Sep १३, २०१६ १३:२२ Asia/Kolkata

सूरए बलद क़ुरआन के छोटे सूरों में है।

यह सूरा मक्के में उतरा। यह सूरा छोटा होने के बावजूद बहुत बड़े तथ्यों से सुसज्जित है। इस सूरे में बीस आयतें हैं। सूरे में मक्के की क़सम, मानव जीवन का कठिनाइयों और संघर्ष से जुड़े होने, इंसान को ईश्वर की ओर से मिलने वाली मूल्यवान नेमतों जैसे आंख, ज़बान, होंट तथा इंसान की अवज्ञा, इन नेमतों पर आभर व्यक्त करने के लिए अनाथों और वंचितों की सहायता, इंसानों के दो समूहों और उनके अंजाम जैसे विषय शामिल हैं।

सूरे की शुरुआत में इस तथ्य को बयान करने के लिए कि इंसान की ज़िंदगी के साथ कठिनाइयां और संघर्ष लगे हुए हैं अर्थात सांसारिक जीवन सुविधाओं और हर्ष से भरा हुआ नहीं होता।

इंसान मां के गर्भ में स्थापित होने के समय से ही कठिनाइयां और दर्द सहन करता है यहां तक कि उसकी पैदाइश होती है। जन्म लेने के बाद बचपन के ज़माने में, इसके बाद किशोरावस्था में और सबसे बढ़कर वृद्धावस्था में उसे तरह तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। यही सांसारिक जीवन का स्वभाव है। क़ुरआन के महान व्याख्याकर्ता अल्लामा सैयद हुसैन तबातबाई ने लिखा है कि यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इंसान हर नेमत को संपूर्ण रूप से हासिल करना चाहता है जिसमें किसी भी प्रकार की कमी और परेशानी न हो, वह बिल्कुल अच्छी और पवित्र हो लेकिन उसे जब भी कोई नेमत मिलती है तो उसमें प्रतिकूल पहलू भी ज़रूर होते हैं जिनके कारण उसे फ़िक्र लगी रहती है। नेमत के साथ उसे कड़वे घूंट भी पीने पड़ते हैं। इसके अलावा संसार में घटने वाली अप्रिय घटनाएं भी हैं उसे तंग करती रहती हैं।

भौतिक संसार अपनी प्राकृतिक रचना के कारण टकराव और एक दूसरे के समक्ष प्रतिरोध का संसार है इस दुनिया में न तो केवल आसानियां हैं और न केवल कठिनाइयां हैं। बल्कि दोनों का चोली दामन का साथ है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कठिनाइयों और परेशानियों से इंसान की आत्मा को प्रशिक्षण और पाठ मिलता है, उसके भीतर निहित क्षमताएं हरकत में आती हैं। इस तरह यह कठिनाइयां इंसान की क्षमताओं को हरकत में लाने का महत्वपूर्ण काम अंजाम देती है।।

सूरए बलद की पांचवीं आयत यह बताती है कि इंसान के जीवन में इतने दर्द और दुख का आना इस बात का प्रमाण है कि उसके पास इन्हें दूर करने की ताक़त नहीं है। लेकिन जब उसे शक्ति मिल जाती है तो हर अपराध करता है और ख़ुद को दंड और सज़ा से सुरक्षित समझने लगता है। एसी स्थिति में कोई भी उसे रोक नहीं पाता। जब इस तरह के आदमी को किसी नेक काम में पैसे ख़र्च करने का सुझाव दिया जाता है तो घमंड से कहता है मैंने इस रास्ते में बड़ा पैसा खर्च कर दिया है जबकि उसने ईश्वर के नाम पर कुछ भी ख़र्च नहीं किया है और यदि किसी को कोई पैसा दिया है तो केवल दिखावे और स्वार्थ के लिए दिया है। आगे की आयतों में इंसान को दी गईं कुछ महत्वपूर्ण ज़ाहिरी नेमतों का उल्लेख किया गया है ताकि एक ओर उसकी निश्चेतना और घमंड टूट जाए और दूसरी ओर वह इन नेमतों के रचयिता के बारे में चिंतन करने के लिए प्रोत्साहित हो तथा उसके भीतर ईश्वर का आभार व्यक्त करने की भावना जागे और वह ईश्वर को पहचाने। ईश्वर कहता है कि क्या हमने उसकी दो आंखें नही बनाईं, एक ज़बान और दो होंट नहीं बनाए और उसे अच्छे और बुरे रास्तों का ज्ञान नहीं दिया?

