क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-961
सूरए फ़तह , आयतें 22 से 25
आइये सबसे पहले सूरए फ़त्ह की 22वीं और 23वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
وَلَوْ قَاتَلَكُمُ الَّذِينَ كَفَرُوا لَوَلَّوُا الْأَدْبَارَ ثُمَّ لَا يَجِدُونَ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا (22) سُنَّةَ اللَّهِ الَّتِي قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلُ وَلَنْ تَجِدَ لِسُنَّةِ اللَّهِ تَبْدِيلًا (23)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(और) अगर कुफ्फ़ार तुमसे लड़ते तो ज़रूर पीठ फेर कर भाग जाते फिर वह न (अपना) किसी को सरपरस्त ही पाते न मददगार। [48:22] यही ख़ुदा की परम्परा है जो पहले ही से चली आती है और तुम ख़ुदा की परम्परा को बदलते न देखोगे। [48:23]
इससे पहले वाले कार्यक्रमों में सुल्हे हुदैबिया के बारे में चर्चा हुई थी। हुदैबिया मक्का के निकट एक क्षेत्र है और यह सुल्ह पैग़म्बरे इस्लाम और मक्का के काफ़िरों के मध्य हुई थी। इस सुल्ह के कारण कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम और मुसलमानों को गिरी हुई नज़र से देखते और कहते थे कि कमज़ोरी की वजह से यह सुल्ह की है और अगर जंग होती तो हार जाते। सूरये फ़त्ह की 22वीं-23वीं आयतें इन लोगों का जहां जवाब देती हैं वहीं मुसलमानों को ढ़ारस बधाती और बल देकर कहती हैं कि इस प्रकार की बात निराधार है। सिद्धांतिक रूप से जब भी अल्लाह पर ईमान लाने वाले भौतिक लक्ष्यों और मतभेदों से हटकर केवल अल्लाह की प्रसन्नता के लिए रणक्षेत्र में जाते हैं और अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों का पालन करते हैं तो अल्लाह की परम्परा व सुन्नत दुश्मनों के मुक़ाबले में मुसलमानों की सहायता करना है और यह वह बात है जो जंगे बद्र और जंगे अहज़ाब व खंदक में अनुभवों से साबित हो चुकी है और अल्लाह की मदद की वजह से थोड़े से मोमिनों ने बहुत से काफ़िरों और मुश्रिकों पर विजय हासिल की।
इन आयतों से हमने सीखाः
जो अल्लाह का इंकार करता है वास्तव में वह ख़ुद को अल्लाह की मदद व सहायता से वंचित कर लेता है।
बातिल पर हक़ की विजय और काफ़िरों के मुक़ाबले में मोमिनों की मदद अल्लाह की निश्चित परम्परा में से है।
अल्लाह का क़ानून व्यापक है वह किसी ज़मान और मकान से विशेष नहीं है। अतः समय बीतने से वह पुराना व अनुपयोगी नहीं होगा।
आइये अब सूरए फ़त्ह की 24वीं और 25वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
وَهُوَ الَّذِي كَفَّ أَيْدِيَهُمْ عَنْكُمْ وَأَيْدِيَكُمْ عَنْهُمْ بِبَطْنِ مَكَّةَ مِنْ بَعْدِ أَنْ أَظْفَرَكُمْ عَلَيْهِمْ وَكَانَ اللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرًا (24) هُمُ الَّذِينَ كَفَرُوا وَصَدُّوكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَالْهَدْيَ مَعْكُوفًا أَنْ يَبْلُغَ مَحِلَّهُ وَلَوْلَا رِجَالٌ مُؤْمِنُونَ وَنِسَاءٌ مُؤْمِنَاتٌ لَمْ تَعْلَمُوهُمْ أَنْ تَطَئُوهُمْ فَتُصِيبَكُمْ مِنْهُمْ مَعَرَّةٌ بِغَيْرِ عِلْمٍ لِيُدْخِلَ اللَّهُ فِي رَحْمَتِهِ مَنْ يَشَاءُ لَوْ تَزَيَّلُوا لَعَذَّبْنَا الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا (25)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और वह वही तो है जिसने तुमको उन कुफ्फ़ार पर फ़तह देने के बाद मक्के की सरहद पर उनके हाथ तुमसे और तुम्हारे हाथ उनसे रोक दिए और तुम लोग जो कुछ भी करते थे ख़ुदा उसे देख रहा था। [48:24] ये वही लोग तो हैं जिन्होने कुफ़्र किया और तुमको मस्जिदुल हराम (में जाने) से रोका और क़ुरबानी के जानवरों को भी (न आने दिया) कि वे अपनी (मुक़र्रर) जगह (में) पहुँचने से रूके रहे और अगर कुछ ऐसे ईमान वाले मर्द और ईमान वाली औरतें न होती जिनसे तुम वाक़िफ न थे कि तुम उनको (लड़ाई में कुफ्फ़ार के साथ) पामाल कर डालते तो तुमको उनकी तरफ़ से बेख़बरी में नुकसान पहुँच जाता और उनका हरजाना तुम्हारी गर्दन पर होता (तो हम तुमको हमले का फ़रमान दे देते लेकिन हमने यह फ़रमान न दिया) कि ख़ुदा जिसे चाहे अपनी रहमत में दाख़िल करे और अगर वे (ईमान वाले, कुफ्फ़ार से) अलग हो जाते तो उनमें से जो लोग काफ़िर थे हम उन्हें दर्दनाक अज़ाब की ज़रूर सज़ा देते। [48:25]
इन आयतों में अल्लाह सुल्हे हुदैबिया के संबंध में दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर संकेत करता है। पहला बिन्दु यह है कि यह सुल्ह वास्तव में जंग और रक्तपात के बिना काफ़िरों व मुश्रिकों पर बहुत बड़ी विजय का कारण बनेगी। क्योंकि मुसलमान काफ़िरों के क्षेत्र में थे और वे मुसलमानों को ख़त्म कर सकते थे परंतु जब मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम से इस बात की बैअत की कि वे काफ़िरों व मुश्रिकों से जंग करेंगे तो काफ़िरों के दिलों पर इस प्रकार का भय और रोब छा गया कि उन्होंने शांति व सुलह का प्रस्ताव दिया।
दूसरा बिन्दु यह है कि मक्का नगर में कुछ मुसलमान भी रहते थे जो कुछ कारणों से मदीना पलायन नहीं किये थे। अगर अल्लाह मक्का पर हमला करने का आदेश देता तो उन मुसलमानों की जान ख़तरे में पड़ जाती जो मक्का में रहते थे और पैग़म्बरे इस्लाम के साथ आने वाले मुसलमान उन्हें नहीं पहचानते थे और अगर युद्ध होता तो मुसलमान अपने भाइयों की भी हत्या करते।
आइये देखते हैं कि हमने इन आयतों से क्या सीखाः
कभी सुल्ह विजय की अलामत होती है। अलबत्ता यह उस समय है जब ईमानदार और जागरूक नेता इस्लामी समाज के हितों को ध्यान में रखकर निर्णय लें।
जब दुश्मन जंग से पीछे हट जायें तो जंग और लड़ाई आरंभ करने वाला नहीं होना चाहिये।
मक्का, मक्का शहर में रहने वालों से विशेष नहीं है और किसी को भी ख़ानये काबा का दर्शन करने के लिए आने वाले इंसान को रोकने का अधिकार नहीं है।
जंग के समय जहां तक संभव हो सके निर्दोष लोगों को हत्या से बचाया जाना चाहिये और दुश्मन पर हावी होने के लिए हर काम नहीं कर सकते।
इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि दुश्मन को कोई बहाना न मिल जाये और हर उस काम से परहेज़ करना चाहिये जो इस्लाम और मुसलमानों की बदनामी का कारण बने।