क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-951
सूरए मुहम्मद, आयतें 21-24
आइए सबसे पहले सूरए मोहम्मद की 21वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
طَاعَةٌ وَقَوْلٌ مَعْرُوفٌ فَإِذَا عَزَمَ الْأَمْرُ فَلَوْ صَدَقُوا اللَّهَ لَكَانَ خَيْرًا لَهُمْ (21)
इस आयत का अनुवाद हैः
(उनके लिए अच्छा काम तो) फरमाबरदारी और पसन्दीदा बात है फिर जब लड़ाई ठन जाए तो अगर ये लोग ख़ुदा से सच्चे रहें तो उनके हक़ में बहुत बेहतर है। [47:21]
पिछले कार्यक्रम में कमज़ोर ईमान वालों और उन मुनाफ़िक़ों की ओर संकेत किया गया जो ज़बान से इस बात का आह्वान करते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम जेहाद करने का आदेश दें मगर जब अल्लाह की ओर से वह आयत नाज़िल हुई जिसमें जेहाद का आदेश दिया गया था तो विभिन्न बहानों से वे जेहाद से भागने लगे। यह आयत उन लोगों को संबोधित करते हुए कहती है कि ईमान का तक़ाज़ा यह है कि अल्लाह और उसके रसूल के आदेश का पालन किया जाये और असंतुलित बात करने और अतार्किक बहाना करने से परहेज़ किया जाये। क्योंकि तुम्हारी बातें मोमिनों की भावना के कमज़ोर होने का कारण बनती हैं और उन्हें दुश्मनों से मुक़ाबले के मैदान में उपस्थित होने से रोकती हैं। यह आयत आगे कहती है कि अगर यह कमज़ोर ईमान वाला गिरोह अपने दावे में सच्चा होता तो मैदाने जेहाद में हाज़िर होता क्योंकि दुनिया में उसकी इज़्ज़त और आख़ेरत में सवाब का कारण बनता।
इस आयत से हमने सीखाः
ईमान का तक़ाज़ा अच्छी बात करना और अल्लाह के आदेशों के अनुसार अमल करना है। न यह कि जो चाहें कहें और जिस तरह से हमारा दिल कहे अमल करें।
दुश्मनों से जेहाद करना अल्लाह का आदेश है। उसे अंजाम देने में सच्चा होना चाहिये और उसे अंजाम देने में बहाना करने से परहेज़ करना चाहिये। क्योंकि यह इंसान के फ़ायदे में है।
आइये अब सूरए मोहम्मद की 22वीं और 23वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
فَهَلْ عَسَيْتُمْ إِنْ تَوَلَّيْتُمْ أَنْ تُفْسِدُوا فِي الْأَرْضِ وَتُقَطِّعُوا أَرْحَامَكُمْ (22) أُولَئِكَ الَّذِينَ لَعَنَهُمُ اللَّهُ فَأَصَمَّهُمْ وَأَعْمَى أَبْصَارَهُمْ (23)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(मुनाफ़िक़ो) क्या तुमसे कुछ दूर है कि अगर तुम हाकिम बनो तो ज़मीन में फ़साद फैलाने और अपने रिश्ते नातों को तोड़ने लगो ये वही लोग हैं जिन पर ख़ुदा ने लानत की है। [47:22] और (गोया ख़ुद उसने) उन (के कानों) को बहरा और आंखों को अंधा कर दिया है। [47:23]
ये आयतें कमज़ोर ईमान वालों को संबोधित करते हुए कहती हैं कि अगर जेहाद के बारे में अल्लाह के आदेश से मुंह मोड़ लोगे तो मुशरेकीन तुम पर हावी हो जायेंगे और तुम अज्ञानता के ज़माने की रस्मों की तरफ़ पलट जाओगे। ऐसी परम्पराएं जो समाज में भ्रष्टाचार और क़बायली द्वेष की बिना पर हिंसा फैलने की भूमि प्रशस्त करती हैं और यह भी संभव है कि लड़कियों को ज़िन्दा दफ़्न करने का कारण बनें।
क़ुरआन आगे कहता है कि जेहाद से भागने की भावना और अतार्किक बहाने इस बात का कारण बनते हैं कि कमज़ोर ईमान वाले और मुनाफ़िक़ लोग हक़ को देखने और सुनने से वंचित हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति हक़ को सही तरह से नहीं देखता है वह हक़ के मुक़ाबले में आ जाता है और अल्लाह की रहमत से वंचित हो जाता है।
इन आयतों से हमने सीखाः
