Jun ०९, २०२५ १५:२८ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-990

सूरए क़मर आयतें, 23 से 32

आइए सबसे पहले सूरए क़मर की आयत संख्या 23 से 26 तक की तिलावत सुनते हैं,

كَذَّبَتْ ثَمُودُ بِالنُّذُرِ (23) فَقَالُوا أَبَشَرًا مِنَّا وَاحِدًا نَتَّبِعُهُ إِنَّا إِذًا لَفِي ضَلَالٍ وَسُعُرٍ (24) أَؤُلْقِيَ الذِّكْرُ عَلَيْهِ مِنْ بَيْنِنَا بَلْ هُوَ كَذَّابٌ أَشِرٌ (25) سَيَعْلَمُونَ غَدًا مَنِ الْكَذَّابُ الْأَشِرُ (26)

इन आयतों का अनुवाद है,

(क़ौमे) समूद ने डराने वाले (पैग़म्बरों) को झुठलाया [54:23]  तो कहने लगे कि भला एक आदमी कि जो हम ही में से हो उसकी पैरवीं करें, ऐसा करें तो गुमराही और दीवानगी में पड़ गए [54:24]  क्या हम सबमें बस उसी पर वहि नाज़िल हुई है (नहीं) बल्कि ये तो बड़ा झूठा  बड़ी बड़ी बातें करने वाला है [54:25]   उनको अनक़रीब कल ही मालूम हो जाएगा कि कौन बड़ा झूठा तकब्बुर करने वाला है[54:26]  

पिछले कार्यक्रमों में हमने हज़रत नूह और आद की क़ौमों की कहानी सुनाई थी। आज हम सामूद क़ौम की दास्तान जानेंगे। यह लोग अरब के उत्तरी हिस्से में रहते थे और उनके पैग़म्बर हज़रत सालेह थे। लेकिन यह लोग अहंकार और घमंड में डूबे हुए थे, इसलिए अल्लाह के इस नबी की चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करते रहे और अपने बुरे कामों से बाज़ नहीं आए। 

वे न केवल उनके दावे को झूठा बताते थे, बल्कि उन्हें गुमराह और पागल तक कहने लगे। उनका कहना था कि अगर हमने इनकी बात मान ली तो हम भी गुमराह और पागल हो जाएँगे। 

इसके अलावा भी उनके पास हज़रत सालेह का विरोध करने के और भी बहाने थे। वे कहते थे -"यह आदमी तो हमारे जैसा ही एक साधारण इंसान है, हमारे बीच ही रहता है। न इसके पास कोई ताक़त है, न दौलत और न ही कोई बड़ा समर्थन। फिर यह कैसे दावा कर सकता है कि अल्लाह ने इसे हमारी हिदायत के लिए भेजा है?"

इन आयतों से हमने सीखाः

पैग़म्बरों की एक ख़ासियत यह रही है कि वे आम लोगों में से ही उठाए गए ताकि वे लोगों के लिए एक नमूना बन सकें। 

कभी-कभी इंसान इतना गिर जाता है कि पैग़म्बरों जैसे पाक और सच्चे लोगों की बात मानने से इनकार कर देता है, जबकि वही इंसान या तो अत्याचारी शासकों के गुलाम बन जाते हैं या फिर बेजान मूर्तियों की पूजा करने लगते हैं

पैग़म्बरों पर झूठा और घमंडी होने का इल्ज़ाम लगाना, विरोधियों का पुराना हथकंडा रहा है। हालाँकि असल में यही चीज़ें उन विरोधियों में होती हैं। 

आइए अब सूरए क़मर आयत नंबर 27 से 29 तक की तिलावत सुनते हैं:

إِنَّا مُرْسِلُو النَّاقَةِ فِتْنَةً لَهُمْ فَارْتَقِبْهُمْ وَاصْطَبِرْ (27) وَنَبِّئْهُمْ أَنَّ الْمَاءَ قِسْمَةٌ بَيْنَهُمْ كُلُّ شِرْبٍ مُحْتَضَرٌ (28) فَنَادَوْا صَاحِبَهُمْ فَتَعَاطَى فَعَقَرَ (29)

इन आयतों का अनुवाद हैः

 (ऐ सालेह) हम उनकी आज़माइश के लिए ऊँटनी भेजने वाले हैं तो तुम उनको देखते रहो और (थोड़ा) सब्र करो [54:27]     और उनको ख़बर कर दो कि उनमें पानी की बारी मुक़र्रर कर दी गयी है हर (बारी  वाले को अपनी) बारी पर हाज़िर होना चाहिए [54:28]तो उन लोगों ने अपने साथी को बुलाया तो उसने पकड़ कर (ऊँटनी को) मार डाला [54:29]  

यह बात स्पष्ट है कि हर कोई जो पैग़म्बरी का दावा करे, उसे बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसे अपनी सच्चाई साबित करने के लिए कोई अलौकिक निशानी या मोजिज़ा पेश करना होगा। 

