क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-942
सूरए अहक़ाफ़, आयतें 11-14
सबसे पहले सूरे अहक़ाफ़ की 11वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آَمَنُوا لَوْ كَانَ خَيْرًا مَا سَبَقُونَا إِلَيْهِ وَإِذْ لَمْ يَهْتَدُوا بِهِ فَسَيَقُولُونَ هَذَا إِفْكٌ قَدِيمٌ (11)
इस आयत का अनुवाद हैः
और काफ़िर लोग मोमिनों के बारे में कहते हैं कि अगर ये (दीन) बेहतर होता तो ये लोग उसकी तरफ़ हमसे पहले न दौड़ पड़ते और जब क़ुरान के ज़रिए से उनकी हिदायत न हुई तो अब भी कहेंगे कि यह तो एक पुराना झूठ है. [46:11]
पैग़म्बरे इस्लाम ने जब लोगों को इस्लाम की दावत देना आरंभ किया तो सबसे पहले वे लोग पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाये जो ग़रीब या ग़ुलाम थे। क्योंकि इस प्रकार के लोगों के पास माल और अवैध हित नहीं थे जो ख़तरे में पड़ते। इसी प्रकार इन लोगों के पास घमंड नहीं था जिसकी वजह से वे पैग़म्बरे इस्लाम के मुक़ाबले में खड़े होते।
समाज के कमज़ोर वर्गों का इस्लाम क़बूल कर लेना इस बात का कारण बना कि मक्का के प्रतिष्ठित लोग इस पर प्रतिक्रिया दिखायें और कहें कि ये ग़रीब, आश्रयहीन और मंदबुद्धि इंसान हैं। अगर यह सही धर्म होता तो सबसे पहले हम उस पर ईमान लाते क्योंकि हमें बेहतर और अच्छी समझ है और हम धनवान भी हैं।
काफ़िरों की इन बातों का आधार घमंड था जबकि मुश्किल की जड़ ख़ुद वे थे न कि इस्लाम धर्म। अगर उनके दिलों पर पर्दे न पड़े होते और माल व दौलत के भूखे न होते और ख़ुद को बेहतर न समझते और ग़रीबों की भांति हक़ के जिज्ञासु होते तो वे भी शीघ्र ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेते। इसलिए अल्लाह आयत में आगे कहता है उन लोगों ने चूंकि क़ुरआन की हिदायत को स्वीकार नहीं किया शीघ्र ही कहेंगे कि क़ुरआन अल्लाह का कलाम नहीं है और दूसरे प्राचीन अफ़सानों की भांति आधारहीन और मनगढ़त है। वे अपने ईमान न लाने का बहाना पेश करने के लिए क़ुरआन में कमियां निकालते हैं।
इस आयत से हमने सीखाः
काफ़िर स्वयं को मुसलमानों से ज़्यादा बुद्धिमान समझते हैं और सोचते हैं कि उनका धर्म इस्लाम से बेहतर है।
क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की शान में अप्रिय और अशोभनीय बातों व कार्यों की मुख्य वजह घमंड, दुश्मनी और हठधर्मिता है न कि तर्क और प्रमाण।
आइये अब सूरए अहक़ाफ़ की 12वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
وَمِنْ قَبْلِهِ كِتَابُ مُوسَى إِمَامًا وَرَحْمَةً وَهَذَا كِتَابٌ مُصَدِّقٌ لِسَانًا عَرَبِيًّا لِيُنْذِرَ الَّذِينَ ظَلَمُوا وَبُشْرَى لِلْمُحْسِنِينَ (12)
इस आयत का अनुवाद हैः
और इसके पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत थी और ये (क़ुरान) वह किताब है जो अरबी ज़बान में (उसकी) तसदीक़ करती है ताकि (इसके ज़रिए से) ज़ालिमों को डराए और नेक लोगों के लिए ख़ुशख़बरी हो. [46:12]
मक्का के काफ़िर पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम पर जो आरोप लगाते थे और पवित्र कुरआन को अफ़साना बताते थे, पवित्र क़ुरआन के सूरए अहक़ाफ़ की 12वीं आयत उनके जवाब में कहती है कि इस किताब की सच्चाई की एक अलामत यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम का नाम और उनकी विशेषताओं का उल्लेख तौरैत में किया गया है और क़ुरआन की आयतें भी तौरैत की आयतों से समन्वित हैं और दोनों एक दूसरे की पुष्टि करती हैं और यह इस बात का सूचक है कि दोनों किताबों के नाज़िल होने का स्रोत एक है।
यद्यपि तौरैत हेब्रू भाषा में और क़ुरआन अरबी भाषा में है परंतु दोनों किताबों की जो बातें व आदेश हैं वे लोगों को सत्य और हक़ के रास्ते की ओर बुलाने पर केन्द्रित हैं। इसी प्रकार दोनों किताबों का उद्देश्य ज़ालिमों से मुक़ाबला करना, उन्हें चेतावनी देना और नेक काम करने वाले लोगों की कामयाबी की शुभसूचना देना है।
