इस्लाम और मानवाधिकार- 49
मानव समाजों में महिलाओं के बारे में जो नकारात्मक विचार व दृष्टिकोण पाये जाते हैं उनमें से एक यह है कि महिलाओं को पुरूषों के तुफैल में और उनकी वजह से पैदा किया गया है और महिलाओं को चाहिये कि वे पुरूषों की आवश्यकताओं को पूरा करें और इसी कारण पुरूषों की तुलना महिलाओं को समाजों में कम महत्वपूर्ण समझा जाता है!
इस प्रकार की विचारधारा के मौजूद होने के बावजूद पवित्र कुरआन महिला और पुरुष में से किसी एक को भी दूसरे पर श्रेष्ठ नहीं समझता है और कोई भी किसी के तुफैल में पैदा नहीं हुआ है बल्कि दोनों को एक दूसरे का पूरक समझता है। इस्लाम कहता है कि महिला और पुरुष दोनों को एक दूसरे के लिए पैदा किया गया है। पवित्र कुरआन के सूरे बक़रा की आयत नंबर 187 में महान ईश्वर कहता है” महिलाएं तुम्हारा वस्त्र हैं और तुम महिलाओं के वस्त्र हो”
महिला और पुरुष एक दूसरे को गुमराही व पथभ्रष्टता से रोकते हैं, एक दूसरे की कमियों को छिपाते हैं और दोनों एक दूसरे के आराम व शांति का कारण हैं। इस आधार पर महिला और पुरुष, दोनों को एक दूसरे का आभूषण समझा जाता है। पवित्र कुरआन ने सूरये बकरा की आयत नंबर 187 में जिन शब्दों का प्रयोग किया है उससे महिला और पुरुष के बीच आध्यात्मिक संबंध और दोनों का समान होना स्पष्ट हो जाता है। जो बात पुरुषों के बारे में कही गयी है वही बात किसी प्रकार की कमी या परिवर्तन के बिना महिला के बारे में भी कही गयी है।
महिला के बारे में मानव समाजों में जो नकारात्मक विचार व धारणा पायी जाती है उनमें से एक यह है कि महिला का अस्तित्व बुराई का अस्तित्व समझा जाता है जबकि पवित्र कुरआन ने महिला के अस्तित्व को पुरुष की शांति व आराम का कारण बताया है। पवित्र कुरआन सूरे रोम की 21वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी सहजाति में से ही तुम्हारा जोड़ा बनाया है ताकि तुम उसके साथ शांति प्राप्त करो।“
पवित्र कुरआन की इस आयत में महिला को शांति का कारण बताया गया है। साथ ही इस आयत में महिला को महान ईश्वर की एक बड़ी निशानी के रूप में बयान किया गया है।
इस समय कानून की दृष्टि से महिला और पुरुष के लिए समान कानून बनाने और महिला तथा पुरुष के मध्य प्राकृतिक अंतरों की अनदेखी करने का प्रयास किया जा रहा है। ईरान के प्रसिद्ध मुसलमान विचारक व बुद्धिजीवी उस्ताद शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी का मानना है कि महिला और पुरुष के अधिकारों का बराबर होना अटल वास्तविकता है परंतु दोनों के अधिकारों का एक जैसा होना सही नहीं और असंभव है। क्योंकि महिला और पुरुष की जो प्राकृतिक बनावट व संरचना है और दोनों की शारीरिक व आध्यात्मिक आवश्यकताओं के दृष्टिगत दोनों के अधिकारों का समान होना न तो सही है और न ही संभव है बल्कि उचित यह है कि महिला को वे अधिकार दिये जायें जिसके वह योग्य है और प्राकृतिक बनावट की दृष्टि से महिला और पुरुष में जो अंतर हैं उनके दृष्टिगत दोनों के अधिकारों में भी अंतर होना चाहिये। यह बात न्याय और प्राकृतिक अधिकार के अनुरुप है और इंसान का कल्याण इस तरह पूरा होगा। क्योंकि प्राकृतिक दृष्टि से महिला और पुरुष की कुछ क्षमताएं व आवश्यकताएं एक दूसरे से भिन्न हैं और ये भिन्नताएं सामाजिक और पारिवारिक जीवन आदि में स्पष्ट होती हैं। इस आधार पर प्रकृति में जो अंतर हैं वे महिला और पुरुष के लिए निर्धारित कानूनों में स्पष्ट होते हैं।