आत्मा के उत्थान का सफ़र तय करने की प्रक्रिया में यह नेमतें आवश्यक संसाधन हैं। आंख इंसान को बाहर की दुनिया से जोड़ने वाला महत्वपूर्ण माध्यम है। आंख के भीतर मौजूद आश्चर्यजनक चीज़ें इतनी अधिक हैं कि उनके बारे में ग़ौर करने पर इंसान का सिर अपने आप ईश्वर की सजदे में झुक जाता है। आंख की सात परतें हैं और हर परत अपने आप मे एक दुनिया है जिसमें अनगिनत आश्चर्य हैं। इनमें प्रकाश और दर्पण के अति सूक्ष्म नियम पूरी सटीकता के साथ मौजूद हैं। ज़बान भी एक इंसान के अन्य इंसानों के साथ संपर्क का मज़बूत माध्यम है। इसके माध्यम से एक समूह से दूसरे समूह को जानकारियां स्थानान्तरित होती हैं। यदि यह माध्यम न होता तो इंसान हरगिज़ ज्ञान, भौतिक सभ्यता और आध्यात्मिक विषयों में इतना विकास न कर पाता। होंटों की भूमिका बातचीत में बहुत बुनियादी होती है क्योंकि बहुत अक्षर और शब्द होटों की मदद से ही बोले जाते हैं। इसके अलावा होंट आहार को चबाने, मुंह के द्रव को सुरक्षित रखने तथा पानी पीने में मदद करते हैं। यदि होंट न होते तो इंसान के लिए खाना पीना अंसभव हो जाता, यहां तक कि चेहरे का रूप बहुत बुरा हो जाता।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हैरत है इस इंसान पर जो चरबी के एक टुकड़े यानी आंख से देखता है, गोश्त के एक टुकड़े यानी ज़बान से बोलता है और हड्डी यानी कान से सुनता है और एक दरार यानी नाक से सांस लेता है। इस सबके बाद इंसान को रास्ता चुनने का अधिकार दे दिया गया है। वह अपनी आंखों और ज़बान को हलाल या हराम काम के लिए प्रयोग कर सकता है और भलाई और अच्छाई के दो मार्गों में से किसी एक का चयन कर सकता है।

सूरए बलद में एक महत्वपूर्ण मोड़ का उल्लेख किया गया है जिससे गुज़रकर इंसान कल्याण और मोक्ष की मंज़िल में पहुंच जाता है। यह महत्वपूर्ण मोड़ है किसी ग़ुलाम को आज़ाद करना, सूखे और भुखमरी के माहौल में भूखे को खाना खिलाना, अनाथ रिश्तेदार का ख्याल रखना और ग़रीबों की मदद करना।

इस मोड़ से वही लोग गुज़र पाते हैं जिनका ईमान मज़बूत होता है और जो शिष्टाचार से सुसज्जित होते हैं और जिनके भीतर इंसानियत का जज़्बा होता है। क़ुरआन ने इस तरह के इंसानों को दाहिनी ओर वाले कहा है जिनके कर्मपत्र उनके दाहिने हाथ में दिए जाएंगे और वह मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। जिन लोगों ने ईश्वर की निशानियों को झुठलाया है वह अभिषप्त लोग हैं उनके कर्मपत्र उनके बाएं हाथ में दिए जाएंगे और उन्हें उनका दंड मिलेगा।

 

सूरए शम्स क़ुरआन का सूरा नंबर 91 है। शम्स का अर्थ है सूरज। यह सूरा मक्का में उतरा। इसमें 15 आयतें हैं। इस सूरे में ज़मीन, आसमान, आसमानी ग्रहों और विभिन्न समयों की ग्यारह क़समें खाई गई हैं। इंसान की आत्मा की रचना और उसमें रखे गए स्वाभाविक सदाचार का विषय भी इस सूरे में शामिल है। समूद जाति और उसके अंजाम का इस सूरे में उल्लेख है।

