क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-938
सूरए जासिया, आयतें 26-32
आइये सबसे पहले सूरए जासिया की 26वीं और 27वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं"
قُلِ اللَّهُ يُحْيِيكُمْ ثُمَّ يُمِيتُكُمْ ثُمَّ يَجْمَعُكُمْ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ لَا رَيْبَ فِيهِ وَلَكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ (26) وَلِلَّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَيَوْمَ تَقُومُ السَّاعَةُ يَوْمَئِذٍ يَخْسَرُ الْمُبْطِلُونَ (27)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ख़ुदा ही तुमको ज़िन्दा (पैदा) करता है और वही तुमको मारता है फिर वही तुमको क़यामत के दिन जिस (के होने) में किसी तरह का शक नहीं जमा करेगा मगर अक्सर लोग नहीं जानते। [45:26] और सारे आसमान व ज़मीन की बादशाहत ख़ास ख़ुदा की है और जिस रोज़ क़यामत बरपा होगी उस रोज़ अहले बातिल बड़े घाटे में रहेंगे। [45:27]
पिछले कार्यक्रम में क़यामत का इंकार करने वालों की ओर संकेत किया गया जिन्होंने क़यामत को क़बूल करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम और मोमिनों के सामने शर्त रखी कि वे उनके पूर्वजों को ज़िन्दा करें। पवित्र क़ुरआन की इन आयतों में इन लोगों के जवाब में अल्लाह कहता है तुम लोगों को जो इस वक़्त ज़िन्दा हो किसने पैदा किया है और तुम्हें किसने ज़िन्दगी अता की है? क्या तुम लोग अपने पैदा करने वाले का भी इंकार करते हो? अगर यह मानते हो कि तुम्हें किसी ने पैदा किया है तो इस बात को क्यों क़बूल नहीं करते कि वही पैदा करने वाला तुम्हें दोबारा ज़िन्दा कर सकता है? क्यों चिंतन-मनन करने और अक़्ल से काम लेने के बजाये हर चीज़ को आंख से देखना चाहते हो?
ये आयतें इस बिन्दु पर बल देती हैं कि अगर दोबारा ज़िंदा करने में तुम्हें अल्लाह की शक्ति के बारे में संदेह है तो थोड़ा ज़मीन और आसमान की महानता के बारे में सोचो और यह समझो कि जो शक्ति इस महान कायनात की रचना कर सकती है और जो पूरी कायनात की स्वामी है निश्चित रूप से वह तुम्हें दोबारा जीवित करने में भी समक्ष है। तो इस बात को ध्यान में रखो और हक़ का अनुसरण करने के बजाये बातिल का अनुसरण न करो कि क़यामत के दिन तुम हसरत करोगे और घाटा उठाओगे।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इंसान की उम्र, बुद्धि और उसकी योग्यतायें इस दुनिया में उसकी अस्ली पूंजी हैं। मगर ग़लत चीज़ों का अनुसरण करने वाले अस्थाई बातों का अनुसरण करने लगते हैं और क़यामत के दिन उन्हें जो नुक़सान होगा उसे वे अपनी नज़रों से देखेंगे और क़यामत के दिन केवल ईमान और नेक अमल ही काम आयेंगे।
इन आयतों से हमने सीखाः
इंसान की पहली ज़िन्दगी, क़यामत में उसकी ज़िन्दगी के दोबारा संभव होने की दलील है।
अधिकांश लोग रचना और ख़िलक़त की निशानियों पर चिंतन-मनन करने के बजाये किसी भी चीज़ को कबूल करने के लिए उसे अपनी आंखों से देखने पर आग्रह करते हैं।
जो लोग क़यामत को बातिल समझते हैं क़यामत के दिन उन्हें पता चलेगा कि उन्हें बहुत बड़ा नुक़सान होगा।
आइये अब सूरए जासिया की 28वीं और 29वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
