क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-958
सूरए फ़तह, आयतें 10 से 13
आइये सबसे पहले सूरए फ़त्ह की 10वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
إِنَّ الَّذِينَ يُبَايِعُونَكَ إِنَّمَا يُبَايِعُونَ اللَّهَ يَدُ اللَّهِ فَوْقَ أَيْدِيهِمْ فَمَنْ نَكَثَ فَإِنَّمَا يَنْكُثُ عَلَى نَفْسِهِ وَمَنْ أَوْفَى بِمَا عَاهَدَ عَلَيْهُ اللَّهَ فَسَيُؤْتِيهِ أَجْرًا عَظِيمًا (10)
इस आयत का अनुवाद हैः
बेशक जो लोग तुमसे बैअत करते हैं वे ख़ुदा ही से बैअत करते हैं, ख़ुदा की क़ूवत ग़ालिब है तो जो अहद को तोड़ता वो अपने नुक़सान के लिए अहद तोड़ता है और जिसने उस बात को जिसका उसने ख़ुदा से अहद किया है पूरा किया तो उसको जल्द ही अज़ीम प्रतिफल अता फ़रमाएगा। [48:10]
इससे पहले वाले कार्यक्रम में पैग़म्बरे इस्लाम और काफ़िरों व अनेकेश्वरवादियों के मध्य मक्का में होने वाली सुल्हे हुदैबिया की ओर संकेत किया गया था। सुल्ह होने से पहले पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने एक सहाबी व अनुयाई को अनेकेश्वरवादियों के पास भेजा था ताकि वह अनेकेश्वरवादियों को बता दे कि मुसलमान ख़ानये ख़ुदा की ज़ियारत के लिए मक्का आ रहे हैं और लड़ाई- झगड़े और युद्ध का उनका कोई इरादा नहीं है। यही चीज़ मुसलमानों के मध्य यह अफ़वाह फ़ैल जाने का कारण बनी कि पैग़म्बरे इस्लाम का प्रतिनिधि व नुमाइन्दा मारा गया जबकि अनेकेश्वरवादियों ने पैग़म्बरे इस्लाम के प्रतिनिधि को कुछ समय के लिए गिरफ़्तार कर लिया था। यही चीज़ मुसलमानों के मध्य यह अफ़वाह फ़ैल जाने का कारण बनी कि उनके प्रतिनिधि की हत्या कर दी गयी। इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने अनुयाइयों व सहाबियों को जमा किया और उनसे वचन लिया कि इस ख़बर के सही होने की हालत में वे मदीना लौटने के बजाये मक्का के अनेकेश्वरवादियों से जंग करेंगे। जब इस बात की ख़बर काफ़िरों और मुश्रिकों को हुई तो उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के प्रतिनिधि को छोड़ दिया और जंग करने के बजाये मुसलमानों से सुल्ह करने पर राज़ी हो गये।
इस आधार पर मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम से जो बैअत की और यह वचन दिया कि अगर पैग़म्बरे इस्लाम के प्रतिनिधि के मारे जाने की ख़बर सही हुई तो मदीना लौटने के बजाये मक्का के काफ़िरों से जंग करेंगे तो इसका इस्लामी इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है और पवित्र क़ुरआन की दूसरी आयतों में अल्लाह ने सुल्हे हुदैबिया हो जाने के कारण मुसलमानों से अपनी प्रसन्नता की घोषणा की। इस आयत में भी अल्लाह कहता है कि पैग़म्बरे इस्लाम से बैअत अल्लाह से बैअत करने के समान है यानी जिस तरह से बैअत करने में दोनों पक्ष एक दूसरे के हाथ में अपना हाथ देते हैं उसी तरह मानो उन्होंने अपना हाथ अल्लाह के हाथ में दिया है जो हर हाथ से उपर है।
स्पष्ट है कि जिसने अल्लाह से बैअत की कि वह उसके धर्म की सहायता करेगा उससे इस बात की अपेक्षा नहीं की जाती कि अल्लाह से की गयी बैअत को तोड़ेगा। अलबत्ता अगर उसने अल्लाह से की गयी अपनी बैअत तोड़ी तो उसने अपने ईमान को नुकसान पहुंचाया।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह पर ईमान का लाज़ेमा उसके धर्म की मदद और दुश्मनों के षडयंत्रों के मुक़ाबले में धार्मिक मार्गदर्शकों के प्रति वफ़ादारी है।
