क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-935
सूरए जासिया, आयतें 9-14
आइए सबसे पहले सूरए जासिया की आयत संख्या 9 से 11 तक की तिलावत सुनते हैं,
وَإِذَا عَلِمَ مِنْ آَيَاتِنَا شَيْئًا اتَّخَذَهَا هُزُوًا أُولَئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ مُهِينٌ (9) مِنْ وَرَائِهِمْ جَهَنَّمُ وَلَا يُغْنِي عَنْهُمْ مَا كَسَبُوا شَيْئًا وَلَا مَا اتَّخَذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ أَوْلِيَاءَ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ (10) هَذَا هُدًى وَالَّذِينَ كَفَرُوا بِآَيَاتِ رَبِّهِمْ لَهُمْ عَذَابٌ مِنْ رِجْزٍ أَلِيمٌ (11)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और जब हमारी आयतों में से किसी आयत से वाक़िफ़ हो जाता है तो उसकी हँसी उड़ाता है, ऐसे ही लोगों के वास्ते अपमानित करने वाला अज़ाब है। [45:9] जहन्नम तो उनके पीछे ही (पीछे) है और जो कुछ वह अमल करते रहे न तो वही उनके कुछ काम आएँगे और न वो जिनको उन्होंने ख़ुदा को छोड़कर (अपने) सरपरस्त बनाए थे और उनके लिए बड़ा (सख्त) अज़ाब है। [45:10] ये (क़ुरान) हिदायत है और जिन लोगों ने अपने परवरदिगार की आयतों से इन्कार किया उनके लिए सख़्त क़िस्म का दर्दनाक अज़ाब होगा। [45:11]
पिछले कार्यक्रम में उन लोगों के बारे में बात की थी जिन्होंने अल्लाह की निशानियों के बारे में सुना, उनसे वाक़िफ़ हुए लेकिन घमंड और ज़िद की वजह से उन्हें मानने पर तैयार नहीं हुए बल्कि इंकार और विरोध पर अड़े रहते हैं।
अब यह आयतें कहती हैं कि वे लोग केवल इतना ही नहीं कि अल्लाह की निशानियों को जिनकों उन्होंने देखा और सुना है स्वीकार नहीं करते बल्कि उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं और पैग़म्बरों और मोमिनों का अपमान करते हैं। तो अल्लाह उन्हें दुनिया और आख़ेरत में अपमानित और रुसवा करेगा। क़यामत में उनकी कोई धन सम्पत्ति उनके काम आएगी न वे लोग उनकी मदद कर पाएंगे जिन्हें उन्होंने अपनाया था और उनको अपना सहारा समझा था। वे लोग उनकी किसी समस्या को हल नहीं कर पाएगे। तब उन्हें अपने अपनी तुच्छता का एहसास होगा और उनके सामने अल्लाह का अज़ाब होगा और वो ख़ुद को अकेला और बेसहारा पाएंगे।
आयतें आगे कहती हैं कि यह क़ुरआन हिदायत का ज़रिया है। उसने हक़ और बातिल का अंतर बयान कर दिया है। इंसानों की ज़िंदगी के मंच को स्पष्ट रूप से सामने रख देता है और सत्य की राह पर चलने वालों को उनकी मंज़िल तक पहुंचाता है। लेकिन उनके लिए जो अल्लाह की निशानियों का इंकार करते हैं बहुत दर्दनाक अज़ाब है।
इन आयतों से हमने सीखाः
अज़ाब और सज़ा बंदों के गुनाह के अनुरूप होगी। इसलिए मज़ाक़ उड़ाने की सज़ा रुसवाई और अपमान होगा।
दुनिया में काफ़िरों को अपनी दौलत, दोस्तों और ताक़त का सहारा रहता है लेकिन क़यामत में इनमें से कोई भी चीज़ उनके काम नहीं आएगी।
जो अल्लाह की ओर से दिए गए मार्गदर्शन को नज़रअंदाज़ करता है वो पस्ती और बुराइयों में पड़ जाता है जिसके नतीजे में उसे बड़ा दर्द झेलना पड़ेगा।
अब आइए सूरए जासिया की आयत संख्या 12 और 13 की तिलावत सुनते हैं,
اللَّهُ الَّذِي سَخَّرَ لَكُمُ الْبَحْرَ لِتَجْرِيَ الْفُلْكُ فِيهِ بِأَمْرِهِ وَلِتَبْتَغُوا مِنْ فَضْلِهِ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ (12) وَسَخَّرَ لَكُمْ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ جَمِيعًا مِنْهُ إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآَيَاتٍ لِقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ (13)
इन आयतों का अनुवाद हैः
ख़ुदा ही तो है जिसने समुद्र को तुम्हारे क़ाबू में कर दिया ताकि उसके हुक्म से उसमें कश्तियां चलें और ताकि उसके करम से (रोज़ी की) तलाश करो और शायद तुम शुक्र करो। [45:12] और जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है सबको (अपने हुक्म से) तुम्हारे काम में लगा दिया है जो लोग ग़ौर करते हैं उनके लिए इसमें (क़ुदरते ख़ुदा की) बहुत सी निशानियाँ हैं। [45:13]
यह आयतें कायनात में तौहीद या एकेश्वरवाद की निशानियों के एक अलग समूह की निशानदेही करती हैं और कहती हैं कि तुम व्यापार के लिए नौका पर सवार होते हो और समुद्र के रास्ते दुनिया के अलग अलग इलाक़ों का सफ़र करते हो। यह बड़ी सहूलत तुम्हें उस ख़ासियत की वजह से मिली है जो अल्लाह ने पानी के भीतर रख दी हैं जिसकी वजह से नाव और पानी का जहाज़ पानी पर तैरता है और अपने सामान और यात्रियों के साथ पानी में डूब नहीं जाता बल्कि सुरक्षित मंज़िल तक पहुंचाता है।
पानी को किसने नौकाओं की सरल और सुचारू यात्रा के लिए उपयुक्त स्थान बनाया और लोग आसानी से उन नावों में बैठकर पानी पर तैरते हैं और अलग अलग जगहों की ओर जाते हैं? किसने समुद्रों और महासागरों की सतह पर हवाओं को रखा है जो बड़ी बड़ी नौकाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाती हैं?