इस्लाम धर्म में महिला को काम करने, किसी चीज़ का मालिक बनने और धन संचित करने का अधिकार प्राप्त है और पुरुष को इस बात का अधिकार नहीं है कि महिला की संपत्ति को अपना बना ले या उसे खर्च कर दे। हां अगर महिला खुशी से अपनी सम्पत्ति पुरुष को दे दे या उसे खर्च करने की अनुमति दे दो उसमें किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं है। महिला में भी पुरुष की भांति सोचने, समझने, रचनात्मकता और काम करने आदि की क्षमता मौजूद है। उसे यह क्षमता महान ईश्वर ने प्रदान की है और तर्कसंगत यह है कि उससे लाभ उठाया जाये। चूंकि हर प्राकृतिक योग्यता व क्षमता एक प्राकृतिक अधिकार भी होता है। इसलिए महिला का कार्य करना एक अधिकार है जिसे महान ईश्वर ने उसे प्रदान किया है और उसे इस अधिकार से वंचित करना न्याय के खिलाफ है। जो अधिकार महान ईश्वर ने महिला को प्रदान किया है उससे महिला को रोकना न केवल महिला पर अत्याचार है बल्कि समाज के साथ धोखा व विश्वासघात भी है। क्योंकि हर वह चीज़ समाज के लिए हानिकारक है जो प्राकृतिक और महान ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी शक्तियों व योग्यताओं के कमजोर होने का कारण बने।
इस्लाम इस बात को बिल्कुल पसंद नहीं करता कि महिला बेकार बैठे और लाभहीन चीज़ अस्तित्व में आये। इस्लाम के अनुसार महिला का कार्य स्वयं महिला से संबंधित है। घर में जो कार्य महिला के हवाले किये जाते हैं अगर वह चाहे तो उसे स्वेच्छा से और फ्री में अंजाम दे सकती है और अगर उसे अंजाम नहीं देना चाहती है तो पुरुष उसे बाध्य भी नहीं कर सकता। यहां तक कि महिला जो बच्चे को दूध पिलाती है उसके बदले में भी वह पैसा ले सकती है। यद्यपि प्राथमिकता यह है कि महिला बच्चे को दूध पिलाये परंतु पैसा लेने से उसकी यह प्राथमिकता समाप्त नहीं होती है। हां जब महिला दूध पिलाने का पैसा अधिक मांगे और उससे सस्ते में दूसरी महिला बच्चे को दूध पिलाने के लिए तैयार है तो पुरुष बच्चे को उस महिला को दे सकता है।
महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर से विशेष नहीं है बल्कि महिला हर वह कार्य कर सकती है जिससे समाज और विवाह के कारण अस्तित्व में आने वाले अधिकार को नुकसान न पहुंचे और काम से होने वाली आमदनी का संबंध भी महिला से है यानी उस पर महिला का अधिकार है।
हिजाब पर एक आपत्ति यह की जाती है कि वह महिला को काम करने की दिशा में रुकावट है। इसका उत्तर यह है कि इस्लाम में हिजाब का आधार यह है कि शारीरिक व यौन संबंधी आनंद परिवार में और वैध जीवन साथी के लिए ही विशेष होना चाहिये और समाज व घर से बाहर का वातावरण कार्य के लिए होना चाहिये। इसी कारण इस्लाम महिला को इस बात की अनुमति नहीं देता है कि वह घर से बाहर निकलने पर ऐसा कार्य करे जो पुरुषों की भावनाओं के भड़कने का कारण बने और पुरुषों को भी इस बात की अनुमति नहीं देता कि वे महिलाओं को लोभ की दृष्टि से देखें। इस प्रकार का हिजाब न केवल महिला की कार्यशक्ति को बाधित नहीं करता बल्कि समाज की कार्यशक्ति में मज़बूती का भी कारण बनता है।
इस्लाम समाज में महिला की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का विरोधी नहीं है और इस्लामी रवायतें इस बात की पुष्टि करती हैं। इस्लाम महिला की क्षमता को दबाने व अपंग बनाने और समाज में उसे सांस्कृतिक व सामाजिक गतिविधियों से वंचित करने का विरोधी है। इस्लाम यह नहीं कहता है कि महिला घर से बाहर न निकले और वह ज्ञान प्राप्त करने के अधिकार का इंकार नहीं करता है। इसी तरह इस्लाम ने महिला की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों को हराम भी नहीं किया है। इस्लामी इतिहास इस बात का साक्षी है कि धार्मिक व सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्राणप्रिय बहन हज़रत ज़ैनब उनके साथ थीं। कर्बला की महान घटना इसका स्पष्ट उदाहरण है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कर्बला की ऐतिहासिक यात्रा में जो अपने परिजनों को साथ लिए हुए थे वह एक सोचा- समझा कार्य था और उसका कारण कर्बला की अमर घटना के संदेशों को लोगों तक पहुंचाना था।
