क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-954
सूरए मुहम्मद, आयतें 33-35
आइए सबसे पहले सूरए मुहम्मद की 33 की तिलावत सुनते हैं,
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا أَطِيعُوا اللَّهَ وَأَطِيعُوا الرَّسُولَ وَلَا تُبْطِلُوا أَعْمَالَكُمْ (33)
इस आयत का अनुवाद हैः
ऐ ईमान वालो ख़ुदा का हुक्म मानो और रसूल की फरमाँ बरदारी करो और अपने अमल को अकारत न करो। [47:33]
पिछले कार्यक्रम में मुनाफ़िक़ों और काफ़िरों के बारे में बात की गयी थी। यह आयत मोमिनों को संबोधित करते हुए कहती है हे ईमान वालों! इस बात का ध्यान रखो कि मुनाफ़िक़ों की तरह अल्लाह और रसूल के आदेश की अवज्ञा व नाफ़रमानी न करो। वे अपनी ज़बान से यह दिखाते हैं कि वे अल्लाह के आदेश के समक्ष नतमस्क हैं परंतु अमल में या विरोध करते हैं या अपने दायित्वों व ज़िम्मेदारियों पर अमल नहीं करते हैं। तुमको जो स्वयं को सच्चा मोमिन समझते हो और ख़ुद को अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों के समक्ष नतमस्तक समझते हो, चाहिये कि अपने अमल से दिखाओ कि तुम अपने पालनहार के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हो न यह कि जो चीज़ तुम्हारी मर्ज़ी व इच्छा के अनुरूप हो उस पर अमल करो और जो चीज़ तुम्हें पसंद न हो उसे छोड़ दो।
इस आयत से हमने सीखाः
ईमान के सच्चा होने की अलामत अल्लाह के आदेशों के सामने नतमस्तक होना है। क्योंकि अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों पर अमल न करना इस बात की अलामत है कि ईमान सच्चा नहीं है।
क़ुरआन के अलावा पैग़म्बरे इस्लाम का सदाचरण और उनके जीवन की परम्परा भी हुज्जत है। अतः धर्म को पहचानने के लिए दोनों पर ध्यान देना ज़रूरी है।
केवल नेक अमल का अंजाम देना काफ़ी नहीं है बल्कि रियाकारी व दिखावा, शिर्क और घमंड जैसी बुराइयों से बचाना भी ज़रूरी है।
आइये अब सूरए मोहम्मद की 34वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَصَدُّوا عَنْ سَبِيلِ اللَّهِ ثُمَّ مَاتُوا وَهُمْ كُفَّارٌ فَلَنْ يَغْفِرَ اللَّهُ لَهُمْ (34)
इस आयत का अनुवाद हैः
बेशक जो लोग काफ़िर हो गए और लोगों को ख़ुदा की राह से रोका, फिर काफ़िर ही मर गए तो ख़ुदा उनको हरगिज़ नहीं बख़्शेगा। [47:34]
क़ुरआन के अनुसार अल्लाह बहुत माफ़ करने वाला है। वह बहुत से गुनाहों और गुनाहकारों को माफ़ कर देता है जबकि कुछ लोग अपने कुफ्र और शिर्क पर आग्रह करते रहते हैं और पूरी ज़िन्दगी गुनाह करते रहते हैं और दूसरों की गुमराही का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार के लोग जीवन के अंत तक बातिल व ग़लत रास्ते पर बाक़ी रहते हैं और अल्लाह की रहमत व दया का पात्र बनने का कोई मार्ग नहीं छोड़ते।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह ने अपने समस्त बंदों के लिए तौबा का दरवाज़ा खुला छोड़ रखा है परंतु जो लोग अपने कुफ़्र, शिर्क और विरोध पर आग्रह करते हैं और इसी हालत में दुनिया से चले जाते हैं वे अल्लाह की रहमत के पात्र नहीं बनते हैं।