रोचक बात है कि तरह तरह की गाड़ियाएं, ट्रेनें और विमान बना लेने के बाद भी दुनिया में सामानों का बड़ा भाग समुद्री रास्तों से पानी के जहाज़ों के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचता है। यह वो रास्ते हैं जिन पर कुछ काम करने और कोई निर्माण करने की ज़रूरत नहीं होती बल्कि हमेशा इस्तेमाल के लिए मुहैया रहते हैं।
केवल समुद्र नहीं बल्कि ज़मीन और आसमान में मौजूद सारी प्राकृतिक चीज़ें जैसे सूरज, चांद, हवा, बारिश, खदानें, भूमिगत संसाधन, जंगल बियाबान, पहाड़, सारी चीज़ों को अल्लाह ने तुम्हारी सेवा में रख दिया है। यह सारी नेमतें अल्लाह की दी हुई हैं। उसने तरह तरह की नेमतों से लाभ उठाने के लिए तुम्हारे सामने रास्ते खोल दिए हैं। बेशक चिंतन और विचार करने वालों की नज़र में इंसानों के लिए इन सारी चीज़ों को सेवा में लगा देना अल्लाह की निशानियों में है।
इन आयतों से हमने सीखाः
अल्लाह ने पूरी कायनात को इंसान के लिए समर्पित कर दिया है ताकि वो उसकी चीज़ों से लाभ उठाए लेकिन इसके बाद भी इंसान अल्लाह की शुक्र अदा करने तक पर तैयार नहीं है।
रोज़ी कमाने के लिए मेहनत इस्लाम की सीख है। दुनिया में सुविधापूर्ण जीवन गुज़ारना दीनदारी के विपरीत नहीं है।
कायनात की अलग अलग चीज़ों के बारे में गहराई से सोचना हमें अल्लाह तक पहुंचाता है और हमारे भीतर ज्ञान पर आधारित ईमान पैदा होता है।
अब आइए सूरए जासिया की आयत संख्या 14 की तिलावत सुनते हैं,
قُلْ لِلَّذِينَ آَمَنُوا يَغْفِرُوا لِلَّذِينَ لَا يَرْجُونَ أَيَّامَ اللَّهِ لِيَجْزِيَ قَوْمًا بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ (14)
इस आयत का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) मोमिनों से कह दो कि जो लोग ख़ुदा के दिनों की उम्मीद नहीं रखते उन्हें माफ़ कर दें ताकि वो लोगों के कर्मों के मुताबिक़ बदला दे। [45:14]
अल्लाह की आयतों के सामने काफ़िरों के घमंड और ग़लत आस्था पर अड़े रहने की उनकी ज़िद के बारे में यह आयत मोमिनों से कहती है कि जो लोग क़यामत के दिन का इंकार करते हैं, उनसे बहस न करो, उन्हें अल्लाह के सिपुर्द कर दो ताकि अल्लाह उन्हें उनके कर्मों का मज़ा चखाए।
अलबत्ता जो काफ़िर जेहालत और नासमझी में पड़कर शिर्क और कुफ़्र के शिकार हो गए हैं उनसे अच्छा बर्ताव करें ताकि सत्य से उनकी दूरी और न बढ़ जाए। हो सकता है कि यही अच्छा सुलूक और नर्मी उन्हें ग़फ़लत की नींद से बेदार कर दे और आख़िरकार वे सत्य की ओर मुड़ जाएं। लेकिन जो काफ़िर जान बूझ कर और ज़िद में सत्य को स्वीकार करने पर तैयार नहीं होते उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो और उन पर तवज्जो न दो।
इन आयतों से हमने सीखाः
मोमिनों की तरफ़ से विरोधियों से पेश आने का तारीक़ा उनकी अलग अलग स्थिति की वजह से विभिन्न है। कभी उनके सामने डट जाना ज़रूरी है और कभी उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना होता है।
अल्लाह हमारे कर्मों के अनुसार सज़ा देता है। वो भी उस अमल पर जो हमारी ज़िंदगी का हिस्सा और हमारी आदत का हिस्सा बन चुका है जिसे अंजाम देने पर हम तुले रहते हैं।