इस्लाम और मानवाधिकार- 46
मनुष्य समाज के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में बहुत अधिक इच्छाओं और झुकाव रखने वाला होता है और एक योग्य जीवन व्यतीत करने के लिए वह भरसक प्रयास करता है।
खान पान, वस्त्र, घर, स्वास्थ्य और परिवार की अन्य कल्याणकारी वस्तुएं, उन अधिकारों में है जिनके लिए समाज की ज़िम्मेदारी है कि पहले तो इन अधिकारों का सम्मान करे और फिर इनकी आपूर्ति के लिए लोगों की सहायता करे।
सामाजिक कल्याण की प्राप्ति का अधिकार, मनुष्य के अधिकारों में से एक है। मानवाधिकार के वैश्विक घोषणापत्र के 25वें अनुच्छेद की पहली धारा में बयान किया गया है कि सभी को खाने पीने, वस्त्र, घर, चिकित्सा सुविधा, अपने और अपने परिवार के कल्याण से संबंधित सेवाओं सहित कल्याणारी और स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं से संपन्न रहने का अधिकार है। इसी प्रकार बेरोज़गारी, बीमारी, विकलांगक्ता, विधवा होने, बुढापे और अन्य मामलों में जिसके कारण मनुष्य अपनी आजीविका चलाने की क्षमता खो देता है, सम्मानीय जीवन व्यतीत करने का अधिकार है।
सामाजिक न्याय की स्थापना से शालीन जीवन की आशा लोगों के लिए व्यवहारिक होगी। अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक समझौते के पहले अनुच्छेद के 11वीं धारा के आधार पर इस समझौते में शामिल समस्त देशों को हर किसी के इस अधिकार को ओपचारिक रुप से स्वीकार करना चाहिए कि वह अपने और अपने परिवार के जीवन स्तर को अच्छा के करने के लिए खाद्य पदार्थ, कपड़े, और घर जैसी मूल आवश्यकताओं से संपन्न रहे। इस समझौते में शामिल देश इस अधिकार कत पूरा करने के लिए आवश्यक कार्यवाही करेंगे और इस दृष्टि से मूल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को स्वीकार करेंगे।
सामाजिक कल्याण, सभी की परस्पर ज़िम्मेदारियों के आधार पर मुख्य सामाजिक न्याय से संपन्न होता है जिसमें लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वह एक दूसरे का सम्मान करें और सक्षम लोगों पर ज़िम्मेदारी है कि वे निर्धन और दरिद्र लोगों का ध्यान रखें।
शालीन जीवन पर बल दिए जाने के बावजूद समाज के लोगों को सदैव से समस्याओं और परेशानियों का सामना रहा है और यह लोग संयोग से या जानबूझकर विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करते हैं। इन परिस्थितियों में समाज के लोगों का समर्थन एक अटल सच्चाई बन जाता है।
इस्लाम धर्म में समाज की इस ज़िम्मेदारी पर इतना अधिक बल दिया गया है कि मानो समस्त मुसलमान एक शरीर के अंग हैं। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम के कथन में आया है कि दूसरों के साथ दोस्ती, आपसी मेल जोल और भाई चारे में मोमिनों का उदाहरण एक शरीर की भांति है कि यदि शरीर के एक अंग में समस्या पैदा हो जाती है दूसरा भी उसके साथ ही प्रभावित हो जाता है।
हालिया एक शताब्दी के दौरान समाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के मामले को बहुत से उतार चढ़ाव का सामना रहा है। इस विषय के अस्तित्व में आने के बाद, समाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने का कार्यक्रम उन लोगों के समर्थन के लिए चलाया गया जो अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में अक्षम होते हैं। इस दौरान सामाजिक आवश्यकता का कार्यक्रम, एक प्रकार से सामाजिक बीमा के कार्यक्रम से निकट हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात, चिकित्सा सुविधाओं, खान पान, वस्त्र, कपड़े, यातायात और ईंधन के बारे में मनुष्य की आरंभिक आवशयकताओं पर विशेष ध्यान दिया गया और सरकार की ज़िम्मेदारी होती थी कि जो अपनी आवश्यकताओं को पूरा न कर सके उसका ध्यान रखे और धीरे धीरे सामाजिक बीमे ने सामाजिक आवश्यकताओं का स्थान ले लिया।
