Nov ०२, २०१६ १७:३० Asia/Kolkata

ईरान में पहली बार क़हवाख़ाने सफ़वी शासन काल में प्रचलित हुए। सन 1523 से 1576 तक जारी रहने वाले शाह तहमास्ब के शासनकाल में क़ज़वीन नगर में पहली बार क़हवाख़ानों का निर्माण हुआ और फिर शाह अब्बास प्रथम के शासन काल में जो 1587 से 1628 तक जारी रहा इसफ़हान नगर में क़हवाख़ानों का बड़ा विकास हुआ।

क़हवाख़ाने जैसा कि इनके नाम से ही विदित है, शुरू में क़हवा सर्व करने की जगह को कहा जाता था लेकिन बाद में जब ईरान मे चाय की खेती होने लगी और लोगों को चाय पीने की आदत हो गई तो इन्हीं क़हवा ख़ानों में चाय भी पेश की जाने लगी। बल्कि धीरे धीरे चाय ने क़हवा का स्थान ले लिया और यही क़हवाख़ाने बाद में चायख़ाने बन गए अलबत्ता अब भी उनका वही पुराना नाम ही चलता है। ईरानी समाज में क़हवाख़ानों का प्रयोग लोगों के एक स्थान पर जमा होने, ख़ाली समय बिताने और मनोरंजन के लिए होता रहा है। क़हवाख़ानों में सभी वर्गों के लोग एकत्रित होते थे। धीरे धीरे यह होने लगा कि हर चायख़ाने में किसी विशेष वर्ग के लोगों की संख्या अधिक रहने लगी तथा अलग अलग पेशे से जुड़े लोग अपने लिए अलग क़हवाख़ाना चुनने लगे। जब काम ख़त्म हो जाए या छुट्टी का दिन हो तो लोग इन क़हवाख़ानों में एकत्रित हो जाते थे और घंटों गपशप का दौर चलता था। इस  दौरान सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विषयों पर विचार विमर्श भी होता था।

कुछ क़हवाख़ाने ऐसे थे जिनमें रोज़गार और पेशे से जुड़े मामलों पर चर्चा होती थी। जब कोई विशेष अवसर होता था जैसे ईद या किसी अन्य पर्व का मौक़ा होता था तो क़हवाख़ानों को सजाया जाता था और रात के समय वह जगमगाते रहते थे। क़हवाखानों में महफ़िलें होती थीं, शेर शायरी का दौर भी चलता था। भाषण भी दिए जाते थे। रमज़ान का महीना आता तो क़हवाख़ानों में धार्मिक शायरी अपने चरम पर पहुंच जाती थी। मुहल्ले के लोग और कभी कभी दूसरे मुहल्लों के लोग भी किसी एक क़हवाख़ाने पर एकत्रित हो जाते थे और बड़े प्रेमपूर्ण वातावरण में अपना समय बिताते थे। इस तरह क़हवाख़ाने सामाजिक और सांस्कृतिक केन्द्र का रूप धारण कर गए जहां साहित्यिक व कलात्मक क्षमताओं को निखारा जाने लगा और परम्पराओं की सीख दी जाने लगी। ज़माना बदला और नया दौर आया तो क़हवाख़ानों से उनका सांस्कृतिक पहलू अलग हो गया और यह सामान्य चायख़ाने बन गए। अब यहां लोग चाय पीने तथा नाश्ते या भोजन के लिए एकत्रित होने लगे।

 

नासेरी दौर में तथा उसके बाद के काल में तेहरान में पराम्परिक क़हवाख़ानों की संख्या बहुत अधिक थी। वर्ष 1883 से 1885 के बीच बेंजमिन टी ईरान में नासेरुद्दीन शाह की सरकार में अमरीका के राजदूत थे। उन्होंने अपने यात्रा वृतांत में तेहरान में क़हवाख़ानों की भरमार का उल्लेख किया है। उन्होंने क़हवाख़ानों के बारे में जहां उस समय चाय पेश की जाती थी, लिखा है कि तेहरान में चायख़ाने बहुत अधिक हैं। हर मोहल्ले और हर सड़क पर कई कई क़हवाख़ाने हैं जो अलग अलग वर्गों के लिए हैं। यह सब पुरुषों की गपशप और विश्राम के लिए हैं।

तेहरान के चायख़ाने मूल रूप से बाज़ार तथा उसके आस पास की सड़कों और भीड़भाड़ वाले मुहल्लों में थे। अधिकतर क़हवाख़ानों में खुली जगह भी होती थी जहां गर्मी के मौसम में ग्राहकों की भीड़ रहती थी। इस खुले भाग में पेड़ और फुलवारी होती थी तथा उसके बीच में एक बड़ा या कई छोटे हौज़ होते थे। इस प्रांगड़ को क़हवाख़ाने का बाग़चे कहा जाता था। क़हवाख़ाने के भीतरी भाग को कलाकृतियों से सजाया जाता था। इन कलाकृतियों में एतिहासिक घटनाओं की झलकियां होती थीं। क़हवाख़ानों में पारम्परिक ईरानी भोजन विशेष रूप से आबगोश्त परोसा जाता था।

