौजूद रहे हों।
इससे भी बुरी बात यह कि फ़रिश्तों की इबादत करते हैं और यह अक़ीदा रखते हैं कि कायनात के संचालन में उनका अलग से कोई रोल है। जबकि इस प्रकार की आस्थाएं अनुमान और अटकलों पर आधारित हैं, इसका कोई आधार नहीं और कोई भी ज्ञान इसकी पुष्टि नहीं करता। इसलिए क़ुरआन कहता है कि उनके इस ग़लत दावे के बारे में क़यामत के दिन उनसे पूछा जाएगा और उनके पास कोई जवाब नहीं होगा।
इन आयतों से हमने सीखाः
फ़रिश्ते अल्लाह की मख़लूक़ हैं, उसकी संतान नहीं। इंसानों के विपरीत उनके यहां मर्द और औरत जैसा वर्गीकरण नहीं है।
अल्लाह की किसी भी मख़लूक़ की इबादत चाहे वो फ़रिश्ते हों या इंसान हों जैसा हज़रत ईसा थे, क़यामत में सवाल के घेरे में होगी।
हम इस ग़लत फ़हमी में न रहें कि हम जो कुछ कहते हैं और हमारे मुंह से जो बातें निकलती हैं वो मिट जाती हैं, ख़त्म हो जाती हैं। बल्कि हम जो कुछ भी कहते हैं वह दर्ज कर लिया जाता है। एक दिन हमें अपनी कही बातों और अपने दावों का जवाब देना होगा।
अपने ग़लत कामों को हम अल्लाह का काम बताने की कोशिश न करें। क्योंकि अल्लाह जिसने पैग़म्बर और ग्रंथ इंसान की हिदायत के लिए भेजे हैं कभी नहीं चाहेगा कि हम ग़लत रास्ते पर चलें।
अब आइए सूराए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 21 और 22 की तिलावत सुनते हैं,
أَمْ آَتَيْنَاهُمْ كِتَابًا مِنْ قَبْلِهِ فَهُمْ بِهِ مُسْتَمْسِكُونَ (21) بَلْ قَالُوا إِنَّا وَجَدْنَا آَبَاءَنَا عَلَى أُمَّةٍ وَإِنَّا عَلَى آَثَارِهِمْ مُهْتَدُونَ (22)
इन आयतों का अनुवाद हैः
या हमने उनको इससे पहले कोई किताब दी थी कि ये लोग उसे मज़बूत थामें हुए हैं। [43:21] बल्कि ये लोग तो ये कहते हैं कि हमने अपने बाप दादाओं को एक तरीक़े पर पाया और हम क़दम ब क़दम उनके सही रास्ते पर चले जा रहें हैं। [43:22]
मुशरिकों की ग़लत आस्था के बारे में पिछली आयतों में बताया गया और अब यह आयतें इस ग़लत धारणाओं की जड़ और अस्ली वजह बयान करती हैं। ऐसा नहीं है कि उनके पास अपनी ग़लत धारणाओं के लिए पैग़म्बरों की शिक्षाओं या आसमानी किताबों के हवाले मौजूद हैं। क्योंकि इस तरह की भ्रामक बातें तो कोई भी पैग़म्बर इंसानों को नहीं सिखा सकता। बल्कि उन्होंने अपने पूर्वजों के रास्ते पर चलते हुए इस तरह के ग़लत विचार और आस्थाएं अपना ली हैं। हालांकि उनके पूर्वज अज्ञानता में डूबे हुए थे और नासमझी में गिरफ़तार थे। उनके पास कोई ज्ञान नहीं था। वे बस अटकलों और अनुमान के आधार पर कोई भी चीज़ अल्लाह से जोड़ देते थे।
दूसरे शब्दों में इस तरह कहना चाहिए कि इन ख़ुराफ़ातों और ग़लत धारणाओं का न तो कोई आधार है और न ही पैग़म्बरों की किताबों और शिक्षाओं में कोई ठोस हवाला है। बस उन्होंने अपने पूर्वजों का अंधा अनुसरण किया है और उनकी हर बात और आदत सीखते चलते गए हैं। जबकि कोई भी समझदार व्यक्ति दूसरों के अनुसरण के आधार पर अपने अक़ीदे की बुनियाद नहीं रखता।
इन आयतों से हमने सीखाः
विचार और आस्थाएं विवेक और वहि के आधार पर अपनाई जानी चाहिए। जो चीज़ अक़्ल और वहि से मेल न खाए शिर्क और ख़ुराफ़ात है चाहे समाज के संस्कार, रीति और संस्कृति उसे मान्यता ही क्यों न दे रहे हों।
हमें ख़याल रखना चाहिए कि पूर्वजों की चीज़ों को सुरक्षित रखने की कोशिश में समाज की ग़लत रीतियों का प्रसार न शुरू कर दें।
हर प्रकार का जातीय, नस्ली और भाषाई पक्षपात जो अंधे अनुसरण की वजह से किया जाए क़ुरआन को अस्वीकार है।