Feb ०९, २०२५ १७:३० Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-950

सूरए मुहम्मद, आयतें 18-20

आइये सबसे पहले सूरे मोहम्मद की 18वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

فَهَلْ يَنْظُرُونَ إِلَّا السَّاعَةَ أَنْ تَأْتِيَهُمْ بَغْتَةً فَقَدْ جَاءَ أَشْرَاطُهَا فَأَنَّى لَهُمْ إِذَا جَاءَتْهُمْ ذِكْرَاهُمْ (18)

इस आयत का अनुवाद हैः

तो क्या ये लोग बस क़यामत ही के मुनतज़िर हैं कि उन पर अचानक आ जाए जबकि उसकी निशानियाँ आ चुकी हैं तो जिस वक़्त क़यामत उन (के सर) पर आ पहुँचेगी फिर उनका नसीहत हासिल करना कहाँ मुफीद हो सकता है। [47:18]

इससे पहले वाले कार्यक्रम में उन लोगों की ओर संकेत किया गया जो ईश्वरीय पैग़म्बरों के साथ मज़ाक उड़ाने, गिरी हुई नज़र से देखने और हठधर्मिता की भावना के साथ व्यवहार करते थे। यह आयत क़यामत का इंकार करने वाले कुछ उन लोगों के बारे में है जो कहते हैं कि जब तक क़यामत को अपनी आंखों से नहीं देख लेंगे तब तक उस पर ईमान नहीं लायेंगे। जबकि क़यामत का होना संभव है और इसकी स्पष्ट दलीलें भी मौजूद हैं। अगर वे लोग हक़ को स्वीकार करने के लिए तैयार होते तो क़यामत को अपनी आंखों से देखने से पहले अक़्ली दलीलों के आधार पर ईमान लाते और अगर अभी वे ईमान नहीं ला रहे हैं तो जब क़यामत को अपनी आंखों से देखेंगे तो उस वक़्त ईमान लाने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी बीमार इंसान को देखने के बाद डाक्टर उसके लिए दवा का नुस्ख़ा लिख दे मगर बीमार इंसान यह कहे कि जब तक मौत को नहीं देख लूंगा तब तक मैं न तो इस बात को स्वीकार करूंगा कि मैं बीमार हूं और न ही इस बात को क़बूल करूंगा कि मुझे इलाज के लिए दवा की ज़रूरत है। स्पष्ट है कि जब इंसान मरने लगेगा तो उस वक़्त यह क़बूल करने का क्या फ़ायदा है कि मैं बीमार हूं और मुझे इलाज की ज़रूरत है। उस वक़्त पछताने और हाथ मलने का कोई फ़ायदा नहीं है।

इस आयत से हमने सीखाः

काफ़िर और क़यामत का इंकार करने वाले हठधर्मिता की वजह से तौबा करने के अवसर से लाभ नहीं उठा रहे हैं वास्तव में ये लोग महान ईश्वर द्वारा प्रदान किये गये अवसर से लाभ नहीं उठा रहे हैं।

क़यामत के होने की बहुत दलीलें और प्रमाण मौजूद हैं परंतु उस इंसान के लिए जो हक़ को स्वीकार करने के लिए तैयार हो।

आइये अब सूरे मोहम्मद की 19वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

فَاعْلَمْ أَنَّهُ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ وَاسْتَغْفِرْ لِذَنْبِكَ وَلِلْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مُتَقَلَّبَكُمْ وَمَثْوَاكُمْ (19)

इस आयत का अनुवाद हैः

तो फिर समझ लो कि ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं और (हम से) अपने और ईमान वाले मर्दों और ईमान वाली औरतों के गुनाहों की माफ़ी मांगते रहो और ख़ुदा तुम्हारे चलने फिरने और ठहरने से (ख़ूब) वाक़िफ़ है। [47:19]

काफ़िरों की हठधर्मिता के मुक़ाबले में महान ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता है कि आप भी अपने रास्ते पर मज़बूती से डट जाइये और जान लीजिये कि इस दुनिया में एक ईश्वर के इरादे के अलावा किसी इरादे का कोई प्रभावी नहीं है और कोई भी ईश्वर को मजबूर नहीं कर सकता तो हर हालत में उसकी शरण में आइये और उस पर भरोसा कीजिये और दुश्मनों की अधिक संख्या से मत डरिये।

यह आयत आगे इस बात पर बल देती है कि ईमान वाले लोगों को तक़वे का ध्यान रखना चाहिये और अगर कहीं कोई कमी रह गयी है तो महान ईश्वर से तौबा करें।

