क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-995
सूरए रहमान आयतें, 19 से 30
आइए सबसे पहले सूरए रहमान की आयत संख्या 19 से 21 तक की तिलावत सुनते हैं,
مَرَجَ الْبَحْرَيْنِ يَلْتَقِيَانِ (19) بَيْنَهُمَا بَرْزَخٌ لَا يَبْغِيَانِ (20) فَبِأَيِّ آَلَاءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ (21)
इन आयतों का अनुवाद हैः
उसी ने (मीठे और खारे दो) समुद्र बहाए जो आपस में मिल जाते हैं [55:19]दोनों के दरमियान एक हद्दे फ़ासला है जिससे वो आगे नहीं बढ़ सकते [55:20] तो (ऐ जिन व इन्स) तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेमत को झुठलाओगे। [55:21]
पिछले आयतों में अल्लाह की नेमतों का वर्णन किया गया था। अब ये आयतें समुद्रों के रूप में मिलने वाली नेमतों की बात करती हैं। पृथ्वी की सतह का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा समुद्रों और महासागरों से ढका हुआ है। समुद्र मनुष्य के लिए आहार का एक विशाल स्रोत हैं, जैसे कि मछलियाँ और अन्य समुद्री जीव। साथ ही, ये मनुष्यों और सामानों की ढुलाई के लिए एक महत्वपूर्ण मार्ग भी हैं। बारिश, मौसम का संतुलन और यहाँ तक कि धरती पर हवाओं का चलना भी समुद्रों के ही फायदे हैं।
ये आयतें कुछ महासागरों में होने वाली एक अद्भुत घटना की ओर इशारा करती हैं: मीठे और खारे पानी की धाराएँ एक साथ बहती हैं, लेकिन आपस में नहीं मिलतीं। मानो उनके बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी कर दी गई हो जो उन्हें एक-दूसरे पर हावी होने से रोकती है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण अटलांटिक महासागर में बहने वाली 'गल्फ स्ट्रीम' धारा है। इस समुद्री धारा में भूमध्य रेखा के पास से आने वाला गर्म पानी पूरे अटलांटिक महासागर से होकर उत्तरी यूरोप के तटों तक पहुँचता है। इस धारा का पानी आस-पास के पानी से 10 से 15 डिग्री तक अधिक गर्म होता है। ये विशाल समुद्री नदियाँ आसपास के पानी के साथ बहुत कम मिलती हैं और हज़ारों किलोमीटर तक अलग-अलग ही बहती रहती हैं।
इन आयतों से हम सीखते हैं:
प्रकृति अल्लाह की शक्ति और दया का प्रतीक है, और समुद्र व महासागर उसकी शक्ति के सबसे बड़े नमूने हैं।
प्रकृति के नियम अल्लाह की इच्छा के अधीन हैं, न कि उसकी इच्छा पर हावी हों। खारा और मीठा पानी - जो स्वाभाविक रूप से आपस में मिल जाना चाहिए - एक साथ बहते हैं, पर मिलते नहीं।
अब आइए सूरए अर-रहमान की आयत नंबर 22 से 25 तक की तिलावत सुनते हैं:
يَخْرُجُ مِنْهُمَا اللُّؤْلُؤُ وَالْمَرْجَانُ (22) فَبِأَيِّ آَلَاءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ (23) وَلَهُ الْجَوَارِ الْمُنْشَآَتُ فِي الْبَحْرِ كَالْأَعْلَامِ (24) فَبِأَيِّ آَلَاءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ (25)
इन आयतों का अनुवाद हैः
इन दोनों समंदरों से मोती और मूँगे निकलते हैं। [55:22] तो (जिन व इन्स) तुम दोनों अपने परवरदिगार की कौन कौन सी नेमत को झुठलाओगे। [55:23] और जहाज़ जो सागर में पहाड़ों की तरह ऊँचे खड़े रहते हैं उसी के हैं। [55:24] तो (ऐ जिन व इन्स) तुम अपने परवरदिगार की किस किस नेमत को झुठलाओगे? [55:25]
ये आयतें इंसानी ज़िंदगी में समुद्र के दो अहम रोल की ओर इशारा करते हुए कहती हैं: मोती और मूंगे, जिनका इंसानी जीवन में कई तरह से इस्तेमाल होता है, समुद्र और महासागरों की गहराइयों से निकाले जाते हैं। मोती, जो सीपियों के अंदर पनपता है, दुनिया की सबसे क़ीमती सजावटी चीज़ों में से एक है और सदियों से तटवासियों के लिए कमाई और व्यापार का एक बड़ा ज़रिया रहा है।
लेकिन शायद समुद्र का सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि यह बड़े पैमाने पर सामान और ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों को ढोने का एक विशाल माध्यम है। विशालकाय जहाज़ लाखों टन माल को दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाते हैं। ग़ौरतलब है कि ज़मीनी और रेल मार्गों के निर्माण और रखरखाव में अरबों डॉलर खर्च होते हैं, जबकि समुद्री मार्ग बिल्कुल मुफ़्त हैं और इंसान के लिए खुले हुए हैं।
इन आयतों से हम सीखते हैं:
भले ही इंसान ज़मीन पर रहता है, लेकिन समुद्र और महासागर भी उसकी सेवा में लगे हैं और उसकी ज़रूरतों को पूरा करते हैं।
समुद्र, माल और यात्रियों की ढुलाई में अहम भूमिका निभाते हैं और सदियों से इंसान के लिए एक विशाल, मुफ़्त रास्ता रहे हैं।
जो लोग ख़ुदा के होने से इनकार करते हैं, वे कैसे ज़मीन और समुद्र में दी गई इतनी बड़ी नेमतों को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं और उसका एहसान नहीं मानते?
