Feb ०५, २०२५ १७:१७ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-943

सूरए अहक़ाफ़, आयतें 15-18

आइये सबसे पहले सूरे अहक़ाफ़ की 15वीं आयत की तिलावत सुनते हैं

 

وَوَصَّيْنَا الْإِنْسَانَ بِوَالِدَيْهِ إِحْسَانًا حَمَلَتْهُ أُمُّهُ كُرْهًا وَوَضَعَتْهُ كُرْهًا وَحَمْلُهُ وَفِصَالُهُ ثَلَاثُونَ شَهْرًا حَتَّى إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُ وَبَلَغَ أَرْبَعِينَ سَنَةً قَالَ رَبِّ أَوْزِعْنِي أَنْ أَشْكُرَ نِعْمَتَكَ الَّتِي أَنْعَمْتَ عَلَيَّ وَعَلَى وَالِدَيَّ وَأَنْ أَعْمَلَ صَالِحًا تَرْضَاهُ وَأَصْلِحْ لِي فِي ذُرِّيَّتِي إِنِّي تُبْتُ إِلَيْكَ وَإِنِّي مِنَ الْمُسْلِمِينَ (15)

इस आयत का अनुवाद है

 

और हमने इन्सान को अपने माँ बाप के साथ भलाई करने का हुक्म दिया (क्यों कि) उसकी माँ ने रंज ही की हालत में उसको पेट में रखा और रंज ही से उसको जन्म दिया और उसका पेट में रहना और उसको दूध बढ़ाई के तीस महीने हुए, यहाँ तक कि जब अपनी पूरी जवानी को पहुँचता और चालीस बरस (के सिन) को पहुँचता है तो (ख़ुदा से) अर्ज़ करता है कि परवरदिगार तू मुझे तौफ़ीक़ दे कि तूने जो एहसानात मुझ पर और मेरे मां-बाप पर किये हैं मैं उन एहसानों का शुक्रिया अदा करूँ और ये (भी तौफ़ीक़ दे) कि मैं ऐसा नेक काम करूँ जिसे तू पसन्द करे और मेरे लिए मेरी औलाद में नेकी व तक़वा पैदा करे तेरी तरफ़ पलटता हूँ और मैं यक़ीनन आज्ञाकारियों में हूँ। [46:15]

 

इस्लाम धर्म की एक विशेषता यह है कि उसने पारिवारिक मामलों पर ख़ास ध्यान दिया है। अतः पवित्र क़ुरआन की ध्यान योग्य आयतें और बहुत सी धार्मिक शिक्षाएं इस पर केन्द्रित हैं। विवाह करने और परिवार गठन की ताकीद, परिवार में पति-पत्नी के बीच प्रेम और एक दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार, संतान पैदा करना और उसकी सही तरबियत, पारिवारिक मतभेदों का शांतिपूर्ण ढंग से समाधान और ज़रूरी हो जाने पर तलाक़ और एक दूसरे से अलग होना वे सामाजिक व पारिवारिक विषय हैं जिनका पवित्र कुरआन की विभिन्न आयतों में उल्लेख हुआ है।

सूरए अहक़ाफ़ की 15वीं आयत अल्लाह के उस आदेश से आरंभ होती है जिसमें उसने समस्त इंसानों को संबोधित किया है, चाहे वे इंसान मोमिन हों या ग़ैर मोमिन। इस आयत में उन कठिनाइयों के एक भाग की ओर संकेत किया गया है जिन्हें बच्चों की तरबियत में माता-पिता ने उठाया है ताकि बच्चे उनके सामने विनम्र और उनकी ज़हमतों के आभारी रहें।

खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज की दुनिया में सीमा से अधिक व्यक्तिवाद पर बल दिया जा रहा है और विवाह और परिवार गठन की दर दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। जो लोग विवाह भी करते हैं वे संतान नहीं या कम पैदा करते हैं और इस प्रक्रिया के जारी रहने से विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि की दर कम होती जा रही है। इसी प्रकार संतान कम पैदा करने की वजह से विकसित देशों के समाजों की जनसंख्या बूढ़ी होती जा रही है।

इस्लामी संस्कृति के अनुसार जो इंसान 40 साल की उम्र तक पहुंच गया है वह वास्तव में शारीरिक और अक़्ली दृष्टि से संपूर्णता के दर्जे तक पहुंच गया है और आमतौर पर इस प्रकार के व्यक्ति के पास परिवार और संतान होती है मगर इन चीज़ों की वजह से इंसान को अपने माता-पिता से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये बल्कि उसे पहले से अधिक माता-पिता के साथ भलाई करना चाहिये।

