Sep १९, २०१७ ११:२४ Asia/Kolkata

इससे पहले हमने ओआईसी के गठन की परिस्थितियों की चर्चा की थी जो इस्लामी जगत की  एकजुटता का एक प्रतीक है।

हमने इस संगठन के इतिहास को चार भागों में वर्गीकृत किया। पहला दौर वह था जब फ़िलिस्तीन को ध्रुवीय बिंदु बनाकर इस सगठन की संरचना हुई और इसके नतीजे में इस्लामी देशों के बीच एक प्रकार की एकता व एकजुटता बनी। दूसरा दौर संगठन के तीसरे शिखर सम्मेलन से लेकर तेहरान में वर्ष 1997 में आयोजित होने वाले शिखर सम्मेलन के बीच का है। इस कालखंड में एक तरह की शिथलता और उदासीनता का माहौल रहा। तीसरे दौर में जो तेहरान शिखर सम्मेलन 1997 से शुरू हुआ और वर्ष 2011 तक जब कई अरब देशों में व्यापक जनान्दोलन शुरू हुए, इस्लामी देशों की आपसी एकजुट का एक बार फिर बढ़ी। 

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यदि हमें यह देखना है कि ओआई सी अपने लक्ष्यों को साध पाने में किस सीमा तक सफल रही तो पहले हमें यह तय करना पड़ेगा कि किसी भी संगठन की सफलता का पैमाना क्या है? किसी भी संगठन के कामकाज के मूल्यांकन के फैक्टर्ज़ में एक यह है कि उसकी कितनी उपयोगिता रही है। अब यदि किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन के कामकाज की समीक्षा करनी हो तो यह देखना पड़ेगा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उस संगठन ने कैसी उपयोगिता दिखाई है, वह कितनी लाभकारी रही है और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों और समीकारणों को किस हद तक प्रभावित कर पायी है। विचारकों के एक समूह का यह ख़याल है कि किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संगठन की उपयोगिता इस बात से तय होती है कि संगठन को प्रभावित करने वाले संकट को मैनेज करने में वह कहां तक सफल रहा है। विचारकों को दूसरा समूह यह कहता है कि किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संगठन की सफलता इस बात से नापी जाती है कि उसके सदस्य देश अपनी समस्याओं को इस संगठन के दायरे में कहां तक हल करने में सफल हुए हैं और उन्होंने संगठन के फ़ैसलों पर किस सीमा तक अमल किया है?

यदि हम दूसरी परिभाषा या पैमाने के आधार पर ओआईसी के कामकाज का मूल्यांकन करें तो हमें यह कहना चाहिए कि संगठन के घोषणापत्र में लिखे गए लक्ष्यो और सिद्धांतों के अनुसार वर्ष 2011 में अरब देशों में इस्लामी जागरूकता की लहर उठने तक ओआईसी की सफलताएं सीमित रही हैं। इस कालखंड में संगठन अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सका लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि संगठन को कोई सफलता नहीं मिली। इस लिए कि यदि यह संगठन न होता तो इस्लामी जगत में एकता की स्थिति और भी ख़राब होती है। आरंभिक मूल्यांकन के तौर पर यह कहा जा सकता है कि ओआईसी किसी हद तक सदस्य देशों के स्तर पर एकजुटता बनाए रखने में सफल रहा है। इस दावे की सच्चाई देखने के लिए काफ़ी है कि संगठन के घोषणापत्र के लक्ष्यों पर एक नज़र डाल ली जाए। इस घोषणापत्र में सदस्य देशों के बीच एकजुटता को मज़बूत बनाना, साम्राज्यवाद की जड़ों को उखाड़ना, नस्ली भेदभाव से मुक़ाबला, अपनी मानवीय प्रतिष्ठा, स्वाधीनता और राष्ट्रीय हितों के लिए संघर्ष कर रहे मुसलमानों की मदद करना, उल्लेखनीय हैं। अब इस संगठन के कामकाज को परखने के लिए इन लक्ष्यों को सामने रखकर जायज़ा लेना चाहिए।

ओआईसी के लक्ष्यों और सिद्धांतों में एक महत्वपूर्ण विषय सदस्य देशों की सुरक्षा का बचाव भी है। अब यह सवाल उठता है कि क्या ओआईसी अपने सदस्य देशों की सुरक्षा के बचाव के लिए कुछ प्रभावी काम कर सका है? यदि उसने एसा कोई काम किया है तो कहां तक सफल रहा है? इस सवाल का जवाब पाने के लिए ओआईसी की गतिविधियों की समीक्षा ज़रूरी है। मूल्यांकन से यह पता चलता है कि संगठन ने सदस्यों की सामूहिक सुरक्षा के स्तर पर दो प्रकार के काम किए हैं। एक तो वह काम हैं जो उसने सदस्य देशों में से किसी भी सुरक्षा को बाहर से निशाना बनाने वाले ख़ातरे की निंदा करने और सदस्य देश से एकजुटता दर्शाने के रूप में अंजाम दिए हैं। वर्ष 1982 में जब लेबनान पर इस्राईल ने हमला किया तो उस समय इस संगठन ने लेबनान से एकजुटता जताई थी। वर्ष 1997 में और 1999 में जब लेबनान की सरकार ने अपने पूरे क्षेत्र पर जिनमें इस्राईल के क़ब्ज़े में चले जाने वाले क्षेत्र भी शामिल थे, अपने मालिकाना अधिकार का दावा दोहराया तो ओआईसी ने लेबनान का समर्थन किया। वर्ष 1984 में जब इथोपिया ने ओआईसी के सदस्य देश सूमालिया पर हमला किया तो ओआईसी ने सूमालिया से  एकजुटता जताई। वर्ष 1993 में जब आर्मीनिया ने आज़रबाईजान गणराज्य पर हमला किया तो उस समय भी ओआईसी ने अपने सदस्य देश आज़रबाईजान से एकजुटता जताई।

