Sep १५, २०२५ २०:१० Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-1028

सूरए तलाक़ आयतें 1से 7

पिछले कार्यक्रम में सूरए तग़ाबुन की तफ़्सीर पूरी होने के बाद, इस कार्यक्रम में हम सूरए तलाक़ की आयतों की तफ़्सीर शुरू करेंगे। यह सूरा भी मदीना में नाज़िल हुआ है और इसमें 12 आयतें हैं। पहली से सातवीं आयत तक तलाक़ और उसके अहकाम के बारे में है। आठवीं आयत से आगे दो समूहों के अंजाम की ओर इशारा किया गया है: एक वे लोग जिन्होंने अल्लाह के हुक्म की अवहेलना की और सज़ा के हक़दार हुए, और दूसरा समूह वे लोग जो नेक काम करके अल्लाह की रहमत के हक़दार बने।

 

आइए सबसे पहले हम सूरए तलाक़ की आयत नंबर 1 से 3 तक की तिलावत सुनते हैं

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ

يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاءَ فَطَلِّقُوهُنَّ لِعِدَّتِهِنَّ وَأَحْصُوا الْعِدَّةَ وَاتَّقُوا اللَّهَ رَبَّكُمْ لَا تُخْرِجُوهُنَّ مِنْ بُيُوتِهِنَّ وَلَا يَخْرُجْنَ إِلَّا أَنْ يَأْتِينَ بِفَاحِشَةٍ مُبَيِّنَةٍ وَتِلْكَ حُدُودُ اللَّهِ وَمَنْ يَتَعَدَّ حُدُودَ اللَّهِ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَهُ لَا تَدْرِي لَعَلَّ اللَّهَ يُحْدِثُ بَعْدَ ذَلِكَ أَمْرًا (1) فَإِذَا بَلَغْنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمْسِكُوهُنَّ بِمَعْرُوفٍ أَوْ فَارِقُوهُنَّ بِمَعْرُوفٍ وَأَشْهِدُوا ذَوَيْ عَدْلٍ مِنْكُمْ وَأَقِيمُوا الشَّهَادَةَ لِلَّهِ ذَلِكُمْ يُوعَظُ بِهِ مَنْ كَانَ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَمَنْ يَتَّقِ اللَّهَ يَجْعَلْ لَهُ مَخْرَجًا (2) وَيَرْزُقْهُ مِنْ حَيْثُ لَا يَحْتَسِبُ وَمَنْ يَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ فَهُوَ حَسْبُهُ إِنَّ اللَّهَ بَالِغُ أَمْرِهِ قَدْ جَعَلَ اللَّهُ لِكُلِّ شَيْءٍ قَدْرًا (3)

इन आयतों का अनुवाद हैः

ऐ नबी! जब तुम औरतों को तलाक़ दो, तो उन्हें उनकी इद्दत के समय तलाक़ दो और इद्दत (के दिनों) की गिनती को ध्यान में रखो और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है। उन्हें उनके घरों से न निकालो और न वे ख़ुद निकलें, सिवाय इसके कि कोई स्पष्ट बदकारी कर बैठें। ये अल्लाह की हदें हैं और जो कोई अल्लाह की हदों से आगे बढ़ जाए, उसने अपने ऊपर ज़ुल्म किया। तुम नहीं जानते, शायद अल्लाह इसके बाद कोई नया मामला पैदा कर दे। (कि उनके बीच सुलह का रास्ता निकल आए) [65:1] फिर जब वे अपनी (इद्दत के) अंत तक पहुँच जाएँ, तो (उनकी तरफ़ वापसी करके) उन्हें अच्छे तरीक़े से रोक लो या अच्छे तरीक़े से (उनके मेहर की रक़म और दूसरे हक़ अदा करने के बाद) अलग हो जाओ और (तलाक़ के वक़्त) अपने में से दो न्यायसंगत गवाह बना लो और गवाही को अल्लाह के लिए स्थापित करो। यही नसीहत उसको दी जाती है जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है। और जो अल्लाह से डरता है, अल्लाह उसके लिए (मुशकिलों और तंगी से) निकलने का रास्ता बना देता है।[65:2] और उसे ऐसी जगह से रिज़्क देता है जहाँ से उसे गुमान भी न हो। और जो अल्लाह पर भरोसा रखता है, वही उसके लिए काफ़ी है। बेशक अल्लाह अपने फ़रमान को पूरा करके रहता है। अल्लाह ने हर चीज़ के लिए एक निर्धारित मात्रा बना रखी है।[65:3]

