क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-928
सूरए दुख़ान, आयतें 1-8
आइए सबसे पहले सूरए दुख़ान की आयत संख्या 1 से 4 तक की तिलावत सुनते हैं,
حم (1) وَالْكِتَابِ الْمُبِينِ (2) إِنَّا أَنْزَلْنَاهُ فِي لَيْلَةٍ مُبَارَكَةٍ إِنَّا كُنَّا مُنْذِرِينَ (3) فِيهَا يُفْرَقُ كُلُّ أَمْرٍ حَكِيمٍ (4)
इन आयतों का अनुवाद हैः
हा मीम [44:1] स्पष्ट व रौशन किताब (क़ुरान) की क़सम [44:2] हमने इसको मुबारक रात (शबे क़द्र) में नाज़िल किया, बेशक हम (अज़ाब से) डराने वाले थे।
[44:3] इसी रात को (तमाम दुनिया के) हर हिकमत से भरे विषय को एक दूसरे से अलग और स्पष्ट कर दिया जाता है। [44:4]
क़ुरआने मजीद के सात सूरे ऐसे हैं जिनकी शुरुआत कुछ अक्षरों से हुई है और यह अक्षर एक दूसरे से अलग हैं। इन्हें हुरूफ़े मुक़त्तआत यानी एक दूसरे से अलग अक्षर कहा जाता है। इस सूरे से पहले चार सूरे और इसके बाद दो सूरे हैं जिनकी शुरुआत इस प्रकार के अक्षरों से हुई है। हम इससे पहले ही बता चुके हैं कि आम तौर पर इस प्रकार के अक्षरों के बाद क़ुरआन की महानत और इंसानों के मार्गदर्शन में क़ुरआन की भूमिका का उल्लेख किया गया है।
इस सूरे में भी अल्लाह ने इन अक्षरों के बाद क़ुरआन की क़सम खाई है। वह किताब जिसकी विषयवस्तु बिल्कुल स्पष्ट और मार्गदर्शन देने वाली है, इसकी शिक्षाएं जीवंत हैं और यह ख़ुद अपनी सत्यता का प्रमाण है। आयतों में आगे जाकर इस किताब के वैभव और महानता का ज़िक्र है और अल्लाह फ़रमाता है कि यह किताब साल के सबसे उत्तम समय यानी शबे क़द्र में नाज़िल हुई। इसके बाद शबे क़द्र की महत्वपूर्ण विशेषताओं को बयान किया गया है। शबे क़द्र जिस में क़ुरआन नाज़िल हुआ है बड़ी बरकतों वाली रात है जिसमें मानव संसार की तक़दीर में लिखे गए सारे मसलों और विषयों को क़ुरआन नाज़िल होने के साथ ही एक नया रंग मिल गया। यह वो रात है जिसमें हर जीव और हर वस्तु की क़िस्मत एक साल के लिए तय कर दी जाती है। इस रात में हर महत्वपूर्ण और निर्णायक विषय का निर्धारण हो जाता है।
आयतें इस बिंदु की ओर संकेत करती हैं कि यह किताब इंसानों को सचेत करने के लिए नाज़िल की गई है। इसी तरह क़ुरआन से पहले भी जो ग्रंथ नाज़िल हुए उनका लक्ष्य भी लोगों को सचेत करना था ताकि इंसान ग़फ़लत में पड़ने से बचे और अपने अस्तित्व की पूंजी को ग़लत रास्ते पर ख़र्च न करे।
यह कहा जा सकता है कि यह अल्लाह की एक स्थायी परम्परा है कि ज़ालिमों और गुमराह लोगों को सचेत करने के लिए अपने पैग़म्बरों को भेजता है और पैग़म्बरे इस्लाम इस क्रम के आख़िरी पैग़म्बर हैं।
इन आयतों से हमने सीखाः
इस्लामी संस्कृति में कुछ समय ऐसे हैं जिनका महत्व दूसरे क्षणों से ज़्यादा है। जैसे शबे क़द्र या क़द्र की रात है यह क़ुरआन के नाज़िल होने की रात है और यह बड़ी निर्णायक रात है।
इंसान के रूहानी व आध्यात्मिक उत्थान में रात की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। इसलिए क़ुरआन की संस्कृति में रात की इबादत और स्मरण पर विशेष ताकीद की गई है।
ग़ाफ़िल समाज में चेतावनी और सावधानी का प्रबंध ज़रूरी है यह ख़ुशख़बरी से ज़्यादा प्रभावी होता है।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 5 और 6 की तिलावत सुनते हैं,
أَمْرًا مِنْ عِنْدِنَا إِنَّا كُنَّا مُرْسِلِينَ (5) رَحْمَةً مِنْ رَبِّكَ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ (6)
इन आयतों का अनुवाद हैः
हमारे यहाँ से हुक्म होता है, हम ही (पैग़म्बरों के) भेजने वाले हैं। [44:5] ये तुम्हारे परवरदिगार की मेहरबानी है, वह बेशक बड़ा सुनने वाला और जानकार है। [44:6]
पिछली आयतों के क्रम में जो क़ुरआन के नाज़िल होने के बारे में थीं, अब यह आयतें कहती हैं कि क़ुरआन का नाज़िल होना और पैग़म्बरे इस्लाम का भेजा जाना दोनों ही चीज़ें अल्लाह के आदेश और फ़रमान से हुई हैं और अल्लाह ने यह हुक्म और फ़रमान अपनी कृपा और रहमत की वजह से दिया है जो वो बंदों के बारे में रखता है।
