Feb ०५, २०२५ १७:३८ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-946

सूरए अहक़ाफ़, आयतें 29-35

आइये पहले सूरए अहक़ाफ़ की 29वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

وَإِذْ صَرَفْنَا إِلَيْكَ نَفَرًا مِنَ الْجِنِّ يَسْتَمِعُونَ الْقُرْآَنَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوا أَنْصِتُوا فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوْا إِلَى قَوْمِهِمْ مُنْذِرِينَ (29)

इस आयत का अनुवाद हैः

और जब हमने जिन्नातों में से कई को तुम्हारी तरफ़ मुतावज्जे किया कि वे दिल लगाकर क़ुरान सुनें तो जब उनके पास हाज़िर हुए तो एक दुसरे से कहने लगे ख़ामोश बैठे (सुनते) रहो फिर जब (पढ़ना) तमाम हुआ तो अपनी क़ौम की तरफ़ वापस गए कि (उनको अज़ाब से) डराएं।  [46:29]

पिछले कार्यक्रम में मक्का के मुशरिकों को संबोंधित किया गया था जो बहानेबाज़ी और हठधर्मिता के कारण ईमान लाने के लिए तैयार नहीं थे। यह आयत भी कहती है कि यद्यपि तुम ईमान नहीं लाये मगर कुछ जिन्नातों ने जब क़ुरआन की आयतों को सुना तो वे पैग़म्बर पर ईमान लाये। इन जिनों के अस्तित्व पर तुम विश्वास रखते हो और तुम्हारा मानना है कि ज़िन्दगी के कामों में उनकी भूमिका है और इन जिनों ने इस्लाम स्वीकार करने के बाद दूसरों को भी इस्लाम की दावत दी।

जिन्नातों का नाम उन विषयों में से है जिनका पवित्र क़ुरआन में स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया गया है। पवित्र क़ुरआन के एक सूरे का नाम जिन है और उनके मध्य भी दो प्रकार के जिनों की ओर इशारा किया गया है। कुछ जिन ऐसे हैं जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान रखते हैं। उनमें भी कुछ मोमिन और कुछ काफ़िर हैं।

इन आयतों से हमने सीखाः

जिन्नात भी इंसान की तरह अल्लाह की एक मख़लूक़ हैं उनके पास भी अक़्ल और एहसास है और वे भी इंसान की भांति अच्छाई और बुराई के चयन में आज़ाद हैं।

केवल ईमान का क़बूल कर लेना काफ़ी नहीं है। दूसरों को भी हक़ के रास्ते की ओर बुलाना ज़रूरी है।

आइये अब सूरए अहक़ाफ़ की 30वीं से लेकर 32वीं तक की आयतों की तिलावत सुनते हैं,

قَالُوا يَا قَوْمَنَا إِنَّا سَمِعْنَا كِتَابًا أُنْزِلَ مِنْ بَعْدِ مُوسَى مُصَدِّقًا لِمَا بَيْنَ يَدَيْهِ يَهْدِي إِلَى الْحَقِّ وَإِلَى طَرِيقٍ مُسْتَقِيمٍ (30) يَا قَوْمَنَا أَجِيبُوا دَاعِيَ اللَّهِ وَآَمِنُوا بِهِ يَغْفِرْ لَكُمْ مِنْ ذُنُوبِكُمْ وَيُجِرْكُمْ مِنْ عَذَابٍ أَلِيمٍ (31) وَمَنْ لَا يُجِبْ دَاعِيَ اللَّهِ فَلَيْسَ بِمُعْجِزٍ فِي الْأَرْضِ وَلَيْسَ لَهُ مِنْ دُونِهِ أَولِيَاءُ أُولَئِكَ فِي ضَلَالٍ مُبِينٍ (32)

इन आयतों का अनुवाद हैः

तो उन से कहना शुरू किया कि ऐ भाइयों हम एक किताब सुन आए हैं जो मूसा के बाद नाज़िल हुई है (और) जो किताबें, पहले (नाज़िल हुयीं) हैं उनकी तसदीक़ करती हैं सच्चे (दीन) और सीधी राह की हिदायत करती हैं। [46:30]  ऐ हमारी क़ौम ख़ुदा की तरफ़ बुलाने वाले की बात मानो और ख़ुदा पर ईमान लाओ वह तुम्हारे गुनाह बख़्श देगा और (क़यामत) में तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से पनाह में रखेगा। [46:31]  और जिसने ख़ुदा की तरफ़ बुलाने वाले की बात न मानी तो (याद रहे कि) वह (ख़ुदा को) ज़मीन में बेबस नहीं कर सकता और न उस के सिवा कोई सरपरस्त होगा यही लोग गुमराही में हैं।  [46:32]