स्पष्ट है कि भलाई, दूसरों पर ख़र्च करने से अधिक व्यापक दायरा रखती है और उसमें केवल माली सहायता शामिल नहीं होती है। क्योंकि कभी ऐसा होता है कि माता-पिता को माली ज़रूरत नहीं होती है परंतु वे अपने बच्चों के प्रेम और तवज्जो के भूखे होते हैं। इसी प्रकार बूढ़े होने की वजह से मां-बाप को निगरानी की ज़रूरत हो सकती है और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें उपचार की आवश्यकता हो सकती है। नेकी और भलाई के शब्दों में ये समस्त बातें शामिल होती हैं।

तो इंसान को अपने बीवी- बच्चों पर ध्यान देने की वजह से अपने माता-पिता से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये। इसलिए सूरए अहक़ाफ़ की 15वीं आयत में आगे अल्लाह ने संतान के नेक होने की ओर संकेत किया है। औलाद को चाहिये कि वे अपने मां-बाप के लिए अल्लाह से दुआ करें और कहें कि पालने वाले हमारे मां-बाप पर रहम कर जिस तरह उन्होंने बचपन में मुझ पर रहम किया।

 

इस आयत से हमने सीखाः

अपने बच्चों पर हर मां-बाप का एक अधिकार यह है कि वे हमेशा और पूरी ज़िन्दगी अपने मां-बाप के साथ भलाई और नेकी करें और यह भलाई सीमित समय के लिए या अस्थाई नहीं होनी चाहिये।

मां-बाप के साथ भलाई करने के लिए उनका मुसलमान होना शर्त नहीं है, इस्लाम की इस शिक्षा का आधार इंसानियत है ईमान नहीं।

यद्यपि मां-बाप दोनों के साथ भलाई करना चाहिये मगर मां पर अधिक ध्यान देना चाहिये क्योंकि उसने बच्चे को अपने पेट में पाला, पैदा किया और दूध पिलाया और इसी प्रकार उसने बच्चे को पालने के लिए बहुत कठिनाइयां उठायीं।

मांओं ने जो कठिनाइयां उठायी हैं उनकी याद बच्चों के अंदर इंसानी भावनाओं को जगाने में प्रभावी हैं।

मां-बाप के लिए दुआ और उनकी सेवा करना और अपने बच्चों की प्रशिक्षा के लिए दुआ करना इंसानों के लिए ईश्वरीय आदेश है।

 

आइये अब सूरे अहक़ाफ़ की 16वीं आयत की तिलावत सुनते हैं 

أُولَئِكَ الَّذِينَ نَتَقَبَّلُ عَنْهُمْ أَحْسَنَ مَا عَمِلُوا وَنَتَجاوَزُ عَنْ سَيِّئَاتِهِمْ فِي أَصْحَابِ الْجَنَّةِ وَعْدَ الصِّدْقِ الَّذِي كَانُوا يُوعَدُونَ (16)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

 

यही वे लोग हैं जिनके नेक अमल हम क़ुबूल फ़रमाएँगे और बहिश्त वालों में उनके गुनाहों से दरग़ुज़र करेंगे (ये वह) सच्चा वादा है जो उन से किया जाता था। [46:16]

पिछली आयत में मां-बाप और संतान के संबंध में अल्लाह की सिफारिश की ओर संकेत किया गया। इस आयत ने उन लोगों के प्रतिदान को बयान किया है जिन्होंने अल्लाह की सिफ़ारिशों को अपना आदर्श क़रार दिया। अल्लाह ने वादा किया है कि वह अच्छे और नेक लोगों को स्वर्ग प्रदान करेगा और अल्लाह से कौन अपने वादे में अधिक सच्चा है जो वादा उसने किया है? अलबत्ता स्वर्ग में जाने की शर्त यह है कि इंसान गुनाहों से पाक हो। अतः अल्लाह अच्छे लोगों की ग़लतियों को नज़रअंदाज़ कर देगा और उनके अच्छे कार्यों को उच्चतम ढंग से स्वीकार करेगा। यह नेक लोगों के प्रति अल्लाह का बहुत बड़ा प्रतिदान है कि वह एक नेक काम के बदले कई प्रतिदान अता करेगा।