 

इस्लाम शादी और परिवार बनाने पर बहुत ज़ोर देता है और क़ुरआन की कई आयतों में ख़ासतौर पर सूरए निसा में इसके अहकाम बयान किए गए हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि कभी-कभी शादीशुदा ज़िंदगी का जारी रहना दोनों या किसी एक पक्ष के लिए मुश्किल हो जाता है और उसका आगे जारी रहना संभव नहीं होता। इसलिए इस्लाम ने तलाक़ और अलगाव को कुछ शर्तों और हदों के साथ जायज़ ठहराया है और इस हक़ को पति-पत्नी के लिए मान्यता दी है। 

ये आयतें रसूलुल्लाह को संबोधित करते हुए तलाक़ के अहकाम बयान करती हैं ताकि मुसलमान उसकी अहमियत और उसे सही तरीक़े से अंजाम देने की ज़रूरत पर ध्यान दें। 

 

आयतों की शुरुआत में फ़रमाया गया है: अगर तुम अपनी पत्नी को तलाक़ देना चाहो, तो तलाक़ का सीग़ा उस वक़्त जारी किया जाए जब उसका माहवारी का समय ख़त्म हो जाए और उसके बाद तुमने उससे संबंध न बनाए हों, ताकि तीन बार पाक होने के बाद तलाक़ पूरा हो जाए। 

 

यह स्पष्ट है कि इस दौरान पत्नी के ख़र्चे और मकान का ज़िम्मा मर्द पर है और उसे पत्नी को घर से निकालने का हक़ नहीं है, जैसे कि पत्नी को भी ख़र्च मिलने पर घर छोड़ने का हक़ नहीं है। 

 

चूँकि लोग आमतौर पर ग़ुस्से और जोश की हालत में तलाक़ का फ़ैसला करते हैं, इसलिए तलाक़शुदा मर्द और औरत का कुछ महीनों तक साथ रहना, उनके बीच सुलह और सामान्य ज़िंदगी में वापसी का रास्ता बना सकता है। हालाँकि, इद्दत गुज़ारने के दौरान पत्नी के घर में रहने की शर्त यह है कि वह बुरे व्यवहार और बातों से पति पर ज़िंदगी को मुश्किल न बनाए या कोई हया के ख़िलाफ़ कोई काम न करे। 

 

आयतों का आगे का हिस्सा इस बात पर ज़ोर देता है कि इद्दत की अवधि ख़त्म होने से पहले सुलह और वापसी का मौक़ा होता है और तलाक़ से पीछे हटकर सामान्य ज़िंदगी में वापस आया जा सकता है। लेकिन अगर आपका अलग होने का इरादा पक्का है, तो यह काम अच्छे और उचित तरीक़े से होना चाहिए। इसलिए आपको पत्नी के साथ किसी भी तरह के बुरे व्यवहार और बातों से बचना चाहिए और उसके शरीयती और क़ानूनी हक़ को अदा करना चाहिए। 

पति-पत्नी को यह जानना चाहिए कि अगर वे तलाक़ के वक़्त अल्लाह की हदों का ख़याल रखें और किसी भी तरह के बुरे व्यवहार से बचें, तो अल्लाह उनके लिए भविष्य में एक रास्ता खोल देगा और जहाँ से उन्हें गुमान भी न हो, वहाँ से उनके लिए भलाई पैदा कर देगा। यह अल्लाह की स्थायी सुन्नत है कि जो कोई उस पर भरोसा रखता है और तक़्वा अपनाता है, अल्लाह उसकी ज़िंदगी को समृद्ध कर देता है और उसके लिए भलाई मुक़र्रर कर देता है।