ज़ाहिर है कि भौतिक नेमतें जो अल्लाह अपने बंदों को बख़्शता है तब संपूर्ण होती हैं जब इंसान को सत्य और कल्याण के रास्ते की हिदायत भी मिल जाए। यह हिदायत आसमानी किताबों के बग़ैर और पैग़म्बरों के बग़ैर जो इंसानों में से ही हों और आदर्श के रूप में काम करें, संभव नहीं होगी।
इन आयतों से हमने सीखाः
क़ुरआन पूरा का पूरा अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुआ है और यह अल्लाह का कलाम है। यह पैग़म्बर की बातें और उनका कलाम नहीं है।
केवल किताब का नाज़िल हो जाना काफ़ी नहीं है। उस किताब की बातों को बयान करने वाले और समझाने वाले की ज़रूरत है और साथ ही ऐसी हस्ती और आदर्श की भी ज़रूरत है जो दूसरों के लिए उदाहरण बने। यह भूमिका पैग़म्बर अदा करते रहे हैं।
इंसान की हिदायत और प्रशिक्षण अल्लाह की रहमतों की एक झलक है। हालांकि बहुत से इंसानों ने ख़ुद को इस रहमत से वंचित कर रखा है।
अब आइए सूरए दुख़ान की आयत संख्या 7 और 8 की तिलावत सुनते हैं,
رَبِّ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا إِنْ كُنْتُمْ مُوقِنِينَ (7) لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ يُحْيِي وَيُمِيتُ رَبُّكُمْ وَرَبُّ آَبَائِكُمُ الْأَوَّلِينَ (8)
इन आयतों का अनुवाद हैः
सारे आसमान व ज़मीन और जो कुछ इन दोनों के दरमियान है सबका मालिक। अगर तुममें यक़ीन करने की सलाहियत है (तो करो) [44:7] उसके सिवा कोई माबूद नहीं, वही जिलाता है, वही मारता है तुम्हारा मालिक और तुम्हारे (अगले) बाप दादाओं का भी मालिक है। [44:8]
मुशरिकों की ग़लत आस्थाओं में से एक यह आस्था थी कि आसमानों, ज़मीन और उनके बीच जो कुछ है जैसे हवा, बारिश आदि उन सबके लिए अलग अलग ख़ुदा तसव्वुर करते थे और हर चीज़ को किसी एक ख़ुदा का प्रतीक समझते थे तथा उसकी इबादत करते थे। मगर यह आयतें इन सारी ग़लत आस्थाओं को ख़ारिज कर देती हैं और कहती हैं कि दुनिया का चलाने वाला और कायनात का परवरदिगार वही ख़ालिक़ है जिसने सबको पैदा किया है और वो एक से ज़्यादा नहीं है। इसलिए यह बात निरर्थक है कि कोई अल्लाह के अलावा किसी और ख़ुदा की इबादत करे।
अगर कोई चाहता है कि अल्लाह के बारे में यक़ीन हासिल करे तो उसके बारे में सबसे स्पष्ट और सबसे निश्चित नज़रिया और अक़ीदा उसकी तौहीद है यानी अल्लाह को एक मानना किसी को भी उसके समान न समझना है। इसलिए कि उसके एक होने की निशानियां कायनात के हर कण में मौजूद हैं इसलिए हमें केवल उसी की बारगाह की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और उसी से आस लगानी चाहिए। इबादत भी उसके अलावा किसी और की नहीं करनी चाहिए।
वो कायनात का भी परवरदिगार है और तुम इंसानों का भी पालने वाला है, तुम्हारे पूर्वजों और शुरू से आख़िर तक सारे इंसानों का परवरदिगार वही है। उसके अलावा कोई माबूद नहीं है। सारे इंसानों की मौत और ज़िंदगी उसी के हाथ में है।
बेशक मौत और ज़िंदगी का विषय बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इंसानों की ज़िंदगी में जिस चीज़ का सबसे ज़्यादा असर होता है वो यही मौत और ज़िंदगी है। मौत और ज़िंदगी कायनात का सबसे गूढ़ और सबसे स्पष्ट विषय भी है और यह अल्लाह की ताक़त की निशानी भी है।
इन आयतों से हमने सीखाः
कायनात का पैदा करने वाला और मालिक एक ही है पूरी कायनात उसी के अधीन है और उसी के द्वारा संचालित होती है और वो हस्ती अल्लाह है जो पूरी कायनात को चला रहा है।
आसमानी किताब का नाज़िल करने वाला वही है जिसने आसमान और ज़मीन को पैदा किया है, दूसरी सारी चीज़ें भी पैदा की हैं और उसकी शरीयत के क़ानून प्रकृति के नियमों से पूरी तरह समन्वित हैं।
पूर्वजों की ग़लत परम्पराओं और आस्थाओं को मान कर उन पर अमल करने के बजाए उस अल्लाह के आदेशों और फ़रमान का पालन और अनुसरण करना चाहिए जिसने तुम्हें भी और तुम्हारे पूर्वजों को भी पैदा किया है।