हालिया कुछ दशकों के दौरान, समाज के कुछ लोगों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के प्रयास के बजाए, एक स्वीकार्य सतह तक पहुंचने तक, समाज के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने पर बल दिया गया। इस काल में सामाजिक आवश्यकताएं सामाजिक कल्याण के अर्थ से निकट हो गयीं और चिकित्सा और उपचार की व्यापक व्यवस्था, राष्ट्रीय शिक्षण सेवा, कर में छूट, मज़दूरी के क़ानून में छूट, कृषि उत्पादों की ख़रीदारी की गैरेंटी, घरों के निर्माण और उनके प्रबंध की योजना और उत्पादों और बैंकों की सब्सिडी जैसे मामले में विकसित हो गये। सामाजिक आवश्यकताओं को जिन मामलों में जारी किया जाता है, वह एक देश के क़ानून से दूसरे देशों के क़ानूनों से भिन्न है। इसी लिए एक ऐसी सूची प्राप्त करना कठिन है जिस पर सभी देश एकमत हों।
सामाजिक आवश्यकताओं के मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाना, यूरोप में पुनर्जागरण के बाद अस्तित्व में आने वाले परिवर्तनों के दृष्टिगत किया गया। इन सबके बावजूद वर्तमान समय में पूंजीवादी सामाजिक आवश्यकताओं में प्रचलित आदर्श को गहरे वित्तीय संकट सहित विभिन्न चुनौतियों का सामना है।
निसंदेह इस विचार के प्रकट होने का लंबा इतिहास है। इस बारे में पता करने के लिए सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने और इस संबंध में ईश्वरीय धर्मों की क्या भूमिका रही है, हमें इतिहास का अध्ययन करना होगा।
अरब प्रायद्वीप में अज्ञानता के काल में पैग़म्बरे इस्लाम के भेजे जाने के बाद, समाजिक आवश्यकता को पूरा करने का कोई आदर्श मौजूद नहीं था। हर सामाजिक संस्था के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारक, समाज पर छायी सत्ता व्यवस्था और समाजिक ढांचा है। इस दृष्टि से पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने सबसे पहले अपने दृष्टिगत व्यवस्था की स्थापना के लिए क़दम उठाया और एकेश्वरवाद का निमंत्रण देकर मज़बूत सामाजिक संस्था का आधार रखा। प्रलय पर ईमान, परलोक का अनंत जीवन और उन लोगों के लिए स्वर्ग की अनुकंपाओं का वचन जो ईश्वर के मार्ग में संघर्ष करते हैं, आस्था के वह स्तंभ थे जिनसे पैग़म्बरे इस्लाम ने लोगों को परिचित कराया। यह दोनों आस्थाएं, ऐसा आधार थीं जिन्होंने सामाजिक आवश्यकताओं के आदर्श सहित जीवन के समस्त कार्यक्रमों को व्यवहारिक बनाने के लिए आवश्यक भूमिका प्रशस्त की।
मदीना पलायन करने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने सबसे पहले सामाजिक आवश्यकताओं की नीति लागू करने के लिए सामाजिक संस्थाओं को व्यवस्थित और मज़बूत किया। समाजिक संस्था में सबसे मज़बूत और पहली इकाई परिवार है जो बच्चों, बूढ़ों महिलाओं और पीड़ितों के समर्थन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह संस्था इस्लाम से पहले भी मौजूद थी और पैग़म्बरे इस्लाम ने विभिन्न आयामों से इसे मज़बूत बनाया। सबसे पहले तो उन्होंने परिवार के गठन के लिए युवाओं और कुंआरे लोगों को विवाह के लिए प्रोत्साहित किया और फिर उन्होंने परिवार के सदस्यों के बीच