Feb ०९, २०२५ १८:४४ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-953 

सूरए मुहम्मद, आयतें 29-32

 

आइए सबसे पहले सूरए मुहम्मद की आयत संख्या 29 और 30 की तिलावत सुनते हैं

 

أَمْ حَسِبَ الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمْ مَرَضٌ أَنْ لَنْ يُخْرِجَ اللَّهُ أَضْغَانَهُمْ (29) وَلَوْ نَشَاءُ لَأَرَيْنَاكَهُمْ فَلَعَرَفْتَهُمْ بِسِيمَاهُمْ وَلَتَعْرِفَنَّهُمْ فِي لَحْنِ الْقَوْلِ وَاللَّهُ يَعْلَمُ أَعْمَالَكُمْ (30)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

 

क्या वे लोग जिनके दिलों में (नेफ़ाक़ का) मरज़ है ये ख़याल करते हैं कि ख़ुदा दिल के हसद को कभी  ज़ाहिर नहीं करेगा। [47:29]  और अगर हम उन्हें तुम्हारे सामने ज़ाहिर कर दें तो तुम उन्हें उनकी शक्ल से पहचान लोगे और उनके बात के अंदाज़ में भी तुम्हें इसकी शिनाख़्त हो जाएगी। और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है।  [47:30]

 

पिछले कार्यक्रम में उन मुनाफ़िक़ों की बात की गयी थी जो अल्लाह की इच्छा के बजाये अपनी इच्छा की पूर्ति के प्रयास में हैं चाहे वह चीज़ अल्लाह की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो। ये आयतें मुनाफ़िक़ों की एक अन्य आदत की ओर संकेत करती कि वे पैग़म्बरे इस्लाम और उनकी शिक्षाओं से नाराज़ हैं यहां तक कि उनके दिलों में पैग़म्बरे इस्लाम और मोमिनों की दुश्मनी भरी हुई है। विदित में वे ईमान का इज़्हार करते और मोमिनों के साथ रहते हैं मगर वे दुश्मनों के साथ संबंध रखना और उनके साथ सहयोग करना चाहते हैं ताकि उनके सांसारिक और भौतिक हितों की पूर्ति हो सके। वे दुश्मनों के षड्यंत्रों के मुक़ाबले में प्रतिरोध करने के बजाये अपनी ज़बान और अमल से उनके साथ हैं ताकि मोमिनों के मोर्चे को कमज़ोर कर सकें। अलबत्ता अगर अल्लाह चाहे तो उनकी मुनाफ़ेक़त की निशानी को उनके चेहरों पर स्पष्ट कर सकता है ताकि समस्त लोग उन्हें उनके चेहरों से पहचान जायें मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि लोगों का बातिन इस दुनिया में सबके सामने आ जाये परंतु चालाक व होशियार मोमिन, मुनाफ़िक़ों की बातचीत और उनके अमल से उनके बातिन को पहचान सकते हैं जैसाकि जेहाद के समय वे हौसला पस्त करने वाली बातें करके मोमिनों को जेहाद से रोकना चाहते हैं या दुश्मनों की शक्ति और संसाधनों को बढ़ाचढ़ा कर बयान करते हैं ताकि मोमिन जेहाद करने से डर जायें और वे रणक्षेत्र में ही न जायें। निःसंदेह अल्लाह उनके बातिन और मुसलमानों के ख़िलाफ़ उनके कार्यों से पूरी तरह अवगत है और सही समय पर उन्हें दंडित करेगा।

इन आयतों से हमने सीखाः

हमें अपने दिलों और नीयतों की ओर से सावधान रहना चाहिये और यह नहीं सोचना चाहिये कि हमारे दिल और नीयत में जो कुछ है वह हमेशा पोशीदा रहेगा।

द्वेष मुनाफ़ेक़त और दोग़लेपन की बीमारी को ज़ाहिर करने का ज़रिया है। ईमान वालों के प्रति द्वेष को अपने दिल में नहीं रखना चाहिये, यह मुनाफ़िक़ों की एक अलामत है।

इंसान का बातिन उसके ज़ाहिर में प्रभावी है। दूसरे शब्दों में इंसान का चेहरा और उसकी बात चीत काफ़ी हद तक उसके बातिन की परिचायक होती हैं यद्यपि वह अपने बातिन को गुप्त रखने की कोशिश करता है।

 

आइये अब सूरए मोहम्मद की 31वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ حَتَّى نَعْلَمَ الْمُجَاهِدِينَ مِنْكُمْ وَالصَّابِرِينَ وَنَبْلُوَ أَخْبَارَكُمْ (31)

 

इस आयत का अनुवाद हैः

 