وَتَرَى كُلَّ أُمَّةٍ جَاثِيَةً كُلُّ أُمَّةٍ تُدْعَى إِلَى كِتَابِهَا الْيَوْمَ تُجْزَوْنَ مَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ (28) هَذَا كِتَابُنَا يَنْطِقُ عَلَيْكُمْ بِالْحَقِّ إِنَّا كُنَّا نَسْتَنْسِخُ مَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ (29)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और (ऐ रसूल) तुम हर उम्मत को देखोगे कि (फ़ैसले की मुन्तज़िर अदब से) घुटनों के बल बैठी होगी और हर उम्मत अपने कर्मपत्र की तरफ़ बुलाइ जाएगी जो कुछ तुम लोग करते थे आज तुमको उसका बदला दिया जाएगा। [45:28] ये हमारी किताब (जिसमें आमाल लिखे हैं) तुम्हारे सामने ठीक ठीक बोल रही है जो कुछ भी तुम करते थे हम लिखवाते जाते थे। [45:29]
ये आयतें क़यामत के दिन होने वाली हालत को बयान करती हैं कि इंसान भय के कारण घुटने टेक देगा और अपनी हालत के स्पष्ट होने की प्रतीक्षा में रहेगा। ये आयतें प्रलय के मंज़र को बयान करते हुए कहती हैं कि हर इंसान को उसके कर्मपत्र के लिए बुलाया जायेगा। हर इंसान का नामा-ए-आमाल पहले से तैयार होगा। क्योंकि फरिश्तों को इस बात की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है कि वे हर इंसान के कर्म पत्र को पहले से तैयार करें और कोई चीज़ छूटने न पाये। क़यामत के दिन इंसान का कर्म पत्र ख़ुद उसके हाथ में दिया जाएगा ताकि उसे यह पता चले कि बिला वजह उसे न तो दंडित किया जा रहा है और न ही उसे अकारण अच्छा बदला दिया जा रहा है।
क़यामत में अल्लाह लोगों को संबोधित करके कहेगा कि यह हमारी किताब है जो तुम्हारे ख़िलाफ़ बात कर रही है और तुम्हारे नामाय-ए-आमाल को खोल रही है। दुनिया में तुम जो चाहते थे उसे अंजाम देते और इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे कि तुम्हारे समस्त आमाल एक स्थान पर लिखे जा रहे हैं मगर हमने आदेश दिया था कि तुम्हारे समस्त आमाल लिखे जायें।
इन आयतों से हमने सीखाः
पूरी कायनात का संचालन, न्याय व हक़ के आधार पर किया जा रहा है और उसका हिसाब-किताब है और इंसान के समस्त कर्म लिखे जाते हैं।
क़यामत में इंसान के दंड या प्रतिफल का मापदंड इस दुनिया में इंसान के अच्छे और बुरे कर्म हैं।
हर इंसान का एक कर्मपत्र है जिसमें उसके समस्त कर्मों को लिखा जाता है। स्पष्ट है कि इस बात पर विश्वास करना और ईमान रखना कि इंसान के समस्त कर्मों को पूरी बारीकी से लिखा जाता है, इंसान को बुरे कार्यों से रोकता है।
आइये अब सूरए जासिया की 30वीं और 31वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
فَأَمَّا الَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فَيُدْخِلُهُمْ رَبُّهُمْ فِي رَحْمَتِهِ ذَلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْمُبِينُ (30) وَأَمَّا الَّذِينَ كَفَرُوا أَفَلَمْ تَكُنْ آَيَاتِي تُتْلَى عَلَيْكُمْ فَاسْتَكْبَرْتُمْ وَكُنْتُمْ قَوْمًا مُجْرِمِينَ (31)
इन आयतों का अनुवाद है
तो जिन लोगों ने ईमान क़ुबूल किया और अच्छे (अच्छे) काम किये उनको उनका परवरदिगार अपनी रहमत (से बहिश्त) में दाख़िल करेगा यही तो खुली हुई कामयाबी है। [45:30] और जिन्होंने कुफ्र अख़तियार किया (उनसे कहा जाएगा) तो क्या तुम्हारे सामने हमारी आयतें नहीं पढ़ी जाती थीं (ज़रूर) तुमने तकब्बुर किया और तुम लोग तो गुनेहगार हो गए। [45:31]