पैग़म्बरे इस्लाम भी अपने लिए और दूसरे मोमिनीन के लिए क्षमा याचना करते हैं। स्पष्ट है कि समस्त पैग़म्बर हर प्रकार के पाप व गुनाह से पाक हैं और इस्तेग़फ़ार से तात्पर्य गुनाहों से तौबा करना नहीं है बल्कि महान ईश्वर की इच्छा के मुक़ाबले में नतमस्क होने की भावना है कि महान ईश्वर की बारगाह में इंसान स्वयं को हमेशा दोषी व मुक़स्सिर समझता है। क्योंकि रिसालत व पैग़म्बरी एक भारी दायित्व है जिसे महान ईश्वर ने पैग़म्बरों के कांधों पर डाला है। उन्हें हमेशा इस बात का आभास करना चाहिये कि जो ज़िम्मेदारी व दायित्व महान ईश्वर ने उन्हें सौंपा है उसे सही तरह से अंजाम नहीं दिया है ताकि कभी प्रयास करने से पीछे न हटें और अपने अमल से न राज़ी रहें और न उसे काफ़ी समझें। इस आधार पर न केवल पैग़म्बरे इस्लाम बल्कि अतीत के दूसरे व सारे पैग़म्बरों के बारे में भी क्षमा याचना की बात थी।

इस आयत से हमने सीखाः

सारी कथनी और करनी का आधार एकेश्वरवाद होना चाहिये ताकि हम दुनिया की ख़ोखली शक्तियों पर भरोसा न करें और न ही उनसे डरें।

ईमानदार महिलायें और पुरूष पैग़म्बरे इस्लाम की क्षमा याचना में शामिल हैं और पैग़म्बरे इस्लाम लोगों के मार्गदर्शन के अलावा उनकी आत्मिक पवित्रता के लिए महान ईश्वर से मदद मांगते हैं।

पैग़म्बर भी दूसरे इंसानों की भांति इंसान होते हैं और उन्हें भी उन्हीं चीज़ों का सामना करना पड़ता है जिनका सामना इंसानों को करना पड़ता है।

आइये अब सूरे मोहम्मद की 20वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

وَيَقُولُ الَّذِينَ آَمَنُوا لَوْلَا نُزِّلَتْ سُورَةٌ فَإِذَا أُنْزِلَتْ سُورَةٌ مُحْكَمَةٌ وَذُكِرَ فِيهَا الْقِتَالُ رَأَيْتَ الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمْ مَرَضٌ يَنْظُرُونَ إِلَيْكَ نَظَرَ الْمَغْشِيِّ عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِ فَأَوْلَى لَهُمْ (20)

 इस आयत का अनुवाद हैः

और मोमिनीन कहते हैं कि (जेहाद के बारे में) कोई सूरा क्यों नहीं नाज़िल होता लेकिन जब कोई साफ़ शब्दों में सूरा नाज़िल हुआ और उसमें जेहाद का बयान हो तो जिन लोगों के दिल में (नेफ़ाक़ का) मर्ज़ है तुम उनको देखोगे कि तुम्हारी तरफ़ इस तरह देखते हैं जैसे किसी पर मौत की बेहोशी (छायी) हो (कि उसकी ऑंखें पथरा जाएं) तो उन पर वाए हो। [47:20]

यह आयत इस्लाम के आरंभिक काल में मुसलमानों के कठिन हालात की ओर संकेत करती और कहती है कि दुश्मनों का दबाव इस प्रकार था कि मोमिनीन पैग़म्बरे इस्लाम से जंग व जेहाद की अनुमति मांगते और कहते थे कि क्यों कोई आयत नाज़िल नहीं होती जिसमें उन्हें जेहाद की अनुमति दी जाती मगर जब कुछ सूरे नाज़िल हुए और उन्हें दुश्मनों से मुक़ाबले का आदेश दिया गया तो कुछ वे मुसलमान पीछे हट गये जब जेहाद और मुक़ाबले की बात करते थे और डर व भय की वजह से वे आगे बढ़ने से रुक गये मगर जो वास्तविक व सच्चे मोमिन थे वे अपनी ज़िन्दगी के अंतिम क्षणों तक डटे रहे और महान ईश्वर की राह में शहीद होने के लिए पूरी तरह तैयार थे परंतु जो दिल के बीमार और मुनाफ़िक़ थे डर और भय का उन पर इतना प्रभाव था जैसे जंग होने से पहले ही उनका प्राण निकल जायेगा।

इस आयत से हमने सीखाः  

संभव है कि बहुत से लोग दावा करते हों मगर अमल के वक़्त और रणक्षेत्र में उनके दावे की वास्तविकता सिद्ध हो जाती है और मोमिन और मुनाफ़िक़ एक दूसरे से पहचाने जाते हैं। 

यद्यपि इस्लाम दया व कृपा का धर्म है पर इसके साथ ही वह ज़ालिमों और अत्याचारियों के मुक़ाबले में जेहाद की बात करता और उससे मुक़ाबले का आदेश देता है।

जेहाद से डर और रणक्षेत्र को छोड़कर भागना ईमान में कमज़ोरी और आंतरिक नेफ़ाक़ का चिन्ह है।