क़ुरआन के अनुसार जेहाद को छोड़ने से फ़साद फ़ैलने और अत्याचारपूर्ण हिंसा की भूमि प्रशस्त होती है।
अल्लाह की शिक्षाओं से मुंह मोड़ना पारिवारिक संबंधों के कमज़ोर होने का कारण बनता है।
जो लोग फ़ित्ना- फ़साद फ़ैलाते हैं और पारिवारिक संबंधों में विघ्न उत्पन्न करते हैं वे न केवल अल्लाह की रहमत से दूर हैं बल्कि वे अल्लाह की लानत के पात्र हैं।
केवल आंख-कान का होना ही काफ़ी नहीं है बल्कि उनका सही इस्तेमाल महत्वपूर्ण है। ऐसा बहुत होता है कि बहुत से लोगों के पास कान होते हैं मगर वे हक़ नहीं सुनते हैं या वे लोग जिनके पास आंख होती है मगर हक़ीक़त नहीं देखते।
आइये अब सूरए मोहम्मद की 24वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآَنَ أَمْ عَلَى قُلُوبٍ أَقْفَالُهَا (24)
इस आयत का अनुवाद हैः
तो क्या लोग क़ुरान में (ज़रा भी) ग़ौर नहीं करते या (उनके) दिलों पर ताले लगे हुए हैं। [47:24]
पिछली आयतों ने कमज़ोर ईमान वालों और मुनाफ़िक़ों की विशेषताओं को बयान किया। यह आयत उसी बहस को आगे बढ़ाती हुई कहती है कि इन व्यक्तियों की समस्त कठिनाइयों की जड़ यह है कि वे या तो क़ुरआन की आयतों में चिंतन नहीं करते हैं या अपनी ग़लत इच्छाओं के कारण जो कुछ समझते हैं उसे स्वीकार नहीं करते बल्कि उसका विरोध करते हैं। यद्यपि यह आयत कमज़ोर ईमान वालों के बारे में है मगर सूरए साद की 29वीं आयत क़ुरआन की आयतों में चिंतन को समस्त मोमिनों का दायित्व बताती है। इस आयत में अल्लाह कहता है कि यह मुबारक किताब है जिसे हमने आप पर नाज़िल किया है ताकि वे इसमें ग़ौर व फ़िक्र करें।
यही वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम क़यामत के दिन क़ुरआन को छोड़ देने की शिकायत करेंगे। यह वह शिकायत होगी जिसमें समस्त मुसलमान शामिल होंगे। मुसलमानों द्वारा आसमानी किताब क़ुरआन पर कम ध्यान देने के कई प्रकार हैं। कुछ मुसलमान क़ुरआन की तिलावत कम करते हैं, कुछ मुसलमान क़ुरआन की तिलावत करते हैं मगर उसकी आयतों के अर्थों के बारे में चिंतन नहीं करते हैं, कुछ मुसलमान क़ुरआन की आयतों की तिलावत करते हैं और उसकी आयतों में चिंतन भी करते हैं परंतु उसकी शिक्षाओं पर अमल करने में लापरवाही करते हैं।
इस आधार पर क़ुरआन की आयतों को समझने का आधार व मापदंड यह होना चाहिए कि इस्लामी उम्मत उस पर अमल करे। ताकि समाज में अल्लाह की रहमत व दया विस्तृत हो और जीवन के मामलों में आसानियां पैदा हों। वरना आरंभ में लोगों के दिलों पर ताले लग जाते हैं और उसके बाद समाज को विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और नजात व मुक्ति के रास्ते के बंद होने कारण बनता है।
इस आयत से हमने सीखाः
क़ुरआन केवल तिलावत करने की किताब नहीं है बल्कि वह चिंतन और सोच-विचार करने की किताब है और तिलावत को उसकी आयतों में चिंतन की भूमिका होना चाहिये। अतः जो लोग क़ुरआन में चिंतन नहीं करते वे अल्लाह की निंदा का पात्र बनते हैं।
समस्त मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वे क़ुरआन की आयतों को समझें और उसमें ग़ौर करें और यह चीज़ मुसलमानों के किसी विशेष गिरोह से विशेष नहीं है।
क़ुरआन में ग़ौर करना छोड़ देने से इंसानों के दिलों में ताला लग जाता है। जिन दिलों पर ताले लगे हुए हैं वे भी क़ुरआन में ग़ौर करने से वंचित हैं और उससे लाभांवित नहीं हो पाते।
श्रोताओ कार्यक्रम का समय यहीं पर समाप्त होता है।.....