जब क़यामत की अदालत ख़त्म हो जायेगी तो लोग दो हिस्सों में बंट जायेंगे। एक गुट मोमिन और नेक लोगों का होगा जबकि दूसरा गुट काफिरों और भ्रष्टाचारियों का होगा। हर गुट का फैसला हो चुका होगा।
जो अहले ईमान होंगे उन्हें अल्लाह की विशेष रहमत प्राप्त होगी और लोक-परलोक में उन्हें मुक्ति प्राप्त होगी और यह खुली कामयाबी होगी। अलबत्ता हिसाब–किताब हो जाने के बाद केवल उन्हीं लोगों को अल्लाह की विशेष रहमत प्राप्त होगी जिनके पास ईमान के अलावा नेक आमाल भी होगें। मगर काफिरों से कहा जायेगा कि क्या हमारी आयतें तुम पर नहीं पढ़ी जाती थीं, मगर तुमने अहंकार किया? जी हां ये लोग अल्लाह की रहमत से वंचित होंगे। क्योंकि हक़ को तलाश करने और उसे स्वीकार करने के बजाये अल्लाह के आदेशों का इंकार और घमंड किया और अमल में भी हर प्रकार के गुनाह को अंजाम दिया।
इन आयतों से हमने सीखाः
ईमान और अमले सालेह एक दूसरे से अलग नहीं हैं और उनमें से अकेले कोई भी इंसान को मुक्ति नहीं दिला सकता। ईमान के साथ नेक अमल इंसान और समाज के कल्याण का आधार बनता है।
कुफ्र की अस्ल वजह, हक़ के मुक़ाबले में घमंड व अहंकार है।
गुनाहों की अस्ली वजह अल्लाह के आदेशों के मुकाबले में कुफ्र और सरकशी है।
आइये अब सूरए जासिया की 32वीं आयत की तिलावत सुनते हैं
وَإِذَا قِيلَ إِنَّ وَعْدَ اللَّهِ حَقٌّ وَالسَّاعَةُ لَا رَيْبَ فِيهَا قُلْتُمْ مَا نَدْرِي مَا السَّاعَةُ إِنْ نَظُنُّ إِلَّا ظَنًّا وَمَا نَحْنُ بِمُسْتَيْقِنِينَ (32)
इस आयत का अनुवाद है
और जब (तुम से) कहा जाता था कि ख़ुदा का वादा सच्चा है और क़यामत (के आने) में कुछ शुबहा नहीं तो तुम कहते थे कि हम नहीं जानते कि क़यामत क्या चीज़ है, हम तो बस (उसे) एक ख़याली बात समझते हैं और हम तो (उसका) यक़ीन नहीं रखते। [45:32]
इससे पहले वाली आयत में अल्लाह के आदेशों के मुकाबले में काफिरों की हठधर्मिता और अहंकार के बारे में बात की गयी थी। यह आयत कहती है कि घमंड व अहंकार की निशानी यह थी कि जब भी अहले ईमान क़यामत के आने के बारे में बात करते थे तो उनकी बातों पर ध्यान देने और उसमें चिंतन-मनन के बजाये क़यामत का इंकार करने वाले कहते थे कि क़यामत क्या है? किसने क़यामत देखी या उसके बारे में किसने ख़बर दी है जिसे हम कबूल करें? तुम मोमिनों की बातें भी हमारे लिए गुमान से अधिक कोई महत्व नहीं रखती हैं।
रोचक बात यह है कि अगर उन्हीं लोगों से यह कहा जाता कि आप के घर को आग लगने का खतरा है तो ये लोग तुरंत प्रतिक्रिया दिखाते और संभावित खतरे को दूर करने का प्रयास करते मगर क़यामत के संबंध में संभावना के सही होने की स्थिति में भी वे उस पर ध्यान नहीं देते।
इस आयत से हमने सीखाः
अहले हक़ को चाहिये कि सच व हक़ बात को समस्त लोगों तक पहुंचाने का प्रयास करें ताकि लोगों के पास इंकार की कोई गुंजाइश न रहे। यद्यपि बहुत से लोग उसे कबूल नहीं करते हैं।
यह ज़रूरी नहीं है कि इंसान को क़यामत पर यक़ीन हो तभी वह गुनाहों से परहेज़ करे बल्कि इंसान को गुमान भी हो तब भी उसे ख़तरे से मुक़ाबले की तैयारी करना चाहिये और गुनाहों से परहेज़ करना चाहिये क्योंकि क़यामत का इंकार करने और उसकी तैयारी न करने का नुकसान बहुत बड़ा है।