क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-960
सूरए फ़तह ,आयतें 17 से 21
आइये सबसे पहले सूरए फ़त्ह की 17वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
لَيْسَ عَلَى الْأَعْمَى حَرَجٌ وَلَا عَلَى الْأَعْرَجِ حَرَجٌ وَلَا عَلَى الْمَرِيضِ حَرَجٌ وَمَنْ يُطِعِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ يُدْخِلْهُ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ وَمَنْ يَتَوَلَّ يُعَذِّبْهُ عَذَابًا أَلِيمًا (17)
इस आयत का अनुवाद हैः
(जेहाद से पीछे रह जाने का) न तो अन्धे ही पर कुछ गुनाह है और न लँगड़े पर गुनाह है और न बीमार पर गुनाह है और जो शख़्स ख़ुदा और उसके रसूल का हुक्म मानेगा तो वह उसको (बहिश्त के) उन सदाबहार बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें जारी होंगी और जो सरकशी करेगा वह उसको दर्दनाक अज़ाब की सज़ा देगा।[48:17]
इससे पहले वाले कार्यक्रम में अल्लाह ने जंग व जेहाद से मुंह मोड़ लेने वालों की आलोचना की है और उन्हें दंड का पात्र बताया है। स्वाभाविक है कि इस प्रकार के मुसलमानों के मध्य एसे,,, मुसलमान भी थे जो अपंग या बीमार थे और उनके अंदर दूसरे मुसलमानों के साथ जंग में जाने की ताक़त नहीं थी। उनमें से कुछ पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में पहुंचे और अपनी स्थिति के बारे में सवाल किया। उस समय पवित्र क़ुरआन की यह आयत नाज़िल हुई और उन लोगों के मामले को स्वस्थ मुसलमानों और पैग़म्बरे इस्लाम के आदेश से मुंह मोड़ लेने वाले मुसलमानों के मामले से भिन्न बताया।
इस्लाम का एक आदेश है जो हर धार्मिक आदेश पर लागू होता है और वह आदेश यह है कि अल्लाह किसी भी इंसान को वह काम करने के लिए नहीं कहता है जो उसकी क्षमता से बाहर हो। अल्लाह इंसान से वही काम करने के लिए कहता है जिसे वह कर सकता है और उसके अंदर उसे अंजाम देने की क्षमता हो।
नमाज़ पढ़ने की एक शर्त खड़ा होकर नमाज़ पढ़ना है मगर जो लोग बीमार हों और उनके अंदर खड़ा होकर नमाज़ पढ़ने की ताक़त न हो तो वे बैठकर नमाज़ पढ़ सकते हैं और जिसके अंदर बैठकर नमाज़ पढ़ने की ताक़त नहीं है तो वह लेटकर नमाज़ पढ़ सकता है। इसी तरह रोज़ा है। रोज़ा रखने से न केवल बीमार लोगों को मना किया गया है बल्कि उन स्वस्थ लोगों को भी रोज़ा रखने से मना किया गया है जो रोज़ा रखने की वजह से बीमार पड़ सकते हैं। इसी तरह से हज है। हज उस व्यक्ति पर वाजिब क़रार दिया गया है जिसके अंदर शारीरिक क्षमता मौजूद हो। अगर किसी के अंदर मक्का जाकर हज अंजाम देने की ताक़त नहीं है तो हज उस पर वाजिब नहीं है। इसी तरह जिस आयत के संबंध में चर्चा हो रही है उस पर भी यही क़ानून लागू होता है। यानी उस मुसलमान पर जेहाद और रणक्षेत्र में जाना अनिवार्य नहीं है जो बीमार व अपंग हो या उसके अंदर शारीरिक क्षमता न हो। इस प्रकार के व्यक्तियों को जंग में भाग लेने से माफ़ किया गया है।
इस आयत से हमने सीखाः
अल्लाह बीमारों और अपंगों पर विशेष ध्यान देता है और उन्हें कुछ धार्मिक दायित्वों को अंजाम देने से माफ़ किया है और सामाजिक क़ानून बनाने वालों और ज़िम्मेदारों को क़ानून बनाते समय इस बिन्दु को ध्यान में रखना चाहिये।
अल्लाह के आदेशों के सामने नतमस्तक होना महत्वपूर्ण है यद्यपि हालात, परिस्थिति और ताक़त के दृष्टिगत धार्मिक दायित्व भिन्न हैं।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 18वीं और 19वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
لَقَدْ رَضِيَ اللَّهُ عَنِ الْمُؤْمِنِينَ إِذْ يُبَايِعُونَكَ تَحْتَ الشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِي قُلُوبِهِمْ فَأَنْزَلَ السَّكِينَةَ عَلَيْهِمْ وَأَثَابَهُمْ فَتْحًا قَرِيبًا (18) وَمَغَانِمَ كَثِيرَةً يَأْخُذُونَهَا وَكَانَ اللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا (19)
इन आयतों का अनुवाद हैः
जिस वक़्त मोमेनीन तुमसे दरख़्त के नीचे (लड़ने मरने की) बैअत कर रहे थे ख़ुदा उनसे इस (बात पर) ज़रूर ख़ुश हुआ, जो कुछ उनके दिलों में था ख़ुदा ने उसे देख लिया फिर उन पर तसल्ली नाज़िल फ़रमाई और उन्हें उसके एवज़ में बहुत जल्द फ़तेह इनायत की। [48:18] और (इसके अलावा) बहुत सी ग़नीमतें (भी) जो उन्होंने हासिल कीं (अता फरमाई) और ख़ुदा तो ग़ालिब (और) हिकमत वाला है। [48:19]