अल्लाह की दया व कृपा उन लोगों के साथ है जो उसके धर्म की मदद करते हैं और इस राह में डटे व जमे रहते हैं।
समझौते और वचन को दृष्टि में रखना धार्मिक होने की अलामत है और समझौते व वचन को तोड़ना वास्तव में ख़ुद को तोड़ना है।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 11वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
سَيَقُولُ لَكَ الْمُخَلَّفُونَ مِنَ الْأَعْرَابِ شَغَلَتْنَا أَمْوَالُنَا وَأَهْلُونَا فَاسْتَغْفِرْ لَنَا يَقُولُونَ بِأَلْسِنَتِهِمْ مَا لَيْسَ فِي قُلُوبِهِمْ قُلْ فَمَنْ يَمْلِكُ لَكُمْ مِنَ اللَّهِ شَيْئًا إِنْ أَرَادَ بِكُمْ ضَرًّا أَوْ أَرَادَ بِكُمْ نَفْعًا بَلْ كَانَ اللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا (11)
इस आयत का अनुवाद हैः
जो गंवार (हुदैबिया से) पीछे रह गए अब वे तुमसे कहेंगे कि हमको हमारे माल और परिवारों ने रोक रखा तो आप हमारे वास्ते (ख़ुदा से) मग़फिरत की दुआ माँगें। ये लोग अपनी ज़बान से ऐसी बातें कहते हैं जो उनके दिल में नहीं (ऐ रसूल) तुम कह दो कि अगर ख़ुदा तुम लोगों को नुक़सान पहुँचाना चाहे या तुम्हें फ़ायदा पहुँचाने का इरादा करे तो ख़ुदा के मुक़ाबले में तुम्हारे लिए किसका बस चल सकता है बल्कि जो कुछ तुम करते हो ख़ुदा उससे ख़ूब वाक़िफ है। [48:11]
जिस वक़्त मुसलमान मदीना से मक्का की ओर रवाना हुए पैग़म्बरे इस्लाम ने आदेश दिया कि जो मुसलमान मदीना के आसपास के क़बीलों में हैं वे भी इस यात्रा में उनके साथ हो जायें मगर कुछ मुसलमान मक्का के काफ़िरों व मुश्रिकों और मुसलमानों के मध्य युद्ध और लड़ाई हो जाने के भय से इस यात्रा में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके अनुयाइयों के साथ नहीं गये पर जब सुल्हे हुदैबिया हो जाने के बाद मुसलमान सुरक्षित मदीना वापस लौट आये तो जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम के साथ नहीं गये थे वे पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आये और कुछ सांसारिक कामों में व्यस्त होने का बहाना बनाया मगर पवित्र क़ुरआन की आयत नाज़िल हुई और उन सबके दिलों का भेद खुल गया।
अल्लाह ने इस आयत में कहा है कि जो कुछ ये अपनी ज़बान से कह रहे हैं और जो इनके दिलों में है दोनों में अंतर है। इसी प्रकार यह आयत इस महत्वपूर्ण बिन्दु पर बल देती है कि जेहाद से भागना जीवन के सुरक्षित होने की गैरेन्टी नहीं है। जो लोग जेहाद और रणक्षेत्र पर जाते हैं उनमें बहुत से ज़िन्दा और सही व सालिम वापस आ जाते हैं और ऐसा भी होता है कि बहुत से लोग घरों में रह जाते हैं मगर अपनी जान से धो बैठते हैं।
इस आयत से हमने सीखाः
1. सामाजिक दायित्वों के निर्वाह के उल्लंघन का कारण लोगों की धार्मिक कमज़ोरी और सांस्कृतिक सतह का नीचे होना है। अतः दूरगामी सोच रखने वाले नेताओं व मार्गदर्शकों को चाहिये कि अपने महत्वपूर्ण फ़ैसलों में इस बिन्दु को ध्यान में रखें।
2. दुनिया से सीमा से अधिक लगाव कुछ लोगों के रणक्षेत्र में न जाने का कारण बनता है।
3. गुनाहकारों के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम की दुआ और शफ़ाअत को अल्लाह क़बूल करता है।
