क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-975
सूरए ज़ारियात आयतें, 24 से 37
आइये सबसे पहले सूरए ज़ारियात की 24वीं से 30वीं तक की आयतों की तिलावत सुनते हैं,
هَلْ أَتَاكَ حَدِيثُ ضَيْفِ إِبْرَاهِيمَ الْمُكْرَمِينَ (24) إِذْ دَخَلُوا عَلَيْهِ فَقَالُوا سَلَامًا قَالَ سَلَامٌ قَوْمٌ مُنْكَرُونَ (25) فَرَاغَ إِلَى أَهْلِهِ فَجَاءَ بِعِجْلٍ سَمِينٍ (26) فَقَرَّبَهُ إِلَيْهِمْ قَالَ أَلَا تَأْكُلُونَ (27) فَأَوْجَسَ مِنْهُمْ خِيفَةً قَالُوا لَا تَخَفْ وَبَشَّرُوهُ بِغُلَامٍ عَلِيمٍ (28) فَأَقْبَلَتِ امْرَأَتُهُ فِي صَرَّةٍ فَصَكَّتْ وَجْهَهَا وَقَالَتْ عَجُوزٌ عَقِيمٌ (29) قَالُوا كَذَلِكَ قَالَ رَبُّكِ إِنَّهُ هُوَ الْحَكِيمُ الْعَلِيمُ (30)
इन आयतों का अनुवाद हैः
क्या तुम्हारे पास इबराहीम के सम्मानित मेहमानों (फ़रिश्तों) की भी ख़बर पहुँची है कि जब वो लोग उनके पास आए [51:24] तो कहने लगे सलामुन अलैकुम तो इबराहीम ने भी (अलैकुम) सलाम किया (देखा तो) ऐसे लोग जो परिचित नहीं हैं [51:25] फिर अपने घर जाकर जल्दी से (भुना हुआ) एक मोटा ताज़ा बछड़ा ले आए [51:26] और उसे उनके आगे रख दिया (फिर) कहने लगे आप लोग नोश क्यों नहीं करते[51:27] (इस पर भी न खाया) तो इबराहीम उनसे दिल ही दिल में डरे, वे बोले आप चिंता न करें और उनको एक ज्ञानी लड़के की ख़ुशख़बरी दी[51:28] तो (ये सुनते ही) इबराहीम की बीवी (सारा) चिल्लाती हुई उनके सामने आयीं और अपना मुँह पीट लिया, कहने लगीं बांझ बुढ़िया (लड़का कैसे होगा) [51:29] फ़रिश्ते बोले तुम्हारे परवरदिगार ने यूँ ही फ़रमाया है वह बेशक हिकमत वाला जानकार है [51:30]
इन आयतों में हज़रत इब्राहीम पर फ़रिश्तों के नाज़िल होने के बारे में बात की गयी है। अल्लाह के फ़रिश्ते अनजान इंसान के रूप में हज़रत इब्राहीम पर नाज़िल हुए थे। फ़रिश्तों को दो महत्वपूर्ण बातें हज़रत इब्राहीम तक पहुंचानी थी। एक बुढ़ापे में हज़रत इब्राहीम को बेटा पैदा होने की सूचना देनी थी और दूसरे हज़त लूत की क़ौम पर अज़ाब नाज़िल होने की ख़बर देनी थी।
इन आयतों में सबसे पहले यह बयान किया गया है कि फ़रिश्ते किस प्रकार हज़रत इब्राहीम पर नाज़िल हुए। हज़रत इब्राहीम पर जो फ़रिश्ते नाज़िल हुए थे उन्हें उन्होंने नहीं पहचाना और मेहमान के रूप में उन्हें क़बूल किया और उनका सत्कार किया। हज़रत इब्राहीम ने अपने अनजान मेहमानों की सेवा सत्कार की चीज़ों को तैयार किया और एक जानवर को ज़िब्ह किया और उसके मांस को भूना। मगर जब उन्होंने देखा कि मेहमान ख़ाना ही नहीं खा रहे हैं तो वे चिंतित हो गये और सोचा कि शायद ये अनजान मेहमान किसी बुरे इरादे से आये हैं। क्योंकि प्राचीन समय में यह परम्परा थी कि अगर कोई किसी के लिए भोजन तैयार करता था और वह खा लेता था तो इसका मतलब यह था कि मेहमान अपने मेज़बान को नुकसान नहीं पहुंचायेगा। अतः हज़रत इब्राहीम ने अपने मेहमानों से खाना न खाने का कारण पूछा तो उस वक़्त उन सबने बताया कि हम फ़रिश्ते हैं और दूसरे फ़रिश्तों की भांति वे खाना नहीं खाते हैं।
इसकी क्या वजह और क्या राज़ था कि फ़रिश्तों ने आरंभ में हज़रत इब्राहीम से नहीं बताया कि वे फ़रिश्ते हैं ताकि वे उनके खाने पीने के लिए इतना प्रबंध न करते? शायद इसकी वजह हज़रत इब्राहीम की मेहमान नवाज़ी की परीक्षा लेना था। साथ ही हज़रत इब्राहीम ने खाने पीने का जो प्रबंध किया था तो उसके जवाब में फ़रिश्तों ने उन्हें शुभसूचना दी कि अल्लाह शीघ्र ही उन्हें बेटा प्रदान करेगा जो अपने समय का नबी और आलिम होगा। यह वह समय था जब हज़रत इब्राहीम और उनकी पत्नी दोनों बूढ़े थे और उनकी पत्नी बांझ थी। इसलिए जब यह बात हज़रत इब्राहीम ने अपनी पत्नी सारा को बतायी तो उन्होंने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई और कहा कि अब जबकि मैं बूढ़ी हो चुकी हूं और संतान होने की संभावना मेरे अंदर नहीं है। यह कैसे संभव है कि मुझे संतान होगी? मानो वह अल्लाह के इरादे और ताक़त से बेख़बर हो चुकी थीं।