इंसान के अंत के बारे में यह बहुत महत्वपूर्ण बिन्दु है कि वह मौत के समय दुनिया से मोमिन जाता है या काफ़िर
वह कुफ़्र बहुत ख़तरनाक है जो हक़ को जानने के बाद किया जाये और वह इंसान को अल्लाह की रहमत व दया से वंचित कर देता है।
आइये अब सूरए मोहम्मद की 35वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
فَلَا تَهِنُوا وَتَدْعُوا إِلَى السَّلْمِ وَأَنْتُمُ الْأَعْلَوْنَ وَاللَّهُ مَعَكُمْ وَلَنْ يَتِرَكُمْ أَعْمَالَكُمْ (35)
इस आयत का अनुवाद हैः
तो तुम हिम्मत न हारो और (दुशमनों को) सुलह की दावत न दो तुम ग़ालिब हो ही और ख़ुदा तो तुम्हारे साथ है और हरगिज़ तुम्हारे आमाल के सवाब को कम न करेगा। [47:35]
यह आयत ईमान लाने वालों को संबोधित करते हुए कहती है कि इस बात का ध्यान रखो कि कमज़ोर ईमान वालों की बातें तुम पर असर न करें कि उसके नतीजे में दुश्मनों के मुक़ाबले में प्रतिरोध करने के बजाये उनसे षडयंत्र करने लगो।
सुल्ह व शांति उस समय क़बूल है जब दुश्मन अपनी दुश्मनी से बाज़ आ जाये और तुम्हारे अधिकारों को क़बूल करने के लिए तैयार हो और तुम्हारे साथ शांतिपूर्ण ज़िन्दगी गुज़ारे मगर जो दुश्मन प्रतिदिन तुम्हारे ख़िलाफ़ षडयंत्र कर रहा है और अल्लाह के धर्म को ख़त्म करने की चेष्टा में हो उसके साथ शांति धर्म में कमज़ोरी और दुनिया में आराम चाहने की अलामत है।
अल्लाह अहले ईमान की इज़्ज़त व प्रतिष्ठा चाहता है और अगर मोमिन प्रतिरोध करें तो अल्लाह दुश्मनों के मुक़ाबले में उन्हें श्रेष्ठता प्रदान करेगा मगर जो लोग भय व डर के कारण या ईमान में कमज़ोरी के कारण या दुनिया की ज़िन्दगी में अपने जानी दुश्मन से सुल्ह करना चाहते हैं तो यह कार्य केवल उनके अपमान का कारण बनेगा।
स्पष्ट है कि दुश्मन के मुक़ाबले में हर प्रकार के प्रतिरोध की क़ीमत चुकानी पड़ेगी परंतु अनुभव ने यह बात सिद्ध कर दिया है कि लंबे समय में दुश्मन से सुलह कर लेने की क़ीमत उसके मुक़ाबले में प्रतिरोध करने की क़ीमत से अधिक है। इसके अलावा जो इंसान अहले ईमान की इज़्ज़त व प्रतिष्ठा चाहता है अगर प्रतिरोध के मार्ग में उसे क्षति पहुंचती है तो अल्लाह उसकी भरपाई कर देता है और उसके प्रतिदान में कोई कमी नहीं करता है।
इस आयत से हमने सीखाः
ईमान वालों को चाहिये कि अपनी संख्या के कम होने और अपने भौतिक संसाधनों की कमी की वजह से और दुश्मनों की संख्या के अधिक होने और उनके संसाधनों की बहुतायत की वजह से बिल्कुल भी न डरें क्योंकि अल्लाह ईमान वालों के साथ है और जिसके साथ अल्लाह है आख़िर में विजय उसकी है। ईमान और आलस्य एक साथ नहीं हो सकते।
दुश्मन के साथ मुक़ाबले और रणक्षेत्र में अहले ईमान सुलह का प्रस्ताव नहीं देते हैं क्योंकि यह उनकी कमज़ोरी और भय की अलामत है जो एक अप्रिय काम है परंतु अगर दुश्मन ने शांति व सुल्ह का प्रस्ताव दिया है तो उसे क़बूल करना चाहिये।
अल्लाह अहले ईमान की इज़्ज़त व प्रतिष्ठा चाहता है और उन लोगों की मदद करता है जो उसकी राह में डटे रहते और प्रतिरोध करते हैं।