4. अल्लाह के धर्म और धार्मिक मार्गदर्शकों की रक्षा अनिवार्य है। यद्यपि इसके लिए हमें क्षति ही क्यों न उठानी पड़े।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 12वीं और 13वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
بَلْ ظَنَنْتُمْ أَنْ لَنْ يَنْقَلِبَ الرَّسُولُ وَالْمُؤْمِنُونَ إِلَى أَهْلِيهِمْ أَبَدًا وَزُيِّنَ ذَلِكَ فِي قُلُوبِكُمْ وَظَنَنْتُمْ ظَنَّ السَّوْءِ وَكُنْتُمْ قَوْمًا بُورًا (12) وَمَنْ لَمْ يُؤْمِنْ بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ فَإِنَّا أَعْتَدْنَا لِلْكَافِرِينَ سَعِيرًا (13)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ये फ़क़त तुम्हारे बहाने हैं) बात ये है कि तुम ये समझे बैठे थे कि रसूल और मोमिनीन हरगिज़ कभी अपने परिवारों में पलट कर आएंगे ही नहीं (और सब मार डाले जाएँगे) और यही बात तुम्हारे दिलों में भी थी और इसी वजह से, तुम तरह तरह की बदगुमानियाँ करने लगे थे और (आख़िरकार) तुम लोग ख़ुद बर्बाद हुए। [48:12] और जो शख़्स ख़ुदा और उसके रसूल पर ईमान न लाए तो हमने (ऐसे) काफ़िरों के लिए जहन्नम की आग तैयार कर रखी है। [48:13]
इन आयतों में कुछ मुसलमानों के पैग़म्बरे इस्लाम के साथ न जाने की ओर संकेत किया गया है। इन आयतों में अल्लाह कहता है कि जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम के साथ नहीं गये इसका वास्तविक कारण सांसारिक व पारिवारिक कार्यों में व्यस्तता नहीं थी बल्कि वह ग़लत सोच थी जो ईश्वरीय वादे के प्रति उनमें उत्पन्न हो गयी थी। जो मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम के साथ मक्का नहीं गये वे यह सोच रहे थे कि इस यात्रा से मुसलमान सुरक्षित बचकर वापस मदीना नहीं आयेंगे। इसी वजह से वे पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमानों के साथ मक्का नहीं गये। उन लोगों ने यह सोचा था कि अल्लाह ने इस यात्रा में अपने पैग़म्बर को अकेला छोड़ दिया है और उन्हें दुश्मनों के हवाले कर रहा है। अतः यह सही नहीं है कि अपनी जान ख़तरे में डाली जाये। यही ग़लत सोच पैग़म्बरे इस्लाम के साथ न जाने और उनके साथ दोबारा बैअत करने से वंचित होने और इसी प्रकार उनके दुर्भाग्य का कारण बनी। क्योंकि यह कार्य ईमान में कमज़ोरी और अल्लाह और उसके रसूल के इंकार का भी चिन्ह हो सकता है और वचन तोड़ने वाले कड़े दंड का पात्र भी बन सकते हैं।
इन आयतों से हमने सीखाः
ईश्वर और ईश्वरीय मार्गदर्शकों के आदेशों के मुक़ाबले में सांसारिक हालात को ध्यान में रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिये बल्कि महान ईश्वर पर भरोसा करके क़दम उठाना चाहिये और किसी भी चीज़ से नहीं डरना चाहिये।
ईश्वरीय बंदों के बारे में बुरा ख़याल करना या रखना बड़ा पाप है, ईश्वर और उसके वादों के बारे में ग़लत ख़याल करना तो बहुत ही बड़ा पाप है।
ग़लत सोच और भ्रांति कभी इंसान पर इतना बुरा प्रभाव डालती है कि इंसान महान ईश्वर की अवज्ञा के मार्ग पर चला जाता है।
परिवार से सीमा से अधिक लगाव को धार्मिक दायित्वों के निर्वाह में रुकावट नहीं बनना चाहिये। क्योंकि इस प्रकार की हालत इंसान की बदबख़्ती और बर्बादी का कारण बनती है।