Feb ०९, २०२५ १८:२८ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-952

सूरए मुहम्मद, आयतें 25-28

आइये सबसे पहले सूरए मोहम्मद की 25वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

 

إِنَّ الَّذِينَ ارْتَدُّوا عَلَى أَدْبَارِهِمْ مِنْ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْهُدَى الشَّيْطَانُ سَوَّلَ لَهُمْ وَأَمْلَى لَهُمْ (25)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

 

बेशक जो लोग राहे हिदायत साफ़ साफ़ मालूम होने के बाद उलटे पाँव (कुफ़्र की तरफ़) फिर गये शैतान ने (उनके बुरे कर्मों को) सवांर कर पेश कर दिया है, उन्हें ढील दे रखी है और उनकी (तमन्नाओं की) रस्सियाँ दराज़ कर दी हैं। [47:25] 

 

 

पिछली आयत कमज़ोर ईमान वाले मुनाफ़िक़ों के बारे में थी जिन्होंने पवित्र क़ुरआन में ग़ौर करने से स्वयं को वंचित कर लिया था और पवित्र क़ुरआन के शब्दों के बारे में मानो उनके दिलों पर ताले लग गये हैं।

पवित्र क़ुरआन की यह आयत कहती है कि जो क़ुरआन और पैग़म्बर की हिदायत व की अनदेखी कर दे वह शैतान के मार्ग पर चल पड़ता है। स्वाभाविक है कि शैतान आरंभ में बुरे काम को उसके सामने अच्छा करके पेश करता है और उसके बाद इंसान को उसे अंजाम देने के लिए उकसाता है। यही चीज़ इस बात का कारण बनती है कि इंसान अपने बुरे कामों को अच्छा समझ कर अंजाम देने लगता है। इस प्रकार का व्यक्ति अपने भविष्य का कार्यक्रम अपनी आकांक्षाओं के आधार पर बनाता और उसके हिसाब से काम करता है और उसका यह काम प्रतिदिन उसे हक़ के रास्ते से दूर करता जाता है और सही रास्ते की ओर लौटना उसके लिए कठिन हो जाता है।

 

इस आयत से हमने सीखाः

 

मुनाफ़िक़ स्वयं को रौशन ख़याल व्यक्ति समझते हैं। मुनाफ़िक़ों की सोच के विपरीत पवित्र क़ुरआन के अनुसार ये लोग कट्टरपंथी और रुढ़िवादी हैं जो हक़ और सत्य के रास्ते को छोड़कर अंधेरे और ग़ुमराही की ओर चले गये हैं।

शैतानी उकसावे की पैरवी और उसका अनुसरण इंसान के ईमान को नुक़सान पहुंचाने वाली चीज़ों में से है और उसका नतीजा इंसान का हक़ के रास्ते से दूर हो जाना और बुरे अंजाम से निकट हो जाना है।

वास्तविकता की जानकारी हो जाना काफ़ी नहीं है बल्कि डटकर और गम्भीरता के साथ शैतानी उकसावे का मुक़ाबला करना चाहिये।

बुरे कामों को अच्छा दिखाना और लंबी-लंबी आकांक्षायें और आरज़ू पैदा करना शैतानी चाल है।

 

आइये अब सूरए मोहम्मद की 26वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

 

ذَلِكَ بِأَنَّهُمْ قَالُوا لِلَّذِينَ كَرِهُوا مَا نَزَّلَ اللَّهُ سَنُطِيعُكُمْ فِي بَعْضِ الْأَمْرِ وَاللَّهُ يَعْلَمُ إِسْرَارَهُمْ (26)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

 

यह इसलिए कि जो लोग ख़ुदा की नाज़िल की हुई (किताब) से बेज़ार हैं ये उनसे कहते हैं कि कुछ कामों में हम तुम्हारी ही बात मानेंगे और ख़ुदा उनकी रहस्यकारी से वाक़िफ है। [47:26] 

 

 

यह आयत मुनाफ़िक़ों और काफ़िरों के बीच संबंध की ओर संकेत करती और कहती है कि मदीना के मुनाफ़िक़ मदीना के यहूदियों के पास जाते और उनके साथ सहयोग का समझौता करते थे और जो काम दोनों के हित में होते थे उसमें वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ काम करते थे। अलबत्ता मुनाफ़िक़ों की पूरी कोशिश यह होती थी कि इस संबंध को पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमानों से छिपाये रखें परंतु क़ुरआन कहता है कि अल्लाह उनके इस विश्वासघात और ग़द्दारी से पर्दा उठा देगा ताकि उनकी साज़िश खुल हो जाये और लोग उन्हें पहचान जायें।

 

इस आयत से हमने सीखाः

 

मुसलमानों को सावधान रहना चाहिये और उन्हें यह जान लेना चाहिये कि इस्लामी समाज के कुछ लोग दुश्मनों और काफ़िरों से संबंध रखते हैं और उनसे मिले हुए हैं। इस प्रकार के लोग अपने और दुश्मनों के हितों पर इस्लामी समाज के हितों को क़ुर्बान कर देंगे। 