हम यक़ीनन तुम्हें आज़माएंगे ताकि तुम्हारें अंदर जो मुजाहिद और साबिर हैं उन्हें पहचनवाएं और तुम्हारें कामों की ख़बरों को आज़माएं। [47:31]

 

यह आयत अल्लाह की एक महत्वपूर्ण परम्परा की ओर संकेत करती है विशेषकर मोमिन इंसानों के संबंध में। इस आयत में अल्लाह कहता है कि ईमान का दावा करने वाले बहुत हैं परंतु यह स्पष्ट करने के लिए कि कौन अपने दावे में सच्चा है और कौन झूठा है अल्लाह विभिन्न अवसरों पर परीक्षा लेता है। यह इस वजह से है कि कुछ लोग ऐसे हैं कि जब उन पर सख़्ती पड़ती है तो धर्म और धार्मिक शिक्षाओं से पीछे हट जाते हैं परंतु जो लोग सच्चे और वास्तविक मोमिन होते हैं वे कठिनाई में भी धर्म और धार्मिक शिक्षाओं से पीछे नहीं हटते।

दूसरे शब्दों में कठिन और सख़्त हालात में मुनाफ़ेक़ीन अपनी अस्ली हक़ीक़त को नहीं छिपा सकते। ऐसे काम अंजाम देते हैं जिससे उनका बातिन स्पष्ट हो जाता है और वे अपमानित हो जाते हैं।

 

इस आयत से हमने सीखाः

 

अल्लाह ईमान का दावा करने वालों का इम्तेहान लेता है ताकि वे ख़ुद इस बात को समझ जायें कि ईमान के दावे में वे किस हद तक सच्चे हैं और दूसरे भी उन्हें पहचान जायें कि कितना ईमान रखते हैं।

धर्म की राह में धैर्य करना और कठिनाइयों को सहना सच्चे ईमान की निशानियों में से है।

ईमान की एक अलामत कठिनाइयों में प्रतिरोध करना और डटे रहना है वरना अधिकांश लोग जब आराम में होते हैं तब ही ईमान का दावा करते हैं।

आइये अब सूरए मोहम्मद की 32वीं आयत की तिलावत सुनते हैं, 

 

  إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَصَدُّوا عَنْ سَبِيلِ اللَّهِ وَشَاقُّوا الرَّسُولَ مِنْ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْهُدَى لَنْ يَضُرُّوا اللَّهَ شَيْئًا وَسَيُحْبِطُ أَعْمَالَهُمْ (32)

इस आयत का अनुवाद हैः

 

बेशक जिन्होंने कुफ़्र अख़तियार किया और (लोगों को) अल्लाह की राह पर जाने से रोका और जब हिदायत का रास्ता उनके लिए ज़ाहिए हो गया तब भी उन्होंने पैग़म्बर का विरोध किया, वो हरगिज़ अल्लाह को कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकते और बहुत जल्द अल्लाह उनके कर्मों को अकारत कर देगा। [47:32]

 

पिछली आयत मुनाफ़िक़ों के बारे में थीं। यह आयत उसी बात को जारी रखते हुए एक व्यापक क़ानून की ओर संकेत करती और कहती है कि जिन लोगों ने कुफ्र अख़तियार किया चाहे वे काफ़िर जिन्होंने अपने कुफ़्र को अपनी ज़बान से ज़ाहिर किया और चाहे वे मुनाफ़िक जिन्होंने अपने कुफ़्र को अपने दिल में छिपाया, काफ़िरों के दोनों गिरोह अल्लाह और उसके रसूल के विरोधी हैं। वे सत्य के विरोधी हैं जबकि उनके लिए सत्य पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है इसके बावजूद वे हक़ और पैग़म्बरे इस्लाम के धर्म का विरोध करते हैं। वे सोचते हैं कि अल्लाह के धर्म को नुकसान पहुंचा सकते हैं और उसकी प्रगति को रोक सकते हैं जबकि अल्लाह का इरादा इस्लाम को विस्तृत करना और फ़ैलाना है।

 

इस आयत से हमने सीखाः

 

हक़ से दुश्मनी, उद्दंडता और अल्लाह के आदेश की अवज्ञा का अंजाम बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है।

अल्लाह ने लोगों की हिदायत के लिए पैग़म्बरों और इमामों को भेजकर हुज्जत तमाम कर दी है यानी यह कहने का बहाना नहीं छोड़ा है कि हमें हक़ पता नहीं था। अतः लोगों को चाहिये कि वे हक़ को पहचानें और उसका अनुसरण करें।

काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों के षडयंत्रों का कोई परिणाम नहीं निकलेगा। इसके विपरीत अल्लाह का धर्म दिन-प्रतिदिन फैलेगा।