 

इन आयतों से हमने सीखा

 

 इस्लाम में शादी एक पवित्र चीज़ है। इसलिए जैसे ही पति-पत्नी तलाक़ का फ़ैसला करते हैं, वे तुरंत अलग नहीं हो जाते। क्योंकि इस फ़ैसले को अंजाम देने के लिए कुछ महीनों का इंतज़ार करना पड़ता है, ताकि शायद इस मौक़े पर तनाव और नाराज़गी कम हो और उनके बीच सुलह और साथ रहने का रास्ता निकल आए।

 

 अगर तलाक़ और अलगाव हो जाए, तो ज़िंदगी से निराश न हों और अल्लाह पर भरोसा रखते हुए भविष्य की उम्मीद रखें। 

 पति-पत्नी का एक-दूसरे के साथ व्यवहार अच्छा और उचित होना चाहिए, चाहे वे सुलह की हालत में हों या अलगाव की; ताकि बच्चों को कम से कम नुक़सान पहुँचे।

 

  तलाक़ के वक़्त दो न्यायसंगत गवाहों की मौजूदगी, इस्लाम के पति-पत्नी के हक़ का ख़याल रखने की अहमियत को दिखाती है। 

 

  ज़िंदगी के मुश्किल हालात और संकटों से निकलने के लिए दो चीज़ें ज़रूरी हैं:   तक़्वा और गुनाह से दूरी,  अल्लाह पर भरोसा 

 

   वास्तव में, तक़्वा और तवक्कुल ज़िंदगी के मुश्किल हालात से निकलने के लिए दो अहम ज़रिए हैं। 

 

आइए अब सूरए तलाक़ की आयत नंबर 4 और 5 की तिलावत सुनते हैं:

 

وَاللَّائِي يَئِسْنَ مِنَ الْمَحِيضِ مِنْ نِسَائِكُمْ إِنِ ارْتَبْتُمْ فَعِدَّتُهُنَّ ثَلَاثَةُ أَشْهُرٍ وَاللَّائِي لَمْ يَحِضْنَ وَأُولَاتُ الْأَحْمَالِ أَجَلُهُنَّ أَنْ يَضَعْنَ

حَمْلَهُنَّ وَمَنْ يَتَّقِ اللَّهَ يَجْعَلْ لَهُ مِنْ أَمْرِهِ يُسْرًا (4) ذَلِكَ أَمْرُ اللَّهِ أَنْزَلَهُ إِلَيْكُمْ وَمَنْ يَتَّقِ اللَّهَ يُكَفِّرْ عَنْهُ سَيِّئَاتِهِ وَيُعْظِمْ لَهُ أَجْرًا (5)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

 

और तुम्हारी औरतों में से जो माहवारी से नाउम्मीद हो चुकी हों, अगर तुम्हें शक हो (कि यह उम्र की वजह से है या बीमारी या हम्ल की वजह से), तो उनकी इद्दत तीन महीने है और यही चीज़ उन औरतों के लिए है जिन्हें माहवारी न आती हो (हालाँकि वे माहवारी की उम्र वाली हों) और हम्ल वाली औरतों की इद्दत का वक़्त यह है कि वे अपने बच्चे को जन्म दे दें। और जो अल्लाह से डरता है, अल्लाह उसके काम में आसानी पैदा कर देता है। [65:4] यह अल्लाह का हुक्म है जो उसने तुम्हारी तरफ़ नाज़िल किया है। और जो अल्लाह से डरता है, अल्लाह उसके गुनाहों को मिटा देता है और उसका अज्र बड़ा कर देता है।[65:5]

पिछली आयतों में जहाँ तलाक़ के वक़्त आम औरतों के लिए इद्दत का पालन करना ज़रूरी बताया गया था, वहीं ये आयतें तीन ख़ास क़िस्म की औरतों के लिए इद्दत के अहकाम बयान करती हैं

