क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-919
सूरए ज़ुख़रुफ़ आयतें 29-35
आइए सबसे पहले सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 29 और 30 की तिलावत सुनते हैं,
بَلْ مَتَّعْتُ هَٰؤُلَاءِ وَآبَاءَهُمْ حَتَّىٰ جَاءَهُمُ الْحَقُّ وَرَسُولٌ مُّبِينٌ (29) وَلَمَّا جَاءَهُمُ الْحَقُّ قَالُوا هَٰذَا سِحْرٌ وَإِنَّا بِهِ كَافِرُونَ (30)
इन आयतों का अनुवाद हैः
बल्कि मैं उनको और उनके बाप दादाओं को फायदा पहुँचाता रहा यहाँ तक कि उनके पास (दीने) हक़ और साफ़ साफ़ बयान करने वाला रसूल आ पहुँचा। [43:29] और जब उनके पास (दीन) हक़ आ गया तो कहने लगे ये तो जादू है और हम तो हरगिज़ इसके मानने वाले नहीं।[43:30]
इंसानों के सिलसिले में अल्लाह की परम्परा यह रही है कि उनके पास किसी बहाने की गुंजाइश नहीं छोड़ता। अल्लाह हरगिज़ किसी इंसान को तब तक सज़ा नहीं देता जब तक हक़ की आवाज़ उसके कान तक न पहुंच जाए। मक्के के अनेकेश्वरवादी भी इस नियम से अपवाद नहीं थे। अल्लाह ने अरब क़ौम में उन्हीं के बीच से एक पैग़म्बर चुना जिसकी बातों को वे बख़ूबी समझ सकें और हक़ बात की जानकारी हासिल कर लें। लेकिन दूसरी क़ौमों की तरह उन्होंने भी जब हक़ उनके सामने आया तो बड़ी तादाद में उसके विरोध पर तुल गए। हक़ बात को स्वीकार करने के बजाए उन्होंने हक़ बयान करने वाले को जादूगर कहना शुरू कर दिया और ईमान लाने पर तैयार नहीं हुए। इसके बावजूद अल्लाह ने उन्हें अपनी नेमतों से महरूम नहीं किया बल्कि उन्हें मौक़ा दिया कि ग़लत रास्ते से लौट आएं।
इन आयतों से हमने सीखाः
जो अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुआ है वो पूरा का पूरा हक़ है। अब अगर इंसान अल्लाह के निर्देशों के विपरीत कोई क़ानून बनाता है तो वह ग़लत होगा चाहे इंसानों में अधिकतर उसका पालन ही क्यों न करते हों।
लोगों के पास धन दौलत होने का यह मतलब नहीं कि वो हक़ और सत्य की राह पर हैं। हो सकता है कि अल्लाह ने उन्हें आज़माने के लिए मोहलत दी हो।
जब इंसान हक़ को समझ ले अब उसके पास बहाने की गुंजाइश नहीं है अब हक़ स्वीकार करने से वो भाग नहीं सकता, बहानेबाज़ी कुफ़्र मानी जाएगी।
अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 31 और 32 की तिलावत सुनते हैं,
وَقَالُوا لَوْلَا نُزِّلَ هَٰذَا الْقُرْآنُ عَلَىٰ رَجُلٍ مِّنَ الْقَرْيَتَيْنِ عَظِيمٍ (31) أَهُمْ يَقْسِمُونَ رَحْمَتَ رَبِّكَ نَحْنُ قَسَمْنَا بَيْنَهُم مَّعِيشَتَهُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَرَفَعْنَا بَعْضَهُمْ فَوْقَ بَعْضٍ دَرَجَاتٍ لِّيَتَّخِذَ بَعْضُهُم بَعْضًا سُخْرِيًّا وَرَحْمَتُ رَبِّكَ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُونَ (32)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और कहने लगे कि ये क़ुरान इन दो बस्तियों (मक्के और ताएफ़) में से किसी बड़े आदमी पर क्यों नहीं नाज़िल किया गया।[43:31] क्या यह लोग तुम्हारे परवरदिगार की रहमत को तक़सीम करने वाले हैं? हमने तो इनके दरमियान उनकी रोज़ी दुनयावी ज़िन्दगी में बाँट दी है और एक के दूसरे पर दर्जे बुलन्द किए हैं ताकि इनमें का एक दूसरे से ख़िदमत ले और जो माल (संपत्ति) ये लोग जमा करते फिरते हैं ख़ुदा की रहमत इससे कहीं बेहतर है।[43:32]
