क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-959
सूरए फ़तह, आयतें 14 से 16
आइये सबसे पहले सूरए फ़त्ह की 14वीं आयत की तिलावत सुनते हैं
وَلِلَّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ يَغْفِرُ لِمَنْ يَشَاءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَشَاءُ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَحِيمًا (14)
इस आयत का अनुवाद हैः
और सारे आसमान व ज़मीन की बादशाहत ख़ुदा ही की है जिसे चाहे बख़्श दे और जिसे चाहे सज़ा दे और ख़ुदा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है। [48:14]
इससे पहले वाले कार्यक्रम में मुनाफ़िक़ों के बारे में बात हुई थी जो बातिन में काफ़िर हैं परंतु ज़ाहिर में स्वयं को मुसलमान दिखाते हैं। इस आयत में अल्लाह कहता है कि अलबत्ता अल्लाह बहुत कृपालु व दयावान है और जो भी तौबा करे और अपने पहले किये गये कर्मों से शर्मिन्दा हो तो वह अल्लाह की कृपापात्र बनेगा और अल्लाह उसके गुनाहों को माफ़ कर देगा परंतु जो लोग अपने ग़लत रास्ते पर इसरार व हठधर्मिता करेंगे और सत्य के मुक़ाबले में हठधर्मिता से काम लेंगे वास्तव में उन लोगों ने स्वयं को अल्लाह की रहमत व कृपा से वंचित कर लिया और उन्हें उनके किये का दंड मिलकर रहेगा।
यह आयत इस बात पर बल देती है कि समूचे ब्रह्मांड में अल्लाह की हुकूमत व शासन है ताकि कोई यह न सोचे कि वह अल्लाह के शासन से बाहर जा सकता है या उसके इरादे पर ग़ालिब आ सकता है।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह के ग़ज़ब और उसके क्रोध पर उसकी दया व कृपा ग़ालिब है ताकि जब तक इंसान अपने कार्यों से अल्लाह की रहमत का पात्र बन सकता है उसे अल्लाह की रहमत व दया का पात्र बनने की कोशिश करना चाहिये।
इंसान को कामयाब होने के लिए भय और उम्मीद दोनों का एक साथ होना ज़रूरी हैं। इसी वजह से अल्लाह ने प्रशिक्षा की जो व्यवस्था बनाई है उसमें इंसान को भय और आशा के बीच में होना चाहिये। यानी इंसान में दोनों चीज़ें होनी चाहिये ताकि वे न तो निराश हों और न ही अहंकार का शिकार हों बल्कि अल्लाह की रहमत के प्रति आशावान रहें और साथ ही उसके क्रोध व ग़ज़ब से डरते रहें।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 15वीं आयत की तिलावत सुनते हैं
سَيَقُولُ الْمُخَلَّفُونَ إِذَا انْطَلَقْتُمْ إِلَى مَغَانِمَ لِتَأْخُذُوهَا ذَرُونَا نَتَّبِعْكُمْ يُرِيدُونَ أَنْ يُبَدِّلُوا كَلَامَ اللَّهِ قُلْ لَنْ تَتَّبِعُونَا كَذَلِكُمْ قَالَ اللَّهُ مِنْ قَبْلُ فَسَيَقُولُونَ بَلْ تَحْسُدُونَنَا بَلْ كَانُوا لَا يَفْقَهُونَ إِلَّا قَلِيلًا (15)
इस आयत का अनुवाद हैः
(मुसलमानों) अब जो तुम (ख़ैबर की) ग़नीमतों के लेने को जाने लगोगे तो जो लोग (हुदैबिया से) पीछे रह गये थे तुम से कहेंगे कि हमें भी अपने साथ चलने दो। ये चाहते हैं कि ख़ुदा के क़ौल को बदल दें तुम (साफ़) कह दो कि तुम हरगिज़ हमारे साथ नहीं चलने पाओगे ख़ुदा ने पहले ही से ऐसा फ़रमा दिया है। तो ये लोग कहेंगे कि तुम लोग तो हमसे हसद रखते हो (ख़ुदा ऐसा क्या कहेगा) बात ये है कि ये लोग बहुत ही कम समझते हैं। [48:15]
मुनाफ़िक़ों की एक विशेषता यह होती है कि वे अवसरवादी होते हैं। ख़तरे के समय वे विभिन्न बहानों से स्वयं को दूर कर लेते हैं और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से कतराते हैं परंतु जब भी उन्हें इस बात का आभास होता है कि उनकी उपस्थिति में फ़ायेदा है तो हाज़िर होते हैं।
जब मुसलमान ख़ानये काबा की ज़ियारत करने के इरादे से मदीना से मक्का गये थे और मक्का के निकट हुदैबिया नामक गांव में सुल्हे हुदैबिया हो गयी और उसके बाद मुसलमान ख़ानये काबा की ज़ियारत किये बिना मदीना वापस आ रहे थे तो अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम को ख़ैबर पर विजय करने की ख़ुशख़बरी दी और सुल्हे हुदैबिया के विरोधियों को जंगे ख़ैबर में भाग लेने से वंचित कर दिया परंतु जब मुसलमान ख़ैबर की ओर रवाना हुए तो सुल्हे हुदैबिया के विरोधियों ने अपनी कमी की भरपाई के बहाने पैग़म्बरे इस्लाम से मांग की कि उन्हें भी दूसरे मुसलमानों के साथ ख़ैबर चलने की अनुमति दें ताकि वे युद्ध में मिलने वाले माल से लाभांवित हो सकें परंतु पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें अल्लाह का आदेश पढ़कर सुनाया। इस प्रकार उन्हें जंगे ख़ैबर में हाज़िर होने से वंचित कर दिया।