मेलजोल और प्रेम को मज़बूत करने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने पति और पत्नयी तथा बच्चों और माता पिता के मध्य एक दूसरे से प्रेम करने और उनसे स्नेह की भावना का पाठ पढ़ाया, उनके इस आदेश से परिवार की इकाई मज़बूत हुई। तीसरा काम उन्होंने परिवार के सदस्यों के आर्थिक वित्तीय संबंधों को मज़बूत करने का किया। जैसे पति और पत्नी के बीच काम का विभाजन, पति पर पत्नियों के ख़र्चे की ज़िम्मेदारी, बच्चों और माता पिता की आवश्यकता को पूरा करना इत्यादि।
सगे संबंधी या क़बीले के लोग, सामाजिक संस्था की दूसरी कड़ी हैं जो परिवार के सदस्यों के मिलने और एक दूसरे के साथ उठने बैठने से गठित होती है। यह संस्था भी सामाजिक समर्थन के संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण अचानक या धोखे से हो गयी हत्या का हर्जाना भरने में उनकी भागीदारी की ओर संकेत किया जा सकता है। इस प्रकार के क्रियाकलाप इस्लाम धर्म से पहले भी मौजूद था। पैग़म्बरे इस्लाम ने भी इसकी पुष्टि की है। लोगों के परिवार और सगे संबंधियों के जुड़ने से क़बीला अस्तित्व में आता है जिसका इतिहास इस्लाम से पहले भी मिलता है। सहायता प्राप्त करने के लिए सामाजिक इकाइयों को गठित करने जैसे मामले के सकारात्मक परिणाम सामने आए थे इसीलिए इनसे भी लाभ उठाया गया। इस सामाजिक इकाई में एकता का सबसे संयुक्त बिन्दु जो था वह ख़ून, अपनापन, जात पात व राष्ट्र जैसे प्राकृतिक तत्व थे। इसमें दो बड़ी कमियां थीं पहली कमी यह थी कि इनमें से कुछ क़बीले के दायरे से हटकर एक प्लेटफ़ार्म पर आने को स्वीकार नहीं करते थे और इस आधार पर उन्होंने एक ऐसे समाज का समर्थन नहीं किया जिसमें समस्त क़बीले के लोग शामिल होंग और एक राष्ट्र हो, दूसरी कमी क़बीले के दायरे से नीचे भी जाने को तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी प्रतिष्ठ पर बट्टा लगा रही थी।
पैग़म्बरे इस्लाम ने सभी लोगों को परिवार की परिधि में एक दूसरे का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया और आपस में एकता पर बल दिया। एकता का अह्वान करने वाला यह तत्व, समाज में एक दूसरे से धार्मिक और ईमान के आधार पर एकता का कारण था। पैग़म्बरे इस्लाम ने मदीने में अपने निवास के दौरान पहले महीने में ईमान की एकता के आधार पर दो महत्वपूर्ण कार्य किए। सबसे पहले तो उन्होंने इस्लामी समुदाय का घोषणापत्र तैयार किया। इस घोषणापत्र में लोगों के समर्थन के बहुत से विषय वर्णित थे। उदाहरण स्वरूप इस घोषणापत्र में आया था है कि यदि किसी मोमिन को ऋण, परिवार को चलाने और दिवालिएपन की समस्या का सामना हो और वह इसका ख़र्चा न उठा पाए तो समस्त मोमिन उसको इस कठिन घड़ी में अकेला न छोड़ें बल्कि उसकी समस्या के निवारण के लिए उसका ऋण अदा करने और अन्य समस्याओं में उसकी मदद करें।
दूसरा महत्वपूर्ण क़दम मुसलमानों के मध्य भाईचारे का समझौता कराना था। इस समझौते के परिणाम में पलायनकर्ता या मुहाजेरीन जिनके पास घर बार, काम और जीवन यापन के लिए आवश्यक पैसे नहीं थे, अपने अंसार भाई के माल और उसके जीवन में बराबर के भागीदार हो गये। इस प्रकार से उनके घर, काम और आय के लिए भूमिका प्रशस्त हो गयी। पैग़म्बरे इस्लाम ने उन मुसलमानों के लिए जो समझौते में सफल नहीं हो सके मस्जिद के किनारे एक सुफ़्फ़ा नामक स्थान बनाया जो वहीं जीवन यापन करते थे और अन्य मुसलमानो की सहयता से उनके जीवन की आवश्यकताएं पूरी होती थीं।