इस आयत से हमने सीखाः
आसमानी किताबों का नाज़िल होना पूरे इतिहास में इंसानों की हिदायत के लिए ईश्वरीय परम्परा रही है और आसमानी किताबें एक दूसरे की पुष्टि करती और एक दूसरे से समन्वित हैं और वे एक दूसरे का इंकार नहीं करतीं।
आसमानी किताब अल्लाह की रहमत की झलक है और वह समाज रहमते एलाही प्राप्त करेगा जो आसमानी किताब को अपना मार्गदर्शक क़रार देगा।
अल्लाह पर ईमान और दूसरों पर अत्याचार एक दूसरे से मेल नहीं खाते। उस ईमान का लाभ है जो भले कर्मों और दूसरों के साथ भलाई का कारण बने।
आइये अब सूरए अहक़ाफ़ की 13वीं और 14वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّ الَّذِينَ قَالُوا رَبُّنَا اللَّهُ ثُمَّ اسْتَقَامُوا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ (13) أُولَئِكَ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ خَالِدِينَ فِيهَا جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ (14)
इन आयतों का अनुवाद हैः
बेशक जिन लोगों ने कहा कि हमारा परवरदिगार ख़ुदा है फिर वह इस पर क़ायम रहे तो (क़यामत में) उनको न कुछ ख़ौफ़ होगा और न वह ग़मग़ीन होंगे. [46:13] यही तो अहले जन्नत हैं कि हमेशा उसमें रहेंगे (ये) उसका बदला है जो ये लोग (दुनिया में) किया करते थे. [46:14]
पवित्र क़ुरआन की ये आयतें वास्तविक और सच्चे मोमिनों की तस्वीरें पेश करती हैं और अल्लाह ने पैग़म्बरों और आसमानी किताबों को इस प्रकार के व्यक्तियों के प्रशिक्षण के लिए भेजा। ये आयतें कहती हैं अल्लाह पर ईमान रखने वालों ने कहा कि अल्लाह हमारा पालनहार है और इस बात पर वे जमे रहे। स्पष्ट है कि अल्लाह पर ईमान लाने के लिए केवल यह काफी नहीं है कि हम यह कह दें कि हम अल्लाह को मानते हैं और इसी प्रकार ज़बान से कुछ शब्दों दोहरा दें बल्कि उस तरह से अमल करें जिस तरह अल्लाह ने हमें हुक्म दिया है और इस रास्ते में साबित क़दम रहें न यह कि समस्या पेश आ जाने पर ईमान से हट जायें और अल्लाह के रास्ते को छोड़ दें और माल व दौलत संचित करने और अपनी इच्छाओं की पूर्ति में व्यस्त हो जायें।
विशेषकर उस ज़माने में जब गुनाहों और भ्रष्टाचार के लिए बहुत सारे अवसर उपलब्ध हैं, ईमान को सुरक्षित रखना कठिन काम है और यह उस पर जमे बिना संभव नहीं है। अलबत्ता अल्लाह दुनिया और आख़ेरत में सच्चे मोमिनों को फल देगा और उन्हें इसी दुनिया की ज़िन्दगी में शांति प्रदान करेगा। इस प्रकार के लोगों को भविष्य में होने वाली घटनाओं के प्रति न कोई भय होगा न दुःख व चिंता। इसके मुक़ाबले में बहुत से अमीर लोग हैं जिन्हें शारीरिक आराम है परंतु मन और आत्मा की दृष्टि से उन्हें शांति प्राप्त नहीं है और कभी अपनी चिंताओं को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार की दवायें और पेन-किलर खाते हैं कुछ तो मादक पदार्थ का सेवन भी करते हैं।
अल्लाह ने सच्चे मोमिनों को इस दुनिया में जो दिली और आत्मिक सुकून दिया है उसके अलावा आख़ेरत में उन्हें स्वर्ग में जगह देगा। स्वर्ग कितना बड़ा होगा इसे केवल समझाने के लिए अल्लाह ने कहा है कि उसकी केवल चौड़ाई आसमान और ज़मीन की लंबाई की भांति है। जन्नत में जाने वाले हमेशा-हमेशा उसमें रहेंगे और जन्नत की कभी भी समाप्त न होने वाली नेमतों से लाभांवित होंगे।
इन आयतों से हमने सीखाः
केवल ईमान का ज़ाहिर करना और एकेश्वरवाद को क़बूल करना काफ़ी नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण चीज़ उस रास्ते में साबित क़दम रहना है।
जो अल्लाह पर ईमान रखता है वह अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरता है।
अतीत पर उन लोगों को पछताना चाहिये जो ग़लती से ग़लत रास्ते पर चले गये थे परंतु जो लोग हमेशा हक़ के रास्ते पर चलते हैं वे अपने अतीत पर न तो पछतायेंगे और न ही दुःखी व क्षुब्ध होंगे।