क़सम खाई गई है इंसान की जान और उसकी जिसने उसे पैदा किया और सुव्यवस्थित बनाया है। इंसान आत्मा और शरीर से मिलकर बना है जो अचरजों और रहस्यों से भरा हुआ है। क़ुरआन के व्याख्याकर्ताओं का कहना है कि यह बयान करने के लिए कि कल्याण आत्मनिर्माण के नतीजे में ही प्राप्त हो सकता है इतनी क़स्में इंसान को यह समझाने के लिए खाई गई हैं कि सारी तैयारियां पूरी हैं। मैंने सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश से जीवन के पटल को प्रकाशमय बना दिया है तथा दिन और रात के चक्कर से तुम्हारे रोज़ी कमाने और आराम करने का बंदोबस्त कर दिया है। तुम्हारे लिए ज़मीन का फ़र्श बिछाया है और सिरों पर आसमान का शामियाना खींच दिया है। अच्छाइयों और बुराइयों की समझ तुम्हारी आत्मा में डाल दी है ताकि तुम अपने मन से आत्मनिर्माण का मार्ग अपनाओ।

सूरए शम्स की आयत नंबर आठ में इस बिंदु का उल्लेख किया गया है कि ईश्वर ने इंसान को विवेक, अंतरात्मा और समझ इस लिए दी है कि वह अपनी प्रवृत्ति और विवेक की मदद से पाप तथा सुकर्मों का निर्धारण कर सके। जब इंसान की रचना पूरी हो गई तो ईश्वर ने उसे अच्छे और बुरे कर्मों की जानकारी भी दे दी। इस प्रकार वह एक ओर मिट्टी तथा ईश्वरीय आत्मा का संग्रह बन गया तथा दूसरी ओर उसमें पाप और सुकर्म दोनों का ज्ञान भी रख दिया गया। इसका नतीजा यह निकला कि इंसान यदि उत्थान के मार्ग पर चला तो फ़रिश्तों से भी अधिक ऊंचाइयों पर पहुंच गया और यदि पतन के रास्ते पर गया तो पशुओं से भी अधिक गिर गया। इसका दारोमदार इस पर है कि वह अपनी इच्छा और अपने मन से कौन सा मार्ग अपनाता है।

कुरआन के अनुसार मोक्ष और सफलता उस व्यक्ति को मिलती है जो आत्म निर्माण करे, आत्मा का उत्थान करे तथा उसे शैतानी आदतों और पाप और नास्तिकता के प्रदूषण से सुरक्षित रखे। दूसरे शब्दों में अंतरात्मा सत्य और असत्य का निर्धारण करने वाला ईश्वरीय दर्पण है। जो भी इस दर्पण को साफ़ सुथरा रखता है वह आसानी से देख पाता है कि गुनाह क्या है और सुकर्म क्या है। जो भी अंतरात्मा के दर्पण पर गुनाहों की गर्द से धूमिल बना देता है वह इस दर्पण की मदद नहीं ले पाता तथा उसे नुक़सान उठाना पड़ता है। ईश्वर कहता है कि जिसने अपनी अंतरात्मा को स्वच्छ और पवित्र बनाया वह कल्याण पा गया।

सूरए शम्स की आयतें उदाहरण के तौर पर समूद जाति का अंजाम बयान करती हैं जो अपनी अवज्ञा और पापों के कारण पैग़म्बरों को ही झुठलाने लगी। यदि अंतरात्मा का प्रशिक्षण न किया जाए तो उसकी बुराई सामाजिक स्तर पर फैलती है और पूरे समाज को दिगभ्रमित कर देती है। एसी स्थिति में स्वार्थ और विद्रोह ही फ़ैसलों का आधार बनने लगता है यहां तक कि सत्य की स्पष्ट निशानियां भी इंसान को स्वार्थी फ़ैसलों से नहीं रोक पातीं। सूरए शम्स में समूद जाति और उसके अंजाम को इंसान के पतन के उदाहरण के रूप में पेश किया गया है। इस जाति के लोगों ने स्पष्ट ईश्वरीय निशानियां देखने के बावजूद अपने स्वार्थों के कारण ईश्वरीय पैग़म्बर की बात नहीं मानी और पैग़म्बर सालेह के मना करने के बावजूद उन्होंने ऊंटनी की हत्या कर दी। समूद जाति के लोगों ने अपने घमंड के कारण ईश्वर के स्पष्ट चिन्हों को देखने के बावजूद उसे झूठ समझा। तो ईश्वर ने भी उनके इस कर्म की सज़ा देते हुए प्रकोप में गिरफ़तार कर दिया। समूद जाति की कहानी उन सभी इंसानों के लिए चेतावनी है जो ईश्वर की स्पष्ट निशानियां देखने के बावजूद उनका इंकार करते हैं उनका अंजाम भी समूद जाति जैसा होता है।

 

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