यह आयतें कहती हैं कि जब मोमिन जिन्नात अपनी क़ौम की ओर पलट कर गये तो उन्होंने अपनी क़ौम का इस प्रकार मार्गदर्शन किया कि जिस अल्लाह ने मूसा को किताब के साथ भेजा था उसी अल्लाह ने अब दूसरे पैग़म्बर को क़ुरआन नाम की एक अन्य किताब के साथ भेजा है। आज हमने इस किताब की आयतों को सुना है और उसे मूसा की किताब की भांति पाया जो लोगों को हक़ की दावत देती थी और जो भी लोगों को हक़ की ओर बुलाने वाले इस पैग़म्बर पर ईमान लायेगा, गुनाहों और भ्रष्टाचार से दूरी करेगा वह अल्लाह के अज़ाब से सुरक्षित रहेगा मगर जो ईमान न लाये और हठधर्मिता करे तो उसे जान लेना चाहिये कि वह अल्लाह के इरादे के मुक़ाबले में टिक नहीं सकता और उसके अज़ाब से नहीं बच सकता क्योंकि अल्लाह के अलावा कोई भी अल्लाह के कड़े अज़ाब के मुक़ाबले में इंसान की मदद नहीं कर सकता।

इन आयतों से हमने सीखाः

 जिन्नात भी अतीत के पैग़म्बरों के इतिहास और उनकी किताबों में बयान की गयी बातों से अवगत हैं। उनमें भी कुछ मोमिन हैं कुछ काफ़िर हैं।

हक़ का रास्ता वही सीधा रास्ता है। वही रास्ता जो इंसान को हर प्रकार के अतिवाद और अंधविश्वास से बचाता है और न्याय के आधार पर इंसान का मार्गदर्शन करता है।

 पैग़म्बर इंसानों को अल्लाह की ओर बुलाते हैं न कि अपनी ओर। वे जिन आदेशों को बयान करते हैं उन पर अमल करके इंसान कमाल के शिखर पर पहुंच सकता है।

क़ुफ्र और अल्लाह का इंकार करने का अंजाम यह होता है कि इंसान बंद गली में पहुंच जाता है। ऐसी बंद गली जिससे न तो इंसान भाग सकता है और न ही दूसरे उससे भाग सकते हैं।

आइये अब सूरए अहक़ाफ़ की 33वीं और 34वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,

أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّ اللَّهَ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَلَمْ يَعْيَ بِخَلْقِهِنَّ بِقَادِرٍ عَلَى أَنْ يُحْيِيَ الْمَوْتَى بَلَى إِنَّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ (33) وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِينَ كَفَرُوا عَلَى النَّارِ أَلَيْسَ هَذَا بِالْحَقِّ قَالُوا بَلَى وَرَبِّنَا قَالَ فَذُوقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُونَ (34)

इन आयतों का अनुवाद हैः

क्या इन लोगों ने ये ग़ौर नहीं किया कि जिस ख़ुदा ने सारे आसमान और ज़मीन को पैदा किया और उनके पैदा करने से ज़रा भी थका नहीं वह इस बात पर क़ादिर है कि मुर्दो को ज़िन्दा करेगा हाँ (ज़रूर) वह हर चीज़ पर क़ादिर है। [46:33] जिस दिन कुफ्फ़ार (जहन्नुम की) आग के सामने पेश किए जाएँगे (तो उन से पूछा जाएगा) क्या अब भी ये बरहक़ नहीं है वह लोग कहेंगे अपने परवरदिगार की क़सम हाँ (हक़ है) ख़ुदा फ़रमाएगा तो लो अब अपने इन्कार व कुफ्र के बदले अज़ाब के मज़े चखो। [46:34]

 

ये आयतें सूरे अहक़ाफ़ के अंत में आयी हैं और इनमें एक बार फ़िर क़यामत के विषय का वर्णन किया गया है और ये आयतें मुश्रिकों को संबोधित करते हुए कहती हैं हां जिस अल्लाह ने आसमान और ज़मीन को पैदा किया है वह उनके पैदा करने से थका नहीं है वह अल्लाह मुर्दों को ज़िन्दा करने में पूर्णरूप से सक्षम है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस विशालकाय ब्रह्मांड में विभिन्न प्रकार की जानदार चीज़ें मौजूद हैं जो इस बात की सुबूत हैं कि अल्लाह हर काम करने में पूर्णरूप से सक्षम है। यह किस तरह संभव है कि इस प्रकार का अल्लाह इंसान को दोबारा ज़िन्दा करने में सक्षम न हो?

