Nov २२, २०१६ १७:०९ Asia/Kolkata

ईरान की उज्जवल सभ्यता का एक उदाहरण, किताब तैयार करना और उसे सुन्दरता प्रदान करना है।

ईरान में प्राचीन काल से ही हस्तलिखित किताबों को सजाने, उनकी जिल्दों पर बारीक एवं सुन्दर चित्रकारी और नक्क़ाशी करने और उनमें आकर्षक रंग भरने का प्रचलन रहा है।

ईरान में हस्तलिखित किताबों का इतिहास बहुत पुराना है। ईरान में किताबों के लिखने के प्रचलन की शुरूआत से आज तक, हज़ारों किताब लिखी जा चुकी हैं। इन किताबों की जिल्द या कवर और पन्नों पर बहुत ही सुन्दर नक्क़ाशी की गई और विचारों को सर्वश्रेष्ठ स्वरूप प्रदान किया गया। अज्ञात कलाकारों ने सूखी खालों और नाज़ुक गत्तों पर बारीक क़लमों से सुन्दर डिज़ाइन बनाए और उन्हें अमर बना दिया और सभी को अपने हुनर से चकित कर दिया।

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दूसरी हिजरी शताब्दी के पहले अर्ध में ईरानियों को काग़ज़ का ज्ञान प्राप्त हुआ। जिसके बाद ख़ुरासान के शहरों में काग़ज़ तैयार करने के कारख़ानों की स्थापना की गई और ख़ुरासानी काग़ज़ को ईरान के अन्य शहरों में भेजा जाने लगा। ईरानी काग़ज़ों के नाम इस प्रकार थे, काग़ज़ ख़ूने, नासेरी काग़ज़, फ़िरऔनी काग़ज़, सुलेमानी काग़ज़, समरक़ंदी काग़ज़ और बग़दादी काग़ज़। इनमें से सबसे लोकप्रिय समरक़ंदी काग़ज़ था।

काग़ज़ तैयार करने और आयातित काग़ज़ के इस्तेमाल में ईरानियों ने काफ़ी रचनात्मकता का प्रदर्शन किया। उदाहरण स्वरूप, चाय, प्याज़ के छिलके, स्याही, अख़रोट के छिलके, बोरेज, केसर, बैंगन के छिलके और मेंहदी से काग़ज़ को रंगने का काम लिया जाता था। काग़ज़े अबरी ईरानियों की देन है, जिसे सजाने के काम में इस्तेमाल किया जाता है। इसका रंग बादलों की भांति था और इसका आविष्कार शहाबुद्दीन अब्दुल्लाह मुरवारीद बयानी ने किया था।

बाइडिंग और इसी प्रकार के अन्य कार्य पन्नों के इकट्ठा रखने और उन्हें फटने एवं नष्ट होने से सुरक्षित रखने के लिए किए जाते हैं। किताब की जिल्द बारीक और मोटी हो सकती है। प्राचीन काल में इस कार्य को फ़ार्सी में वर्राक़ी भी कहा जाता था, जिसमें बाइडिंग के अलावा किताब पर लिखने और उसे छापने का काम भी शामिल था।

बाइडिंग का काम सफ़वी शासनकाल में अपने चरम पर पहुंच गया। इस्फ़हानी कलाकारों ने इस कला में रचनात्मकता का प्रदर्शन किया। सफ़वी काल में समरक़ंद, बुख़ारा, मशहद और इस्फ़हान में काग़ज़ तैयार किया जाता था, जो क़ाजारी काल तक जारी रहा, लेकिन उसके बाद हाथ से तैयार किए जाने वाले काग़ज़ का प्रचलन समाप्त हो गया और उसकी जगह आधुनिक काग़ज़ ले ली।

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सफ़वी काल में इस्फ़हान से राजधानी स्थानांतरित होने के बाद, अन्य कलाओं की भांति बाइडिंग के काम की भी उपेक्षा की गई। क़ाजारी काल में बाइडिंग करने वालों ने एक बार फिर इस काम को पुनर्जीवित किया। तैमूरी और सफ़वी कालों में बाइडिंग करने वालों या जिल्द साज़ों को पेशेवर माना जाता था और उनसे विशेष बाज़ार को जिल्द साज़ों का बाज़ार कहा जाता था। इसके अलावा भी कुछ जिल्द साज़ सरकारी पुस्तकालयों में जिल्द साज़ी का काम करते थे। बाइंडिंग का काम विभिन्न कालों और शहरों में विभिन्न शैलियों में जारी था और आज उन शैलियों को देखकर बताया जा सकता है कि किसी भी किताब की बाइंडिंग किस शहर या इलाक़े में हुई है।

स्टोन बुक की छपाई के समय में बाइंडिंग पश्चिमी शैली में प्रचलित हो गई, इस प्रकार से कि अधिकांश स्टोन बुक्स की गत्ते की जिल्द से बाइंडिंग की जाती थी, जिसके ऊपर किताब का नाम लिखा होता था या किताब की विष्य वस्तु के दृष्टिगत कोई तस्वीर बनी होती थी और कुछ किताबों की जिल्द चमड़े की भी होती थी। आधुनिक प्रिंटिग प्रेसों के प्रचलन के साथ ही, किताब की जिल्द भी पश्चिमी शैली में दो प्रकार से प्रचलित हुई। नर्म और सख़्त जिल्द। कभी इन जिल्दों पर काग़ज़ का कवर भी होता है, जिसे जिल्द को सुरक्षित रखने या सुन्दरता के लिए लगाया जाता है। वह किताब की जिल्द से अधिक चौड़ा होता है, इसीलिए उसके दो किनारे जिल्द के अन्दर की ओर मुड़े हुए होते हैं।