1. वे औरतें जो यौवनावस्था से बाहर हो चुकी हैं और माहवारी से नाउम्मीद हो चुकी हैं।  2. वे औरतें जो बीमारी या किसी और वजह से माहवारी नहीं देखतीं।3. वो औरतें जो हम्ल से हैं। 

 

पहले दो ग्रुप की औरतों को अगर उनके हम्ल से होने का इमकान हो, तो उन्हें तीन महीने तक इद्दत का पालन करना चाहिए और हम्ल वाली औरतों को बच्चे के पैदा होने तक इंतज़ार करना चाहिए, उसके बाद ही तलाक़ हो सकता है। 

चूँकि तलाक़ और अलगाव के वक़्त पति-पत्नी के बीच तनाव, अख़लाक़ी उसूलों की अनदेखी और एक-दूसरे के हक़ों की उपेक्षा का इमकान ज़्यादा होता है, इसलिए इन कुछ आयतों में चार बार तलाक़ के वक़्त तक़्वा अपनाने और उसके सकारात्मक असर की तरफ़ इशारा किया गया है। पिछली आयतों में ज़िंदगी में तक़्वा के राहत पैदा करने के रोल पर ज़ोर दिया गया था, जबकि ये आयतें तक़्वा से मुश्किलात और तंगी को दूर करने और ज़िंदगी को आसान बनाने के साथ-साथ पिछली ग़लतियों और बुराइयों को ढकने की तरफ़ इशारा करती हैं।

 

इन आयतों से हमने सीखा

 

 अल्लाह के अहकाम लोगों की हालत के मुताबिक़ अलग-अलग हैं और अल्लाह ने सबके लिए एक जैसा हुक्म नहीं दिया है। 

 बच्चा, चाहे माँ के पेट में ही क्यों न हो, उसके भी हक़ होते हैं। इसलिए हम्ल वाली औरत किसी दूसरे मर्द से शादी नहीं कर सकती। 

 चाहे रिश्तेदारी और साझा ज़िंदगी की बात हो या तलाक़ और अलगाव की हालत, अल्लाह से डरना और तक़्वा अपनाना मुश्किलात को दूर करने और कामों में आसानी पैदा करने का ज़रिया है। क्योंकि इस्लामी तालीमात ने पति-पत्नी के हक़ को अच्छे और मुनासिब तरीक़े से सुनिश्चित किया है। 

  सबसे अच्छी तौबा अल्लाह का तक़्वा अपनाना है, क्योंकि यह गुनाहों को ढक देता है और नेकियों के अज्र को बढ़ा देता है।

 

आइए अब सूरए तलाक़ की आयत नंबर 6 और 7 की तिलावत सुनते हैं:

 

أَسْكِنُوهُنَّ مِنْ حَيْثُ سَكَنْتُمْ مِنْ وُجْدِكُمْ وَلَا تُضَارُّوهُنَّ لِتُضَيِّقُوا عَلَيْهِنَّ وَإِنْ كُنَّ أُولَاتِ حَمْلٍ فَأَنْفِقُوا عَلَيْهِنَّ حَتَّى يَضَعْنَ حَمْلَهُنَّ فَإِنْ أَرْضَعْنَ لَكُمْ فَآَتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ وَأْتَمِرُوا بَيْنَكُمْ بِمَعْرُوفٍ وَإِنْ تَعَاسَرْتُمْ فَسَتُرْضِعُ لَهُ أُخْرَى (6) لِيُنْفِقْ ذُو سَعَةٍ مِنْ سَعَتِهِ وَمَنْ قُدِرَ عَلَيْهِ رِزْقُهُ فَلْيُنْفِقْ مِمَّا آَتَاهُ اللَّهُ لَا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْسًا إِلَّا مَا آَتَاهَا سَيَجْعَلُ اللَّهُ بَعْدَ عُسْرٍ يُسْرًا (7)

 

इन आयतों का अनुवाद हैः

 