यह प्रलय व क़यामत के संभव होने की स्पष्ट दलील है। तो जो लोग क़यामत पर ईमान नहीं ला रहे हैं उसका यह कारण नहीं है कि अल्लाह मुर्दों को ज़िन्दा करने में सक्षम नहीं है बल्कि जो लोग क़यामत पर ईमान नहीं ला रहे हैं उसका मुख्य और अस्ल कारण यह है कि वे अपनी ग़लत आंतरिक इच्छाओं का पालन करना चाहते और क़यामत पर ईमान रखने के परिणामों से बचना चाहते हैं जबकि क़यामत का इंकार करने वाले जब क़यामत के दिन जहन्नम की आग के शोलों को भड़कते हुए देखेंगे तो उसे क़बूल करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं होगा और उसकी हक़्क़ानियत को क़बूल करेंगे मगर उस वक्त क़यामत को क़बूल करने का कोई फ़ायदा नहीं होगा क्योंकि उस समय किसी को भी दोबारा दुनिया में वापस नहीं भेजा जायेगा।

इन आयतों से हमने सीखाः  

अल्लाह की ताक़त व क़ुदरत असीमित है। समूचे ब्रह्मांड को पैदा करने  में अल्लाह की क़ुदरत, क़यामत में इंसान के दोबारा ज़िन्दा होने के संभव होने का स्पष्ट प्रमाण व दलील है।

क़यामत के दिन काफ़िर और मुश्रिक भी हक़ व सच बात करने लगेंगे। वे भी अल्लाह के पालनहार होने, क़यामत के दिन के हक़ होने और अल्लाह के दंड और प्रतिफ़ल को क़बूल करेंगे परंतु उस  वक्त इन बातों के क़बूल करने का कोई उनके लिए कोई फायदा नहीं होगा।

आइये अब सूरए अहक़ाफ़ की 35वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।

فَاصْبِرْ كَمَا صَبَرَ أُولُو الْعَزْمِ مِنَ الرُّسُلِ وَلَا تَسْتَعْجِلْ لَهُمْ كَأَنَّهُمْ يَوْمَ يَرَوْنَ مَا يُوعَدُونَ لَمْ يَلْبَثُوا إِلَّا سَاعَةً مِنْ نَهَارٍ بَلَاغٌ فَهَلْ يُهْلَكُ إِلَّا الْقَوْمُ الْفَاسِقُونَ (35)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

तो (ऐ रसूल) पैग़म्बरों में से जिस तरह अव्वलुल अज्म (आली हिम्मत), सब्र करते रहे तुम भी सब्र करो और उनके लिए (अज़ाब) की ताज़ील की ख्वाहिश न करो जिस दिन यह लोग उस कयामत को देखेंगे जिसको उनसे वायदा किया जाता है तो (उनको मालूम होगा कि) गोया ये लोग (दुनिया में) बहुत रहे होगें तो सारे दिन में से एक घड़ी भर तो बस वही लोग हलाक होंगे जो बदकार थे। [46:35]

 यह सूरे अहक़ाफ़ की आख़िरी आयत है। इस आयत में अल्लाह पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता है काफिर व मुश्रिक जो अज़ीयत व कष्ट दे रहे हैं उस पर धैर्य कीजिये और उन पर अज़ाब नाज़िल होने में जल्दी न कीजिये क्योंकि अल्लाह क़यामत के दिन उन्हें उनके बुरे कर्मों की सज़ा देगा। आपकी ज़िम्मेदारी लोगों तक हमारे संदेश को पहुंचा देना है और उसके नतीजे की ज़िम्मेदारी आपकी नहीं है चाहे वे ईमान लायें या काफ़िर हो जायें। उनका हिसाब- किताब अल्लाह के साथ है। यह आयत दुनिया की उम्र के कम होने की ओर संकेत करती है।

आख़ेरत की हमेशा की ज़िन्दगी के मुक़ाबले में इस दुनिया की ज़िन्दगी इतनी छोटी व थोड़ी होगी कि लोग यह एहसास करेंगे कि दुनिया में एक घंटे के अलावा कुछ नहीं थे। उस वक्त उन्हें बहुत दुःख होगा और बड़ी हसरत करेंगे कि क्यों उन्होंने सत्य व हक़ के मार्ग का चयन नहीं किया। मगर इस अफ़सोस व हसरत का कोई फाएदा नहीं होगा क्योंकि उस समय उसकी भरपाई का कोई मार्ग नहीं होगा।

इस आयत से हमने सीखाः  

पैग़म्बरों की ज़िम्मेदारी अल्लाह के आदेशों को पहुंचाना है और अल्लाह पर ईमान लाने के लिए उन्हें लोगों को मजबूर करने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार पैग़म्बरों को काफ़िरों को दंडित करने का भी अधिकार नहीं है। 

विरोधियों व दुश्मनों द्वारा पहुंचाये जाने वाले कष्टों को बर्दाश्त करना पैग़म्बरों की एक विशेषता है और पैग़म्बरों के अनुयाइयों को भी इसी प्रकार होना चाहिये।

अल्लाह की एक परम्परा काफ़िरों और गुनहकारों को मोहलत देना है।

आख़ेरत के मुक़ाबले में दुनिया की उम्र बहुत ही कम है मानो एक दिन का एक घंटा है।

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