यह आयतें मक्के के मुशरिकों की एक बहानेबाज़ी की तरफ़ इशारा करती हैं। वो बहाने करते थे कि अगर हमारे बीच से पैग़म्बर चुना जाना था तो मक्के या ताएफ़ के अहम लोगों में से किसी एक को चुना जाता, उस व्यक्ति को नहीं जो बचपन में यतीम हो गया और उसकी देखभाल उसके दादा ने की और उसके पास धन दौलत भी नहीं है।
वे इस भ्रम में थे कि पैग़म्बरी भी क़बीले की सरदारी के समान होती है जो किसी मशहूर, ताक़तवर, दौलतमंद और सामाजिक प्रभाव रखने वाले व्यक्ति को दी जानी चाहिए जिसका क़बीले के लोग सम्मान और आज्ञापालन करें। जबकि पैग़म्बरी का विषय है कि इसके लिए मानवीय महानता अहम होती है, अच्छा अख़लाक़, अच्छा चरित्र, और सच्चाई ज़रूरी है। जिसके पास जानकारी, उदारता और बहादुरी हो, जो वंचितों और पीड़ितों के दुख दर्द से आगाह हो। इतिहास में सारे पैग़म्बर इसी तरह के रहे हैं।
आयतों में आगे कहा गया है कि क्या पैग़म्बरी देने का हक़ इंसानों के हाथ में है कि जिसे चाहें पैग़म्बर बना दें। नबूवत तो अल्लाह देता है। अल्लाह को इंसानों की मंशा और सोच सब मालूम है। वो सबसे ज़्यादा जानकारी रखता है कि इस ज़िम्मेदारी के लिए कौन उचित है और क्षमता रखता है।
दुनिया के मामलों में लोगों के बीच जो अंतर है वह भी किसी हिकमत के आधार पर है। अगर सारे लोग विवेक, क्षमता, शारीरिक व मनोवैज्ञनिक सामर्थ्य के एतेबार से समान स्तर के होते तो समाज का ढांचा बिखर जाता। अल्लाह ने शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य की दृष्टि से लोगों में विविधता रखी है। जो जिस मैदान में क्षमता रखता है दूसरों की सेवा और मदद करे और ज़रूरतें पूरी करे। क्योंकि आपसी सहयोग और पारस्परिक सेवा के बग़ैर जीवन नहीं चल सकता।
इन आयतों से हमने सीखाः
बहुत से लोगों के निकट किसी के बड़े होने का पैमाना धन दौलत, ताक़त और ख्याति होती है। जबकि अल्लाह के निकट इन चीज़ों की कोई अहमियत नहीं है।
भौतिक और आध्यात्मिक नेमतें लोगों पर अल्लाह की रहमत की निशानी हैं। यह दोनों ही अल्लाह की तरफ़ से प्रदान होती हैं। जब लोगों की रोज़ी अल्लाह की मर्ज़ी और हिकमत के अनुसार बाटी जाती है तो फिर पैग़म्बरी के बारे में लोगों को कैसे यह अपेक्षी हो जाती है कि वो इंसानों के हवाले कर दी जाए।
समाज का स्वास्थ्य और अस्तित्व लोगों के आपसी सहयोग और अलग अलग वैचारिक व शारीरिक क्षमताओं के इस्तेमाल पर निर्भर है। इस तरह समाज के लोगों के बीच शारीरिक व वैचारिक अंतर सहयोग की भावना पैदा करने और एक दूसरे की ज़रूरतें पूरी करने के लिए है। यह घमंड करने और दूसरों को नीचा समझने के लिए नहीं है।
अब आइए सूरए ज़ुख़रुफ़ की आयत संख्या 33 से 35 तक की तिलावत सुनते हैं,