तलाक़शुदा औरतों को (इद्दत के आख़िर तक) अपनी हैसियत के मुताबिक़ उसी जगह रहने दो जहाँ तुम ख़ुद रहते हो। और उन्हें तकलीफ़ न दो कि उन्हें तंग करो। और अगर वे हम्ल से हों, तो जब तक वे बच्चा पैदा न कर दें, उन पर ख़र्च करो। फिर अगर वे तुम्हारे बच्चे को दूध पिलाएँ, तो उनकी मज़दूरी अदा करो और आपस में (बच्चे के बारे में) अच्छे तरीक़े से मशविरा और समझौता करो। और अगर (समझौता) कठिन हो जाए, तो कोई दूसरी औरत उसे दूध पिलाएगी। [65:6] जिसकी जितनी गुंजाइश हो, वह अपनी गुंजाइश के मुताबिक़ ख़र्च करे और जिसकी रोज़ी तंग हो, वह उसमें से (अपनी क्षमता के मुताबिक़) ख़र्च करे जो अल्लाह ने उसे दिया है। अल्लाह किसी को उसकी ताक़त से ज़्यादा ज़िम्मेदारी नहीं देता। अल्लाह जल्द ही तंगी के बाद आसानी पैदा कर देगा।[65:7]

ये आयतें एक बार फिर तलाक़ की इद्दत के दौरान पत्नी के हक़ों का ख़याल रखने पर ज़ोर देती हैं और फ़रमाती हैं: इन कुछ महीनों के दौरान मकान और नफ़क़े के मामले में उन पर सख़्ती न करो और उनके हक़ों का ख़याल रखना न छोड़ो। ख़ासतौर पर हम्ल वाली औरतों का, जिन्हें ज़्यादा देखभाल और ध्यान की ज़रूरत होती है, उनकी सारी ज़रूरतों को बच्चे के पैदा होने तक पूरा करो। बच्चे के पैदा होने के बाद भी, बच्चे की देखभाल और उसे दूध पिलाने के बारे में आपस में मशविरा और समझौता करो ताकि बच्चा दूध से महरूम न रह जाए और अगर माँ न माने, तो उसके लिए एक दायी का इंतज़ाम करो। 

आयतों का आगे का हिस्सा ज़िंदगी के एक अहम उसूल की तरफ़ इशारा करता है और फ़रमाता है: "अल्लाह की तरफ़ से दी जाने वाली ज़िम्मेदारियां इंसान की ताक़त के मुताबिक़ होती हैं।" इसलिए औरतों को मर्द से उसकी ताक़त से ज़्यादा की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, जैसे कि मर्द को भी अपने माल और दौलत को परिवार की आरामदेह ज़िंदगी पर ख़र्च करने में कंजूस नहीं होना चाहिए और परिवार पर सख़्ती नहीं करनी चाहिए।

 

इन आयतों से हमने सीखा

 

 तलाक़ की इद्दत के दौरान मर्द को पत्नी को नीचा दिखाने और नफ़क़े व मकान के मामले में सख़्ती करने का हक़ नहीं है और उसे पहले की तरह पत्नी के लिए ज़िंदगी के हालात मुहैया करने चाहिए। उसे यह हक़ नहीं है कि वह तलाक़शुदा पत्नी को नुक़सान पहुँचाए या उसे तंगी में डाल दे। 

  नफ़क़े और मकान मुहैया कराने में मर्द की ताक़त मायने रखती है, न कि औरत की उम्मीद, जो शायद मर्द की ताक़त और सामर्थ्य से ज़्यादा हो। 

 बच्चों के बारे में उनकी तक़दीर तय करने के लिए माँ-बाप का मशविरा करना इस्लाम की तरफ़ से की गई अनुशंसाओं में शामिल है। 

  लोगों पर उनकी ताक़त के मुताबिक़ ही ज़िम्मेदारी डाली जाती है। इस्लाम एक वास्तविकतावादी दीन है और यह ताक़त से ज़्यादा ज़िम्मेदारी नहीं देता।