इन आयतों से हमने सीखाः
मेहमान की आवभगत अल्लाह के पैग़म्बरों का आचरण है। यद्यपि मेहमान अनजान व अपरिचित ही क्यों न हो और मेहमान से न तो मेज़बान की दोस्ती हो और न ही निकट संबंध।
सलाम करना एक आसमानी परम्परा है और फ़रिश्तों ने भी अपनी बात का आरंभ सलाम से किया। मेहमान की आवभगत में खुले दिल का होना चाहिये और कम से कम को काफ़ी नहीं समझना चाहिये।
समस्त पैग़म्बर इंसान थे और स्वाभाविक रूप से वे भी कभी किसी चीज़ से डर और चिंतित हो जाते थे। अल्लाह की शक्ति की कोई सीमा नहीं है और वह समस्त प्राकृतिक कारणों पर हावी है। मिसाल के तौर पर हज़रत इब्राहीम और उनकी पत्नी दोनों बूढ़े थे और उनकी पत्नी सारा बांझ थीं मगर अल्लाह ने उन्हें बुढ़ापे में बेटा अता किया। इस आधार पर अल्लाह की असीमित दया से कभी भी निराश नहीं होना चाहिये।
आइये अब सूरए ज़ारियात की 31वीं से 37वीं तक की आयतों की तिलावत सुनते हैं,
قَالَ فَمَا خَطْبُكُمْ أَيُّهَا الْمُرْسَلُونَ (31) قَالُوا إِنَّا أُرْسِلْنَا إِلَى قَوْمٍ مُجْرِمِينَ (32) لِنُرْسِلَ عَلَيْهِمْ حِجَارَةً مِنْ طِينٍ (33) مُسَوَّمَةً عِنْدَ رَبِّكَ لِلْمُسْرِفِينَ (34) فَأَخْرَجْنَا مَنْ كَانَ فِيهَا مِنَ الْمُؤْمِنِينَ (35) فَمَا وَجَدْنَا فِيهَا غَيْرَ بَيْتٍ مِنَ الْمُسْلِمِينَ (36) وَتَرَكْنَا فِيهَا آَيَةً لِلَّذِينَ يَخَافُونَ الْعَذَابَ الْأَلِيمَ (37)
इन आयतों का अनुवाद हैः
तब इबराहीम ने पूछा कि (ऐ ख़ुदा के) भेजे हुए फरिश्तों आख़िर तुम्हें क्या मुहिम दर पेश है[51:31] वे बोले हम तो गुनहगारों (क़ौमे लूत) की तरफ़ भेजे गए हैं[51:32] ताकि उन पर मिटटी के पथरीले टुकड़े बरसाएँ[51:33] जिन पर हद से बढ़ जाने वालों के लिए तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से निशान लगा दिए गए हैं [51:34] वहाँ जितने लोग मोमेनीन थे उनको हमने निकाल दिया [51:35] और वहाँ तो हमने एक के सिवा मुसलमानों का कोई घर पाया ही नहीं [51:36] और जो लोग दर्दनाक अज़ाब से डरते हैं उनके लिए वहाँ (इबरत की) निशानी छोड़ दी और मूसा (के हाल) में भी (निशानी है) [51:37]
फ़रिश्तों ने हज़रत इब्राहीम को बेटे की शुभसूचना देने के बाद एलान किया कि उनकी अस्ली ज़िम्मेदारी क़ौमे लूत को तबाह करना है। यह वह क़ौम थी जिसके मध्य समलैंगिता जैसा अनैतिक कार्य प्रचलित था और वह क़ौम अपने बुरे कार्य को ग़लत भी नहीं समझती थी और वह हज़रत लूत की ओर से दी जाने वाली चेतावनी पर ध्यान भी नहीं देती थी। हज़रत लूत को हज़रत इब्राहीम ने अल्लाह की ओर से उस भ्रष्ट क़ौम के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी सौंप रखी थी। इसलिए फ़रिश्ते सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के पास पहुंचे ताकि उन्हें अज़ाबे एलाही से अवगत कर दें और हज़रत लूत को विश्वास दिला दें कि वह और उनकी क़ौम के मोमिन लोग इस अज़ाब से बच जायेंगे।
इन आयतों से हमने सीखाः
अपराधियों को दंडित करना क़यामत से विशेष नहीं है। कुछ लोगों और कुछ क़ौमों को इसी दुनिया में दंडित किया जायेगा। यह संभव है कि कोई समाज भ्रष्ट हो और उसमें भ्रष्टाचार की भूमि प्रशस्त हो फिर भी उसमें सुरक्षित ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती है। तो फिर किसी को अपने गुनाहों का औचित्य दर्शाने के लिए यह नहीं कहना चाहिये कि समाज ग़लत था और समाज में रहने वाले ग़लत काम करते थे इसलिए हमने भी ग़लत कार्य किया।
न्याय पर आधारित अल्लाह की व्यवस्था में अगर समाज के अधिकांश लोग गुनाह करते हैं तो समाज के निर्दोष लोग अज़ाबे एलाही का शिकार नहीं होंगे और अंत में वे नजात पा जायेंगे।
प्राचीन अत्याचारी क़ौमों के जो अवशेष बाक़ी हैं वे भविष्य में आने वाले लोगों और पीढ़ियों के लिए पाठ हैं कि वे अल्लाह की अवज्ञा करने से परहेज़ करें।