रोचक बात यह है कि यह अवसरवादी गुट अपने को ज़िम्मेदार समझने के बजाये दूसरे को ज़िम्मेदार समझता था और कहा कि दूसरे मुसलमान ईर्ष्या की वजह से हमें जंगे ख़ैबर में नहीं ले चलना चाहते हैं और चाहते हैं कि सारा माले ग़नीमत उन्हें मिल जाये।
इस आयत से हमने सीखाः
जो लोग ख़तरे के समय सामाजिक दायित्वों को छोड़ देते हैं उन्हें समाज के कुछ संसाधनों व संभावनाओं से वंचित किया जाना चाहिये ताकि अवसरवादियों के विकास को रोका जा सके।
समस्त मुसलमान ईमानदार होने और अल्लाह के आदेशों के अनुसरण का दावा करते हैं परंतु कठिन समय में वास्तविक मोमिन और मुनाफ़िक़ एक दूसरे से पहचाने जाते हैं।
मुनाफ़िक़ों के आरोप लगाने से नहीं डरना चाहिये क्योंकि जो ग़लत कार्य उन्होंने अंजाम दिया है उस पर पर्दा डालने के लिए मोमिनों पर आरोप लगाते हैं।
आइये अब सूरे फ़त्ह की 16वीं आयत की तिलावत सुनते हैं
قُلْ لِلْمُخَلَّفِينَ مِنَ الْأَعْرَابِ سَتُدْعَوْنَ إِلَى قَوْمٍ أُولِي بَأْسٍ شَدِيدٍ تُقَاتِلُونَهُمْ أَوْ يُسْلِمُونَ فَإِنْ تُطِيعُوا يُؤْتِكُمُ اللَّهُ أَجْرًا حَسَنًا وَإِنْ تَتَوَلَّوْا كَمَا تَوَلَّيْتُمْ مِنْ قَبْلُ يُعَذِّبْكُمْ عَذَابًا أَلِيمًا (16)
इस आयत का अनुवाद हैः
जो गवॉर पीछे रह गए थे उनसे कह दो कि अनक़रीब ही तुम सख्त जंगजू क़ौम के (साथ लड़ने के) लिए बुलाए जाओगे कि तुम (या तो) उनसे लड़ते ही रहोगे या मुसलमान ही हो जाएँगे तो अगर तुम (ख़ुदा का) हुक्म मानोगे तो ख़ुदा तुमको अच्छा बदला देगा और अगर तुमने जिस तरह पहली दफ़ा नाफ़रमानी की थी अब भी नाफ़रमानी करोगे तो वह तुमको दर्दनाक अज़ाब की सज़ा देगा। [48:16]
इससे पहली वाली आयत में जंगे ख़ैबर में हाज़िर होने हेतु मुनाफ़िक़ों की मांग को रद्द कर दिया गया। यह आयत कहती है अगर वास्तव में अपनी ग़लती पर शर्मीन्दा हो तो सख़्ती के समय सामने आकर अपनी सच्चाई को साबित कर सकते हो और अल्लाह ने यह रास्ता खुला छोड़ रखा है ताकि तुम्हारी अतीत की ग़लतियों को माफ़ कर दे।
अलबत्ता अगर जंग में भाग लिया तो माले ग़नीमत की अपेक्षा न रखना और माले ग़नीमत की लालच में रणक्षेत्र में हाज़िर न होना। इस हालत में अल्लाह की कृपापात्र बनोगे और तुम्हारा शुमार अल्लाह की राह में जेहाद करने वालों में होगा मगर अगर उस रणक्षेत्र में भी सही से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाये और अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों से मुंह मोड़े तो कड़ा दंड तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
इस आयत से हमने सीखाः
सामाजिक व्यवस्था में इस बात का प्रावधान होना चाहिये कि अगर कोई अपनी ग़लती की भरपाई करना चाहता है तो उसके लिए रास्ता खुला होना चाहिये और हमेशा के लिए उनका बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिये।
दुश्मन को कभी भी कमज़ोर नहीं समझना चाहिये और अतीत की विजय को भविष्य की लड़ाइयों व युद्धों में विजय का कारण नहीं समझना चाहिये क्योंकि यह भी संभव है कि दुश्मन भी अपने आपको मज़बत कर ले और पहले से अधिक मज़बूती के साथ रणक्षेत्र में हाज़िर हो।
मुसलमानों की प्रतिरक्षा ताक़त इतनी मज़बूत होनी चाहिये जिससे दुश्मन आत्म समर्पण करने पर मजबूर हो जाये।
रणक्षेत्र में हाज़िर होने का उद्देश्य अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों का पालन होना चाहिये न कि माले ग़नीमत, सीमा का विस्तार या दूसरों पर वर्चस्व हासिल करना। अतः वास्तविक व सच्चे मुजाहिद अल्लाह की प्रसन्नता हासिल करने और उसके क्रोध व गज़ब से दूर रहने के प्रयास में रहते हैं।