ईरान में इस्लामी क्रान्ति की सफलता के बाद सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण के उद्देश्य से प्राचीन क़हवाख़ानों का पुनरनिर्माण किया गया और यह प्रयास किया गया उनका सांस्कृतिक आकर्षण बना रहे। इसी लिए इन क़हवाख़ानों की पारम्परिक वास्तुकला को भी असली रूप में बाक़ी रखते हुए इनकी मरम्मत का काम किया गया। आज यदि ईरानी और विदेशी सैलानी आकर इन क़हवाख़ानों को देखते हैं तो सरलता से प्राचीन परम्पराओं, पोशाक, आहार, चित्रकला, शाहनामे ख़्वानी और प्राचीन ईरानी वास्तुकला और दर्जनों अन्य चीज़ों को देख सकते हैं।  श्रोताओ कार्यक्रम के अंतिम भाग में तेहरान के कुछ क़हवाख़ानों में आपको ले चलेंगे।

तेहरान का एक क़हवाखाना क़हवाख़ानए आज़री है जिसका निर्माण वर्ष 1948 में हुआ। यह क़हवाख़ाना राह आहन स्क्वायर पर है। यहां हमेशा लोगों की भीड़ रहती है। इस क़हवाख़ाने का निर्माण प्राचीन ईरानी निर्माणकला के आधार पर कियाग या है इस क़हवाख़ाने का मुख्य हाल गुंबद से सजा हुआ है और इसके प्रांगड़ पर तंबू लगा दिया गया है। दीवारों को ईंटों, टाइलों और पारम्परिक चित्रकला से सजाया गया है। इस क़हवाख़ाने में बैरे पारम्परिक लिबास में पारम्परिक भोजन और चाय परोसते हैं जबकि इस बीच पारम्परिक संगीत और शाहनामे के शेर पेश किए जाते हैं। हर साल रमज़ान के महीने में इफ़तार के समय से  लेकर सहरी के समय तक ग़लत और धार्मिक शायरी का दौर चलता है। आज़री क़हवाख़ाना अपनी मूल्यवान वास्तुकला के कारण सांस्कृतिक धरोहर संरक्षण संस्था की ओर से पंजीकृत किया गया है और इसे राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा दिय गया है।

संगलज क़हवाख़ाना भी तेहरान के पुराने क़हवाख़ानों में है। यह क़हवाख़ाना तेहरान के एक प्राचीन पार्क में स्थित है। यह क़हवाखाना पार्के शहर नामक पार्क में है। इस क़हवाख़ाने में काम करने वाले सफ़वी काल की पोशाक में नज़र आते हैं। इस क़हवाख़ाने में मोहर्रम, सफ़र और रमज़ान के महीने में विशेष धार्मिक कार्यक्रम पेश किए जाते हैं जबकि अन्य महीनों में ग़ज़ल और संगीत के कार्यक्रम होते हैं और शाहनामे के शेर पढ़े जाते हैं।

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उत्तरी तेहरान का अमीर कबीर क़हवाख़ाना भी तेहरान के प्राचीन क़हवाख़ानों में है। इस क़हवाख़ाने का नामक क़ाजारिया काल के अत्यंत लोकप्रिय राजनेता अमीर कबीर के नाम पर रखा गया है। इसकी छत प्लास्टर आफ़ पैरिस से सजी हुई है दीवारें सुंदर ईंटों से बनाई गई हैं और हाल के स्तभ क़ाजारी दौर की याद दिलाते हैं। इस क़हवाखाने में काम करने वाले काजारी दौर का लंबा कुर्ता और टोपी पहने दिखाई देते हैं। इस क़हवाख़ाने में अनेक प्रकार की चाय तथा पारम्परिक पकवान पेश किए जाते हैं। इस क़हवाख़ाने में भी मोहर्रम और सफ़र के महीने में नौहे और मर्सिए के कार्यक्रम होते हैं और इन महीनों में लोगों को मुफ़्त सेवा दी जाती है।

तेहरान में कई पारम्परिक रेस्तोरां भी हैं। यह रेस्तोरां भी लोगों के लिए समय बिताने और पसंद के पारम्परिक पकवान का आनंद लेने के अच्छे स्थान हैं। एसा ही एक पारम्परिक रेस्तोरां मलिक रेस्तोरां है। यह तेहरान के शरीअती रोड पर स्थित है। इस रेस्टोरेंट को भी पारंपरिक रूप में सजाया गया है और इस रेस्तोरां में भी बड़े स्वादिस्ट पारंपरिक खाने परोसे जाते हैं। इस रेस्तोरां में जाने के लिए ज़ीने उतरने पड़ते हैं क्योंकि यह तहख़ाने में बना हुआ है। इसका एक भाग सक़्क़ाख़ाना है जहां प्राचीन व्यस्था में पानी पिलाने की सुविधा है। रेस्तोरां के बीचो बीच पानी का हौज़ है। रेस्तोरां को विभिन्न कलाकृतियों से सजाया गया है।

 

रेस्तोरा की गोल मेज़ें इस्फ़हान की क़लमकारी की कला से सजाई गई हैं और लोगों के विश्राम के लिए तख़्त बिछे हुए हैं जिन पर क़ालीन बिछे रहते हैं। रेस्तोरां के दरवाज़े पर साज़न्दे पारंपरिक साज़  लिए ख़ड़े रहते हैं। साज़ंदों के लिए एक और विशेष स्थान भी है जहां बड़ी चहल पहल रहती है।

 

 

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