इससे पहले वाले कार्यक्रमों में कहा गया था कि पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमान हज्जे उमरा अंजाम देने के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने एक सहाबी व अनुयाई को मक्का के प्रतिष्ठित लोगों के पास भेजा ताकि उन्हें वास्तविकता से अवगत करा सकें कि मुसलमान जंग करने के उद्देश्य से नहीं बल्कि ख़ानये काबा का दर्शन करने के लिए आ रहे हैं परंतु उन सबने पैग़म्बरे इस्लाम के प्रतिनिधि को पकड़ लिया। इस घटना के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने अनुयाइयों को हुदैबिया नामक क्षेत्र में एक पेड़ के नीचे इकट्ठा किया और उन सबसे इस बात के लिए बैअत लिया कि वे काफ़िरों व मुश्रिकों से जंग करने में किसी प्रकार की कोई ढ़िलाई व लापरवाही नहीं करेंगे और कोई भी रणक्षेत्र से भागेगा नहीं। जब इस बात की ख़बर काफ़िरों व मुश्रिकों को हुई तो डर से उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के प्रतिनिधि को छोड़ दिया और उसके बाद हुदैबिया नाम संधि हुई और बाद के वर्षों में हज्जे उमरा अंजाम देने का मार्ग प्रशस्त हुआ। उसके बाद मुसलमानों ने ख़ैबर को जीत लिया और मुसलमानों को बहुत अधिक माले ग़नीमत मिला।
इन आयतों से हमने सीखाः
ईमान नमाज़ और रोज़ा जैसे कुछ धार्मिक दायित्वों को अंजाम देने तक सीमित नहीं है बल्कि सामाजिक और राजनीतिक मंचों पर उपस्थिति और धार्मिक मार्गदर्शकों की सहायता भी धार्मिक दायित्व है।
ज़ाहिरी व विदित अमल के धोखे में हमें नहीं आना चाहिये। अल्लाह हमारी नियतों और कारणों से पूरी तरह अवगत है और उसके आधार पर हमें प्रतिदान देगा।
अल्लाह की ख़ुशी एक आध्यात्मिक चीज़ है। उसमें और मालेग़नीमत हासिल करने से कोई विरोधाभास नहीं है।
पैग़म्बरे इस्लाम और इस्लाम के दुश्मनों के मुक़ाबले में उनसे वफ़ादारी लोक-परलोक में अल्लाह की रहमत हासिल करने का रहस्य है।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 20वीं और 21वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
وَعَدَكُمُ اللَّهُ مَغَانِمَ كَثِيرَةً تَأْخُذُونَهَا فَعَجَّلَ لَكُمْ هَذِهِ وَكَفَّ أَيْدِيَ النَّاسِ عَنْكُمْ وَلِتَكُونَ آَيَةً لِلْمُؤْمِنِينَ وَيَهْدِيَكُمْ صِرَاطًا مُسْتَقِيمًا (20) وَأُخْرَى لَمْ تَقْدِرُوا عَلَيْهَا قَدْ أَحَاطَ اللَّهُ بِهَا وَكَانَ اللَّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرًا (21)
इन आयतों का अनुवाद हैः
ख़ुदा ने तुमसे बहुत सी ग़नीमतों का वादा फ़रमाया था कि तुम उन पर काबिज़ हो गए तो उसने तुम्हें ये (ख़ैबर की ग़नीमत) जल्दी से दिलवा दीं और (हुबैदिया से) लोगों की दस्तदराज़ी को तुमसे रोक दिया और लक्ष्य यह था कि मोमिनीन के लिए (क़ुदरत का) नमूना हो और ख़ुदा तुमको सीधी राह पर ले चले। [48:20] और दूसरी (ग़नीमतें भी) दीं जिन पर तुम क़ुदरत नहीं रखते थे (और) ख़ुदा ही उन पर हावी था और ख़ुदा तो हर चीज़ पर क़ादिर है। [48:21]
इससे पहली वाली आयतों में अल्लाह ने कहा था कि मोमिनों के प्रति उसकी कृपा सुल्हे हुदैबिया और ख़ैबर पर फ़त्ह करने तक सीमित नहीं है बल्कि मुसलमानों को भविष्य में वे कामयाबियां हासिल होंगी जिसकी कल्पना भी वे नहीं कर सकते और उन्हें हासिल करने की उनके अंदर क्षमता भी नहीं है।
अल्लाह अपनी आयतों को नाज़िल करके मोमिलों के दिलों को सुकून पहुंचाने के अलावा काफ़िरों के दिलों में रोब व भय डाल देता है ताकि वे अत्याचार करने से बाज़ आ जायें।
स्पष्ट है कि अल्लाह की यह मदद पैग़म्बरे इस्लाम की सच्चाई पर मोमिनों के ईमान में मज़बूती का कारण बनती है और हिदायत व सच्चाई के मार्ग में उनकी मज़बूती का कारण बनती है।
हमने इन आयतों से सीखाः
जंग में मिलने वाले दुश्मन के माल को ले लेना वैध है और अल्लाह ने इस कार्य का समर्थन किया है।
अल्लाह ने वादा किया है कि अगर तुमने उसके धर्म की मदद की और उसके प्रचार- प्रसार के लिए कोशिश की तो वह तुम्हें दुनियावी नेअमतें भी प्रदान करेगा।
दुश्मनों के प्रभाव का कम हो जाना और शांति स्थापित हो जाना बहुत बड़ी नेअमत है जिसका एहसान अल्लाह मोमिनों से जता रहा है।