इस्लाम महिला और पुरुष के मध्य वैध संबंध को पवित्रता की दृष्टि से देखता है और एक संतुलित धर्म के रूप में वह इंसान के जीवन के किसी भी पहलु से निश्चेत नहीं है और महिलाओं को उस सीमा तक काम करने और सामाजिक गतिविधियों की अनुमति देता है जो समाज की गुमराही का कारण न बने। जैसे महिला हज कर सकती है, रक्षात्मक जेहाद कर सकती है, जुमा, ईदे फित्र और ईदे कुरबान की नमाज़ पढ़ सकती है। इस्लामी शासक से बैअत कर सकती है। जैसाकि हम जानते हैं कि महिलाओं पर जेहाद करना अनिवार्य नहीं है किन्तु जब उसके शहर और मुसलमानों के क्षेत्र पर हमला हो जाये तो उस समय महिलाओं का जेहाद करना भी ज़रूरी हो जायेगा। अगर एसा न हो तो महिला पर जेहाद करना अनिवार्य नहीं है। इसके बावजूद पैग़म्बरे इस्लाम ने कुछ महिलाओं को अनुमति दी कि वे रणक्षेत्र में जाकर घायल इस्लामी योद्धाओं का उपचार और उनकी सहायता करें।
राजनीति में महिलाएं भाग ले सकती हैं। पश्चिम में महिलाओं को यह अधिकार 20वीं शताब्दी के अंत और 21वीं शताब्दी के आरंभ में दिया गया जबकि इस्लाम ने यह अधिकार महिलाओं को 14 सौ साल पहले दिया था। पैग़म्बरे इस्लाम ने महिलाओं से बैअत ली परंतु उनसे हाथ नहीं मिलाया। उन्होंने आदेश दिया कि पानी का एक बर्तन लाये जाये और अपना हाथ उसके अंदर ले गये और उसके पश्चात महिलाओं को उसके अंदर अपने हाथ ले जाने का आदेश दिया और महिलाओं के इस कार्य को उन्होंने बैअत समझा।
शिक्षा ग्रहण करने में महिलाओं को वही अधिकार प्राप्त हैं जो पुरुषों को प्राप्त हैं और इस अधिकार में भी वे पुरुषों के बराबर हैं। जिस समय पैग़म्बरे इस्लाम ने ज्ञान प्राप्त करने को मुसलमानों पर अनिवार्य करार दिया महिलाओं और पुरुषों में कोई अंतर नहीं किया। लगभग 14 शताब्दी पहले पैग़म्बरे इस्लाम ने घोषणा की कि प्रत्येक मुसलमान महिला और पुरुष पर ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है। इस प्रकार की घोषणा बहुत स्पष्ट है और पूरे इतिहास में मुसलमानों ने इसका पालन किया है।
परिवार में महिला और पुरुष के बीच जो संबंध हैं उसके बारे में इस्लाम के विशेष तर्क हैं। इस्लाम के अनुसार महिला और पुरुष दोनों इंसान हैं और दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। जो चीज़ इस्लाम में की जाती है वह यह है कि महिला को महिला होने के कारण अपनी कुछ विशेषताएं हैं और पुरुष को पुरुष होने के नाते अपनी कुछ दूसरी विशेषताएं हैं। दूसरे शब्दों में दोनों बहुत से मामलों में एक दूसरे से भिन्न हैं। दुनिया उनके लिए एक समान नहीं है और रचना में दोनों एक जैसे नहीं हैं। यही वजह है कि बहुत से कानूनों में दोनों एक समान नहीं हैं। इस समय पश्चिम में यह प्रयास किया जा रहा है कि महिला और पुरुष के लिए समान कानून बनाया जाये और प्राकृतिक दृष्टि से दोनों में जो अंतर हैं उनकी अनदेखी कर दी जाये। पश्चिम और इस्लाम में जो अंतर है वह यहां पर है। यूरोप में बीसवीं शताब्दी से पहले तक कानूनी व व्यवहारिक तौर पर महिला को कोई मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं था। उसे न तो पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त था और न ही उस जैसा। हालिया एक शताब्दी में महिला के नाम पर और उसके लिए उतावलेपन में जो आंदोलन हुए हैं उनमें कुछ अधिकार महिलाओं को पुरुषों जैसे प्राप्त हो गये हैं परंतु प्राकृतिक, शारीरिक और आध्यात्ममिक अंतर के दृष्टिगत उसे बिल्कुल पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं हुए हैं। क्योंकि अगर महिला पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त करना चाहती है तो उसका एकमात्र मार्ग यह है कि पुरुषों से मिलते- जुलते जो अधिकार उसे मिल गये हैं उन्हें भूल जाये और पुरुषों को पुरुषों जैसा और महिलाओं को महिलाओं जैसा अधिकार प्राप्त हो।