तकफ़ीरी आतंकवाद-43
इससे पहले हमने शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार ईमान तथा कुफ़्र की परिभाषा के बारे में आपको बताया।
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार ईमान के तीन दर्जे हैं। पहला दर्जा है ज़बान से पुष्टि करना। दूसरा दर्जा दिल से पुष्टि करने का है और तीसरा दर्जा कर्मों और अमल से पुष्टि का है। इस्लाम की दृष्टि में हर वह व्यक्ति जो ईश्वर के अनन्य होने तथा पैग़म्बरे इस्लाम के ईश्वर का दूत होने की गवाही दे वह मुसलमान हो जाता है। इस्लामी शिक्षाओं में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपनी ज़बान से कह दे कि वह गवाही देता है कि ईश्वर एक है और हज़रत मोहम्मद ईश्वर के पैग़म्बर हैं वह मुसलमान हो जाता है। इसके बाद हृदय से इस बात को मानने और इसी मान्यता के अनुसार अमल करने के चरण आते हैं। यह ईमान के अलग अलग चरण हैं।
मगर वहाबियत और तकफ़ीरी विचारधाराएं तथा उनमें सबसे बढ़कर दाइश संगठन अपनी हल्की सोच के कारण इस्लाम और ईमान के एक ही दर्जे को मानते हैं और उनका कहना है कि जो भी इस दर्जे तक ख़ुद को पहुंचाए वह मुसलमान है तथा जो भी इस तक न पहुंचे वह नास्तिक है। इस चरमपंथी विचारधारा के लोग ईश्वर को अनन्य, हज़रत मोहम्मद को ईश्वर का दूत मानने वालों नमाज़ पढ़ने वालों और रोज़ा रखने वालों को भी काफ़िर घोषित करने में संकोच नहीं करते। वह अपने इस चरपमंथी रवैए के लिए क़ुरआन के सूरए माएदा की आयत संख्या 44 का हवाला देते हैं जिसमें ईश्वर ने कहा है कि जो लोग ईश्वर द्वारा भेजे गए पैमाने के अनुसार आदेश न दें वह काफ़िर हैं। तकफ़ीरी वहाबी विचारधारा ईश्वर पर ईमान, पैग़म्बर पर ईमान, प्रलय पर ईमान तथा ईमान और अमल के निश्चित रिश्ते पर कोई ध्यान दिए बिना उन लोगों को काफिर घोषित कर देते हैं जो महापुरुषों से श्रद्धा रखते हैं और उनकी क़ब्रों की ज़ियारत के लिए जाते हैं। ईश्वर के समक्षा उनका वास्ता देकर दुआ मांगते हैं। तकफ़ीरी वहाबियों का कहना है कि ऐसे लोगों की हत्या की जा सकती है और उनकी इज्ज़ात उछाली जा सकती है। अपनी इस विचारधारा के कारण दाइश संगठन अपने अलावा अन्य सुन्नी समुदायों, शीया समुदाय तथा दूसरे समुदायों को काफ़िर मानता है और उनका ख़ून बहाता है। दाइश का कहना है कि इन समुदायों के लोगों की तौबा भी स्वीकार नहीं होती तथा उनकी हत्या कर देने में कोई हरज नहीं है।
तकफ़ीरी विचारधारा के लोग कहते हैं कि यदि ईमान है तो अमल होना अनिवार्य है। उनके जवाब में यह कहना चाहिए कि ज़बान और हृदय से पुष्टि इंसान के अस्तित्व के भीतर अंजाम पाने वाली किया है। इसके साथ यदि इंसान अमल नहीं करता तो वह उत्थान के चरणों तक नहीं पहुंच सकता। अर्थात ईमान है तो उसकी मांग यह ज़रूर होगी कि इंसान उस ईमान के अनुसार अमल करे लेकिन यह भी स्पष्ट है कि ईमान और अमल दो अलग अलग चीज़ें हैं। तकफ़ीरी विचारधारा का कहना है कि ईमान और अमल एक दूसरे के अभिन्न भाग हैं लेकिन अक़्ल यह कहती है कि अमल ईमान का भाग नहीं है। सूरए बक़रह की आयत संख्या 277 में ईश्वर ने कहा है कि निश्चित रूप से वह लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने भले कर्म किए। इससे पता चलता है कि अमल और ईमान एक ही नहीं दो अलग अलग चीज़ें हैं। इसी तरह सूरए ताहा की आयत संख्या 112 में ईश्वर ने कहा है कि लेकिन वह व्यक्ति जो भले कर्म करे और साथ ही वह मोमिन भी हो। इससे भी पता चलता है कि ईमान और अमल अलग अलग चीज़े हैं। सहीह बुख़ारी सुन्नी समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस किताब में है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने ख़ैबर युद्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि दुशमनों से उसी समय तक लड़ो जब तक वह कलमा न पढ़ लें। लेकिन जैसे ही उन्होंने कलमा पढ़ा उनकी जान और उनका माल सुरक्षित माना जाएगा। यहां यह तात्पर्य नहीं है कि कोई यदि ईमान का दावा कर दे लेकिन उसके अनुरूप अमल न करे तो कोई हरज नहीं है। अर्थात किसी ने ज़ाहिरी तौर पर ईमान का एलान कर दिया लेकिन भले कर्म न किए तो उसे प्रलय में दंडित किया जाएगा। लेकिन दुनिया में इस्लाम ने हमें यह आदेश दिया है कि उसके साथ हमारा रवैया मुसलमानों जैसा होना चाहिए।
इसके वपरीत तकफ़ीरी विचारधारा के लोगों का कहना है कि जो भी उनके समान अमल न करे वह सुन्नी हो या शीया उसे काफ़िर माना जाएगा। तकफ़ीरी विचारधारा के लोगों की मुश्किल है कि उनकी सोच बहुत संकीर्ण होती है और वह इस्लामी शिक्षाओं से अपनी इसी संकीर्ण सोच के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं और इसके अलावा किसी बात को मानने पर तैयार नहीं होते। यही कारण है कि वहाबी विचारधारा के लोग कभी भी किसी डिबेट और शास्त्रार्थ में शामिल नहीं होते। अन्य समुदायों के धर्मगुरुओं की ओर से तकफ़ीरी विचारधारा की कमियों और क़ुरआन तथा पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों से इस विचारधारा के टकराव के बारे में महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित किया जाता है तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता।
तकफ़ीरी विचारधारा जिस मुद्दे पर बहुत अधिक बल देती है वह है जेहाद। जेहाद का विषय तकफ़ीरी विचारधारा की महत्वपूर्ण बुनियाद है। उनका मानना है कि नास्तिकता का मुक़ाबला करने के लिए खुल कर या ख़फ़िया ढंग से, हथियार बंद तरीक़े से या बिना हथियार के जिहाद शुरू कर देना चाहिए। तकफ़ीरी संगठनों विशेष रूप से अलक़ायदा संगठन के विचार मे जेहाद को बहुत अधिक महत्व है। वह वहाबी मुफ़्तियों के फ़तवों तथा क़ुरआन की आयतों से मनमाने ढंग से निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर यह कहते हैं कि जेहाद कहीं भी शुरू किया जा सकता है। इस विचारधारा का निचोड़ यह है कि इस्लाम को बुद्धिजीवियों और विचारकों से ज़्यादा लड़ाकों की ज़रूरत है। सैयद क़ुत्ब बहुत बड़े विचारक थे जिन्होंने जेहाद के अर्थ को आइडियालोजिकल रूप दिया। उन्होंने इस्लामी समाज और अज्ञानी समाज के विचार को विस्तार से बयान किया तथा निर्धारित किया कि युद्ध के क्षेत्र कौन से हैं जहां जेहाद किया जा सकता है। इस तरह तकफ़ीरी विचारधारा के निकट जेहाद को महत्वपूर्ण सिद्धांत तथा समस्याओं का समाधान माना