इस आयत से हमने सीखाः

किसी अमल का मूल्य उसका क़बूल हो जाना है केवल उसे अंजाम देना नहीं। निश्चित रूप से जो अमल अल्लाह की बारगाह में क़बूल होता है उसकी शर्त यह है कि सही तरह से उसे अंजाम दिया गया हो।

मां-बाप के साथ नेकी अच्छे कार्यों के क़बूल होने और अल्लाह द्वारा माफ़ किये जाने की भूमिका है।

जो कोई भी मां- बाप विशेषकर मां की सेवा करे, वास्तव में उसने स्वर्ग में जाने का मार्ग प्रशस्त कर लिया है।

आइये अब सूरए अहक़ाफ़ की 17वीं और 18वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,

 

وَالَّذِي قَالَ لِوَالِدَيْهِ أُفٍّ لَكُمَا أَتَعِدَانِنِي أَنْ أُخْرَجَ وَقَدْ خَلَتِ الْقُرُونُ مِنْ قَبْلِي وَهُمَا يَسْتَغِيثَانِ اللَّهَ وَيْلَكَ آَمِنْ إِنَّ وَعْدَ اللَّهِ حَقٌّ فَيَقُولُ مَا هَذَا إِلَّا أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ (17) أُولَئِكَ الَّذِينَ حَقَّ عَلَيْهِمُ الْقَوْلُ فِي أُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِمْ مِنَ الْجِنِّ وَالْإِنْسِ إِنَّهُمْ كَانُوا خَاسِرِينَ (18)

  

इन आयतों का अनुवाद है :

 

और जिसने अपने माँ बाप से कहा कि तुम्हारा बुरा हो, क्या तुम मुझे धमकी देते हो कि मैं दोबारा (क़ब्र से) निकाला जाऊँगा हालॉकि बहुत से लोग मुझसे पहले गुज़र चुके (और कोई ज़िन्दा न हुआ) और दोनों फ़रियाद कर रहे थे कि तुझ पर वाए हो ईमान ले आ! ख़ुदा का वादा ज़रूर सच्चा है तो वह बोल उठा कि ये तो बस अगले लोगों के अफ़साने हैं। [46:17] ये वही लोग हैं कि जिन्नात और इंसानों की (दूसरी) उम्मतें जो उनसे पहले गुज़र चुकी हैं उन ही के साथ ही उन पर भी अज़ाब का वादा पूरा हो चुका है ये लोग बेशक घाटा उठाने वाले थे। [46:18]

 

अच्छी औलाद मां-बाप की ज़हमतों की क़द्र करती है, इसके मुकाबले में नालायक़ औलाद है जो बहुत से परिवारों में होती है और वह मां-बाप की समस्या और उनकी अप्रसन्नता का कारण होती है। नालायक़ औलाद अपने दुर्व्यवहार से मां-बाप को कष्ट देती है। वह न केवल मां-बाप के अधिकारों पर ध्यान नहीं देती है बल्कि मां-बाप की सही बात भी नहीं सुनती है। मां-बाप जब अल्लाह की उपासना के लिए अपनी नालायक़ औलाद से कहते हैं तो वह उनका मज़ाक़ उड़ाती है और पैग़म्बरों के वादों को झूठा बताती है।

स्वाभाविक है कि इस प्रकार की नालायक़ औलाद का शुमार और अंजाम अतीत में गुनाहकारों और ज़ालिमों जैसा होगा। वे अल्लाह के दंड के पात्र हैं और बुरा अंजाम उनकी प्रतीक्षा में है और उनके पास उससे फ़रार का कोई रास्ता नहीं है।

इन आयतों से हमने सीखाः

कुछ औलादें नालायक़ निकल जाती हैं और वे हक़ व सत्य के रास्ते से गुमराह हो जाती हैं मगर मां-बाप के लिए मुनासिब नहीं है कि उन्हें छोड़ दें और उन पर लानत भेजें बल्कि उन्हें चाहिये कि अपनी औलाद के लिए दुआ करें और उनके हक़ के रास्ते पर आने के लिए प्रयास करते रहें।

अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन मां-बाप की ज़िम्मेदारी है। मां-बाप को चाहिये कि उनकी धार्मिक और आध्यात्मिक तरबियत के लिए प्रयास करते रहें चाहे उनके प्रयास का सकारात्मक नतीजा न निकले।

जो अल्लाह और क़यामत की अनदेखी कर देता है वह मां- बाप के अधिकारों का ख़याल नहीं रखता और उनकी  अनदेखी कर देता है। यह भी आशंका है कि वे मां-बाप के मुकाबले में खड़े हो जायें।