अल्लाह के हुक्म से एक विशालकाय ऊँटनी, जो सामान्य ऊँटों से बिल्कुल अलग थी, पहाड़ से निकलकर आई। इस ऊँटनी की पानी पीने की मात्रा इतनी अधिक थी कि लोगों को अपने और उसके बीच पानी की बारी-बारी से व्यवस्था करनी पड़ी। 

यह एक इलाही इम्तिहान था। लोगों को चाहिए था कि वे इस बँटवारे का पालन करें और अपनी निर्धारित बारी पर ही पानी लेने आएँ। 

लेकिन सामूद क़ौम के सरदार ने, जो इस मोजिज़े को झुठला नहीं पा रहे थे, ऊँटनी को मार डालने का फ़ैसला किया और एक व्यक्ति को इस काम के लिए नियुक्त किया। हज़रत सालेह ने उन्हें चेतावनी दी कि मोजिज़ा देखने के बाद भी इनकार और हठधर्मी करने से अज़ाब नाज़िल होगा। मगर उन्होंने सालेह की चेतावनियों को अनसुना कर दिया और ऊँटनी को मार डाला। 

इन आयतों से हमने सीखाः

अल्लाह के मोजिज़े लोगों के इम्तिहान का भी ज़रिया होते हैं, ताकि पता चले कि कौन सच्चाई को पहचानने और स्वीकार करने वाला है और कौन सिर्फ़ ज़िद और दुश्मनी की वजह से हक़ का विरोध करता है। 

जब तक लोगों पर पूरी तरह हुज्जत पूरी नहीं हो जाती, अल्लाह किसी को सज़ा नहीं देता और न ही अज़ाब भेजता है। 

पैग़म्बरों के विरोधी अपने गंदे मक़सद को पूरा करने के लिए बुरे और ख़ूनख़राबे वाले लोगों का इस्तेमाल करते हैं। 

आइए अब सूरए क़मर की आयत नंबर 30 से 32 तक की तिलावत सुनते हैं:

فَكَيْفَ كَانَ عَذَابِي وَنُذُرِ (30) إِنَّا أَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ صَيْحَةً وَاحِدَةً فَكَانُوا كَهَشِيمِ الْمُحْتَظِرِ (31) وَلَقَدْ يَسَّرْنَا الْقُرْآَنَ لِلذِّكْرِ فَهَلْ مِنْ مُدَّكِرٍ (32)

इन आयतों का अनुवाद हैः

तो (देखो) मेरा अज़ाब और डराना कैसा था [54:30]    हमने उन पर एक सख़्त चिंघाड़ का अज़ाब भेज दिया तो वे सूखे हुए चूर चूर भूसे की तरह हो गए [54:31]   और हमने क़ुरान को नसीहत हासिल करने के वास्ते आसान कर दिया है तो कोई है जो नसीहत हासिल करे  [54:32]

जब हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम की निशानी के रूप में अल्लाह की भेजी हुई ऊँटनी को क़ौम-ए-समूद ने मार डाला, तो अल्लाह का ग़ज़ब आसमानी बिजली के रूप में नाज़िल हुआ। एक भयानक कड़क के साथ वह बिजली गिरी जिसने पूरी क़ौम को ऐसे जमा दिया जैसे कोई चरवाहा सूखी घास को कूट-पीसकर रख देता है। वे सब के सब एक ही पल में ऐसे मर गए जैसे कटी हुई घास के ढेर। 

क़ौम-ए-समूद की इस दर्दनाक दास्तान को ख़त्म करते हुए अल्लाह एक बार फिर याद दिलाता है कि क़ुरआन का उतरना सिर्फ़ एक नसीहत और चेतावनी है, ताकि इंसान अपने सामने मौजूद ख़तरों को पहचाने, उनसे बचने की कोशिश करे और दुनिया व आख़ेरत में अल्लाह के अज़ाब में न फँस जाए। 

इन आयतों से हमने सीखाः 

हालाँकि ऊँटनी को क़त्ल करने वाला एक ही शख़्स था, लेकिन क्योंकि पूरी क़ौम ने उसके इस काम को मंज़ूरी दी थी, क़ुरआन ने इस जुर्म का इल्ज़ाम सभी पर लगाया। इस तरह सभी अज़ाब के हक़दार बन गए। 

अल्लाह के इरादे के आगे कोई भी टिक नहीं सकता। समूद क़ौम के ताक़तवर और हट्टे-कट्टे लोग ऐसे गिरे जैसे सूखी लकड़ियाँ टूटकर बिखर जाती हैं। 

क़ुरआन कोई इतिहास की किताब नहीं है, लेकिन यह पिछली क़ौमों के हालात को सही और सच्चे तरीक़े से बयान करता है ताकि लोगों के लिए इबरत (सबक) का सामान हो।