जाता है। तकफ़ीरी विचारधारा को मानने वाले अब्दुल्ला अज़्ज़ाम कहते हैं कि बातचीत, सम्मेलन और संवाद कुछ नहीं केवल जेहाद और बंदूक़। दाइश के विचार में जितनी भी इस्लामी सरकारें हैं सब काफ़िर हैं तथा मोमिन वह हैं जो इन काफ़िर सरकारों को गिराने के लिए खुले आम या गुप्त रूप से गतिविधियां करें। उनका कहना है कि सरकारों को जेहाद के मार्ग से गिराकर इस्लामी सरकारों का गठन करना हर महिला और पुरुष पर वाजिब है। एक और तकफ़ीरी लीडर अब्दुस्सलाम फ़रज का कहना है कि इस्लाम के नियमों और क़ानूनों को लागू करना सभी मुसलमानों का कर्तव्य है अतः इस्लामी शासन का गठन भी वाजिब है और यदि इस्लामी शासन युद्ध के ही मार्ग से संभव हो तो मुसलमानों को चाहए कि तलवार उठा लें।
अलक़ायदा जैसे तकफ़ीरी संगठन इसी विचारधारा के आधार पर जेहाद तथा हमले और हिंसा को अपनी कार्यशैली का हिस्सा बनाते हैं और यह मानते हैं कि उनकी बर्बरता पूरी तरह वैध है। दाइश के सरग़ना अबू बक्र बग़दादी का कहना है कि इंदूलेशिया अथवा स्पेन के हाथ से जाने के बाद मुसलमानों पर वाजिब है कि मुस्लिम क्षेत्रों को आज़ाद कराने के लिए युद्ध करें तथा ईश्वर का इंकार करने के पाप के बाद सबसे बड़ा पाप ईश्वर के मार्ग में जेहाद करने से इंकार है।
कोल बोन्ज़ल ने तकफ़ीरी विचारधारा के बारे में शोध किया है। उनका कहना है कि दाइश की जेहादी शैली वहाबी विचारधारा पर आधारित है। उनका कहना है कि दाइश का सबसे अधिक ज़ोर जेहाद पर है और वहाबी विचारधारा कहती है कि कुफ़्र और अनेकेश्वरवाद को ख़त्म करने के लिए जेहाद किया जाना चाहिए। दाइश जैसे संगठन अपनी दरिंदगी को सही ठहराते हैं और कुरआन की आयतों का ग़लत अर्थ निकाल कर उसका औचित्य पेश करते हैं। दाइशी आतंकी सूरए मोहम्मद की आयत संख्या चार का हवाला देते हैं जिसमें ईश्वर ने कहा है कि जब कुफ़्र के रास्ते पर चलने वालों का सामना हो तो उनकी गरदन मार दो जब उन्हें गिरा दो तो ज़ोर से बांध दो। इन आयतों की मदद से वह शीयों तथा ग़ैर वहाबी सुन्नियों की हत्याएं करते हैं। दाइश जैसे तकफ़ीरी संगठनों के यहां यह बात विशेष रूप से देखने में आ रही है कि वह ग़ैर मुस्लिमों से ज़्यादा मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध की बात करते हैं। वह पश्चिम या ज़ायोनी शासन के बजाए मुसलमानों को नुक़सान पहुंचा रहे हैं।
इब्ने तैमीया की विचारधारा के आधार पर अब्दुस्सलाम फ़रज का कहना है कि दूर के दुशमन के मुक़ाबले में क़रीब के दुशमन से लड़ना ज़्यादा ज़रूरी है। जब उनसे कहा जाता है कि आप लोग तो मुसलमानों को मार रहे हैं और ज़ायोनी शासन से आप की दुशमनी नहीं है तो वह सूरए तौबा की आयत संख्या 123 का हवाला देते हैं जिसमें ईश्वर ने कहा है कि हे ईमान वालो! जो काफ़िर तुम्हारे निकट हैं उनसे युद्ध करो। दूर का दुशमन तुम्हारा ध्यान नज़दीक के दुशमन की ओर से हटा न दे। तकफ़ीरी संगठन शीयों को नज़दीक का दुशमन मानते हैं तथा उनकी हत्या को अपनी प्राथमिकता मानते हैं। तकफ़ीरी संगठनों ने जो रवैया विशेष रूप से इराक़ और सीरिया में अपनाया है उसकी गुंजाइश शीया सुन्नी किसी भी विचारधारा में नहीं है।