जिल्द का शाब्दिक अर्थ खाल या चमड़ा है। किताब के कवर को जिल्द कहा जाता है, जो किताब के आरम्भिक एवं अंतिम भाग को ढकती है। वास्तव में जिल्द किताब को सुरक्षित रखने और मज़बूती प्रदान करने के लिए होती है। प्रत्येक जिल्द के दो असली भाग होते हैं, जिन्हें चमड़े या मोटे कपड़े से आपस में जोड़ा जाता है। कुछ जिल्दों के किनारे भी बनाए जाते थे, एक किनारा दूसरे छोर के किनारे को ढकता था, इस प्रकार से इसे अधिक सुरक्षित रखा जा सकता था।

किताब की जिल्द की आयु किताब की आयु के बराबर ही होती है। सबसे पुरानी जिल्द वाली किताब कॉप्टिक इंजील थी, जिसे हज़रत ईसा के 6 शताब्दियों बाद मिस्र में तैयार किया गया था। इस प्रकार से कि पेपिरस की कुछ परतों द्वारा जिल्द को बनाया गया और उसके ऊपर चमड़ा चढ़ाया गया और उसे चमड़े की डोरी से बांधा जाता था।

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ईरान में किताब के विकास के साथ साथ जिल्द साज़ी ने भी विकास किया। इब्ने बादीस ने उमदतुल कुत्ताब में ख़ुरासान के जिल्द साज़ों और बाइंडिंग करने वालों के उपकरणों का उल्लेख किया है, जिससे इस्लामी जगत के ख़ुरासान में पांचवीं हिजरी शताब्दी में जिल्द साज़ी की लोकप्रियता का पता चलता है। रशीदुद्दीन फ़ज़्लुल्लाह हमदानी द्वारा रुब रशीदी से जिल्द साज़ों से मज़बूत जिल्दों के तैयार करने की सिफ़ारिश से, ईरान में जिल्द साज़ी के उद्योग के महत्व का पता चलता है। छठी हिजरी शताब्दी से पहले ईरानी जिल्द साज़ों द्वारा बनाई जाने वाली जिल्दों के बारे में कि जिससे ईरान में जिल्द साज़ी के उद्योग की जानकारी हासिल हो मौजूद नहीं हैं। जो बात निश्चित है वह यह है कि ईरानी जिल्द साज़ों के बीच लकड़ी और चमड़े की जिल्दें तैयार करने का चलन था।

आठवीं शताब्दी के पहले अर्ध से संबंधित क़ुराने मजीद पर ईरानी जिल्दों के दो नमूने मौजूद हैं, जिससे यह बात पता चलती है कि ईरानी जिल्द साज़ ज़र्बी अर्थात गुणक और मुश्तेयी अर्थात क्षुधावर्धक प्रकारों से परिचित थे। हालांकि ईरान में किताब और बाइंडिंग का विकास नवीं हिजरी शताब्दी में हुआ। इस काल में तैमूरी शासन के केन्द्र हरात में यह पेशा आम था और तैमूरी काल में इस पर ध्यान दिया गया, जिससे बाइडिंग उद्योग के विस्तार का पता चलता है।

तैमूरी राजकुमारों के पुस्तकालयों में भी क़िवामुद्दीन तबरेज़ी जैसे दक्ष जिल्द साज़ मौजूद थे। वे ऐसे जिल्द साज़ थे, कि जिन्होंने बाइंडिंग में लकड़ी पर होने वाली नक्क़ाशी को शामिल किया। इसी काल में जिल्द साज़ों ने नक्क़ाशों अर्थात चित्रकारों के सहयोग से जिल्दों को तैयार किया और अपनी कला का प्रदर्शन किया।

तैमूरी काल में ईरानी जिल्द साज़ों के बीच लोकप्रिय जिल्दें इस प्रकार से थीं। रोग़नी जिल्द ईरानी जिल्दों में बहुत सुन्दर होती है और उसे तैयार करने में जिल्द साज़, चित्रकारी और सुलेखक की मदद लेता है। गुणक जिल्द में जिल्द साज़ जिल्द के ऊपर गुणक रूप में या उकेरकर चित्र बनाते हैं। मोअर्रक़ जिल्द भी तैमूरी काल में प्रचलित थी, जिसे पहली बार क़िवामुद्दीन तबरेज़ी ने शाहज़ादे बाइस्न्क़ुर मिर्ज़ा के लिए बनाया था।

रोग़नी, ज़र्बी, मोअर्रक़ और सदफ़कार जिल्दों को अकसर ऐसी किताबों के लिए तैयार किया जाता था, जो मंत्रियों और अमीरों के पुस्तकालयों से विशेष होती थीं। शैक्षणिक केन्द्रों और विद्वानों की किताबों पर अधिकांश सामान्य चमड़े या गत्ते की जिल्द होती थी।

क़ाजारी काल में कपड़े की जिल्द भी काफ़ी लोकप्रिय थी। उसकी एक क़िस्म तिरमे जिल्द है। इस प्रकार की जिल्द को विशेष प्रकार के कपड़े से बनाया जाता है। अकसर क़ाजारी काल में दुआओं और हस्तलिखित किताबों को इस प्रकार से बाइडिंग किया जाता था।

गत्ते की जिल्द भी क़ाजारी काल में प्रचलित थी। इसे तैयार करने में कई प्रकार के काग़ज़ों का प्रयोग किया जाता था। इसी काल में मोहम्मद तक़ी सह्हाफ़ बाशी विलायत गए और वहां उन्होंने फ़िरंगी या विलायती जिल्द साज़ी सीखी और ईरान वापस लौटकर जिल्दें तैयार कीं, जो विलायती या फ़िरंगी जिल्दों के नाम से मशहूर हुईं।

 

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