وَلَوْلَا أَن يَكُونَ النَّاسُ أُمَّةً وَاحِدَةً لَّجَعَلْنَا لِمَن يَكْفُرُ بِالرَّحْمَٰنِ لِبُيُوتِهِمْ سُقُفًا مِّن فِضَّةٍ وَمَعَارِجَ عَلَيْهَا يَظْهَرُونَ (33) وَلِبُيُوتِهِمْ أَبْوَابًا وَسُرُرًا عَلَيْهَا يَتَّكِئُونَ (34) وَزُخْرُفًا وَإِن كُلُّ ذَٰلِكَ لَمَّا مَتَاعُ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۚ وَالْآخِرَةُ عِندَ رَبِّكَ لِلْمُتَّقِينَ (35)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और अगर ये बात न होती कि (आख़िर) सब लोग एक ही तरीक़े के हो जाएँगे तो हम उनके लिए जो ख़ुदा का इन्कार करते हैं उनके घरों की छतें और वही सीढ़ियाँ जिन पर वो चढ़ते हैं (उतरते हैं)।[43:33] और उनके घरों के दरवाज़े और वह तख़्त जिन पर टेक लगाते हैं चाँदी और सोने के बना देते।[43:34] ये सब साज़ो-सामान, तो बस दुनियावी ज़िन्दगी के साज़ो सामान हैं (जो मिट जाएँगे) और आख़ेरत (का सामान) तो तुम्हारे परवरदिगार के यहॉ ख़ास परहेज़गारों के लिए है। [43:35]
पिछली आयतों में मुशरिकों की इस बात का ज़िक्र हुआ कि क्यों क़ुरआन ऐसे व्यक्ति पर नाज़िल नहीं हुआ जो दौलतमंद और शक्तिशाली हो? यह आयतें कहती हैं कि अल्लाह के नज़दीक धन दौलत और शक्तिशाली होना पैमाना नहीं है, वो इसके आधार पर फ़ैसला नहीं करता। अल्लाह के नज़दीक पाकीज़गी, तक़वा और अध्यात्म पैमाना है जिनके आधार पर वो बंदों को तोलता है।
सोना, चांदी और दूसरे आभूषण जिन पर आम इंसानों की नज़र होती है और जिसकी कोशिश में लोग होते हैं वो अल्लाह की नज़र में कोई महत्व नहीं रखते। अगर यह डर न होता कि काफ़िरों के पास धन दौलत की बहुतायत से नासमझ और कम क्षमता वाले लोग गुमराह हो सकते हैं तो उनके घरों को सोने और चांदी से भर देता। उनके घर कई मंज़िला होते और उनकी छतें चांदी की होतीं, घरों की सीढ़ियां जिससे वे ऊपर जाते हैं और नीचे आते हैं, उनके शानदार महल होते, तख़्त होते जिन पर वे टेक लगाकर बैठते, उसके अलावा उन्हें सारी सुविधाएं दे देता कि उनका दुनियावी जीवन ठाट बाट का होता और हर पहलू से संपूर्ण नज़र आता।
अगर अल्लाह यह करता तो इसलिए कि वे इन्हीं चीज़ों में लगे रहें और भौतिक जीवन को इसी तरह गुज़ार दें। सब को याद रखना चाहिए कि इंसान के व्यक्तित्व का पैमाना धन दौलत और सजावट की चीज़ें नहीं हैं।
इन आयतों के आख़िर में कहा गया है कि मगर यह सारी चीज़ें भौतिक जीवन की हैं। आख़ेरत अल्लाह की नज़र में परहेज़गारों के लिए है।
इन आयतों से हमने सीखाः
अधिकतर लोगों का विवेक उनकी आंखों तक सीमित होता है। अगर वो देख लेते हैं कि काफ़िरों की ज़िंदगी में सुविधाएं और साज़ो-सामान की बहुतायत है तो यह समझ बैठते हैं कि उनका रास्ता सच्चा है और उन्हीं के रास्ते पर चलना चाहिए।
इंसान का महत्व उसके अपने व्यक्तित्व के आधार पर होता है उसके घर, गाड़ी और जीवन की सुविधाओं के आधार पर नहीं। दूसरे शब्दों में इंसान की आंतरिक ख़ूबसूरती यानी उसका अख़लाक़ और उसकी इंसानी बड़ाई पर आधारित होती है। बाहर उसके पास जो सामान है उसके आधार पर नहीं।
अगर हम दुनिया में सदाचारी और परहेज़गार बने रहें तो अल्लाह क़यामत में हमें इसका बदला देगा और दुनिया के दौलतमंदों के पास जो कुछ है उससे ज़्यादा आख़ेरत में हमें प्रदान करेगा जिसकी दुनिया की किसी भी दौलत से तुलना नहीं की जा सकती।