दुश्मनों के साथ मुनाफ़िक़ों के संबंध स्पष्ट नहीं हैं बल्कि गोपनीय हैं। अतः इस्लामी समाज के ज़िम्मेदारों को होशियार रहना चाहिये और इस गोपनीय संबंध का पता लगाने के लिए उचित शैलियों का इस्तेमाल करना चाहिये।

इंसान को इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि अल्लाह इंसान के हर काम से पूर्णतः अवगत है चाहे वह विदित हो या निहित और अगर इंसान यह विश्वास रखे तो वह कभी भी दूसरों के ख़िलाफ़ षडयंत्र नहीं रचेगा।

 

 

आइये अब सूरए मोहम्मद की 27वीं और 28वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,

 

 

فَكَيْفَ إِذَا تَوَفَّتْهُمُ الْمَلَائِكَةُ يَضْرِبُونَ وُجُوهَهُمْ وَأَدْبَارَهُمْ (27) ذَلِكَ بِأَنَّهُمُ اتَّبَعُوا مَا أَسْخَطَ اللَّهَ وَكَرِهُوا رِضْوَانَهُ فَأَحْبَطَ أَعْمَالَهُمْ (28)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

 

तो जब फ़रिश्तें उनकी जान निकालेंगे उस वक्त उनका क्या हाल होगा कि उनके चेहरों पर और उनकी पुश्त पर मारते जाएँगे। [47:27] ये इस सबब से कि जिन चीज़ों से ख़ुदा नाख़ुश है उसकी तो ये लोग पैरवी करते हैं और जिसमें ख़ुदा की ख़ुशी है उससे बेज़ार हैं तो ख़ुदा ने भी उनकी कारस्तानियों को अकारत कर दिया। [47:28]

 

 

ये आयतें दुनिया में मुनाफ़िक़ों के अंजाम की ओर संकेत करती और कहती हैं कि मुनाफ़िक़ों की जान दुनिया से बड़ी मुश्किल से निकलती है। क्योंकि जिन फ़रिश्तों को उनकी रूह निकालने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है वे आरंभ में मुनाफ़िक़ों को पीड़ा देते हैं और उसके बाद उनकी रूह निकालते हैं। इस प्रकार जान देना दुनिया में उनके बुरे आचरण और आमाल का एक नतीजा है। इसका कारण यह है कि वे उन कार्यों को अंजाम नहीं देते थे जो अल्लाह की खुशनूदी का कारण थे इसके विपरीत वे उन कार्यों को अंजाम देते थे जो अल्लाह की नाराज़गी का कारण बनते थे।

स्वाभाविक रूप से जीवन के विभिन्न चरणों में हम सबको दोराहे का सामना होता है और दो रास्तों में से एक रास्ते को चुनना होता है परंतु अधिकांश लोग उसी रास्ते का चयन करते हैं जो उनकी इच्छाओं से मेल खाता है और जो उनके लिए अधिक लाभदायक होता है जबकि पवित्र क़ुरआन के अनुसार मोमिन के चयन का मापदंड उसकी इच्छायें और उसके हित नहीं होते बल्कि उसके चयन का मापदंड अल्लाह की मर्ज़ी और उसकी खुशनूदी होती है और चयन से पहले वह यह देखता है कि किसमें उसके पालनहार की ख़ुशी व प्रसन्नता है और वह उस काम को अंजाम देता है जिसमें अल्लाह की प्रसन्नता होती है चाहे वह काम उसकी इच्छा के अनुसार हो या विपरीत। इसी तरह वह उन कामों को अंजाम नहीं देता है जो अल्लाह की अप्रसन्नता का कारण बनते हैं यद्यपि अंदर से उसका दिली रूझान और इच्छा उस काम की ओर क्यों न हो।

 

इन आयतों से हमने सीखाः

 

इंसान की मौत उसका अंत नहीं है बल्कि उसकी दुनियावी ज़िन्दगी का अंत है और फ़रिश्ते उसकी उसी आत्मा को वापस ले लेंगे जो उसे जीवन के आरंभ में दी गयी थी।

मुनाफ़िक़ की मौत दर्दनाक और कड़े दंड व अज़ाब के साथ होती है।

यद्यपि इंसान रास्ते के चयन में आज़ाद है परंतु उसे हर प्रकार के रास्ते के चयन के परिणाम को भी क़बूल करना चाहिये।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो इंसान उस रास्ते का चयन करेगा जिसमें अल्लाह की ख़ुशी है उसका परिणाम अच्छा होगा और उस रास्ते के चयन और उसके अनुसरण का परिणाम बुरा होगा जो अल्लाह की प्रसन्नता के विरुद्ध होगा।

इंसान का काम यद्यपि विदित में अच्छा और लोगों की पसंद के मुताबिक़ हो परंतु अगर उसमें अल्लाह की रज़ा न हो तो वह तबाह व बर्बाद हो जायेगा।