अब आइए सूरए अर-रहमान की आयत नंबर 26 से 30 तक की तिलावत सुनते हैं,
كُلُّ مَنْ عَلَيْهَا فَانٍ (26) وَيَبْقَى وَجْهُ رَبِّكَ ذُو الْجَلَالِ وَالْإِكْرَامِ (27) فَبِأَيِّ آَلَاءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ (28) يَسْأَلُهُ مَنْ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ كُلَّ يَوْمٍ هُوَ فِي شَأْنٍ (29) فَبِأَيِّ آَلَاءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ (30)
इन आयतों का अनुवाद हैः
जो कुछ भी उस (ज़मीन) पर है सब फ़ना होने वाला है [55:26] और सिर्फ़ तुम्हारे परवरदिगार की ज़ात जो अज़मत और करामत वाली है बाक़ी रहेगी। [55:27] तो तुम दोनों अपने परवरदिगार की किस किस नेमत से इन्कार करोगे? [55:28] और जो कोई भी सारे आसमानों व ज़मीन में है (सब) उसी से माँगते हैं वह हर रोज़ (हर वक़्त) मख़लूक के एक न एक काम में है। [55:29] तो तुम दोनों अपने परवरदिगार की कौन कौन सी नेमत से मुकरोगे? [55:30]
पिछले आयतों के बाद, यह आयतें इंसान की धरती पर छोटी सी उम्र की ओर इशारा करते हुए कहती हैं "आख़िर वह इंसान कैसा है जो मरने के साथ ही दुनिया में कोई भी काम करने से लाचार हो जाता है और मौत से ख़ुद को बचाने की कोई ताक़त नहीं रखता, मगर फिर भी वह इतने महान और ख़ूबसूरती के मालिक अल्लाह के सामने बग़ावत करता है और उसकी नेमतों को झुठलाता है?"
दुनिया और उसमें रहने वाले सभी जीव हमेशा बदलाव और विनाश के रास्ते पर हैं। जो हमेशा से था और हमेशा रहेगा, वह सिर्फ अल्लाह की ज़ात है - वही एक ऐसा खुदा है जो सारी संपूर्णताओं का मालिक है और पूरी कायनात का बनाने वाला है।
सारी मखलूक़ें हर पल उसी की मोहताज हैं और अपनी ज़रूरतें उसी से मांगती हैं, भले ही ज़बान से कुछ न कहें या उसके होने से ही इनकार कर दें।
इन आयतों से हमने सीखाः
मौत एक सार्वभौमिक नियम है जो अल्लाह को छोड़कर हर चीज़ को अपनी चपेट में ले लेता है।
हमें अल्लाह के सिवा किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि बाक़ी सब फ़ना होने वाले हैं।
यह दुनिया एक तरफ़ तो अपने रब की शान और बड़ाई का नमूना है, तो दूसरी तरफ़ मख़लूक पर उसकी मेहरबानी और रहमत की निशानी है।
जिस ख़ुदा ने इस दुनिया को बनाया, उसने इसे यूं ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि वह अपने इल्म और हिकमत के मुताबिक़ हमेशा इसकी देखभाल करता है।