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दूसरे वर्ग में वह काम हैं जिनमें ओआईसी ने केवल शाब्दिक समर्थन पर बस नहीं किया बल्कि व्यवहारिक रूप से कुछ क़दम उठाए। उदाहरण स्वरूप जब अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ ने हमला किया तो ओआईसी ने इस्लामाबाद में विदेश मंत्री स्तर की अपात बैठक की और अफ़ग़ानिस्तान में बग़ावत के नतीजे में सत्ता में आने वाली सरकार और सोवियत संघ के विरुद्ध कुछ क़दम उठाए। ओआईसी ने अफ़ग़ानिस्तान की सदस्यता निलंबित कर दी और मास्को में आयोजित होने वाले ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार किया। ओआईसी ने सोवियत संघ के विरुद्ध अफ़ग़ानिस्तान के प्रतिरोधक गुटों का समर्थन किया। कहा जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ को बाहर निकालने वाले प्रमुख कारणों में एक ओआईसी की रणनीति थी। दूसरा उदाहरण फ़िलिस्तीन का है। हमने पिछले कार्यक्रमों में भी बताया कि फ़िलिस्तीन ओआईसी की गतिविधियों का मूल मुद्दा रहा है और संगठन ने बार बार फ़िलिस्तीनी जनता के संघर्ष का समर्थन किया है। अलबत्ता इस प्रक्रिया में उतार चढ़ाव भी आते रहे हैं और संगठन ने कुछ अवसरों पर फ़िलिस्तीनी जनता के समर्थन से आनाकानी भी की। विदेश मंत्रियों के सातवें सम्मेलन में क़ुद्स कोष की स्थापना, वर्ष 1975 में क़ुद्स कमेटी की स्थापना, इस्राईल बहिष्कार इस्लामी कार्यालय की स्थापना आदि इस संगठन के व्यवहारिक रूप से अंजाम पाने वाले काम रहे हैं।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सदस्य देशों के लिए सामूहिक सुरक्षा का माहौल बनाने में तो ओआईसी की भूमिका कोई ख़ास नहीं रही है।  क्योंकि ओआईसी ने अनेक मामलों में हल करने के बजाए मामले को ठंडा कर देने का काम किया है। इस तरह देखा जाए तो ओआईसी ने निश्चित रूप से कुछ सार्थक क़दम उठाए तो हैं  लेकिन संगठन के घोषणा पत्र में लिखे लक्ष्यों और अंजाम पाने वाले कामों का अंतर बहुत ज़्यादा है। ओआईसी के घोषणापत्र का एक और महत्वपूर्ण उसूल सदस्य देशों के बीच आपसी मतभेदों को हल करवाना है। अब यह देखना होगा कि यह संगठन सदस्य देशों के बीच विवाद को रोकने में कहां तक सफल रहा है और उसने किन अवसरों पर दो देशों के विवाद को हल करने में मध्यस्थता की है? इस्लामी जगत में जो घटनाएं हुईं उनको देखते हुए कहना चाहिए कि ओआईसी को इस क्षेत्र में कोई सफलता नहीं मिली है, बल्कि उसने एसे क़दम उठाए कि कुछ सदस्य देशों के बीच विवाद और बढ़ गया। उदाहरण स्वरूप जब ईरान इराक़ युद्ध चल रहा था तो ओआईसी की भूमिका बड़ी विवादित रही। इसमें अरब देशों के वर्चस्व के कारण संगठन ने इस विवाद को और भी हवा देने का काम किया।

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इसी प्रकार जब वर्ष 1989 में मोरितानिया और सेनेगाल का विवाद शुरू हुआ तो ओआईसी ने दोनों पक्षों से कहा कि वे अपनी शत्रुता समाप्त करें लेकिन व्यवहारिक रूप से इस संगठन ने कोई भी एसा प्रस्ताव नहीं रखा जिससे इन देशों का विवाद हल होने में मदद मिलती। नतीजे में अफ़्रीकन संघ को मध्यस्थ का रोल मिला। सबसे बढ़कर वर्ष 1990 में ओआईसी कुवैत पर इराक़ का हमला नहीं रोक सका। जब इराक़ ने हमला करके कुवैत पर क़ब्ज़ा कर लिया तो ओआईसी ने इराक़ से केवल अनुरोध किया कि वह कुवैत की धरती से बाहर निकल जाए। इसी प्रकार जब संयुक्त राष्ट्र संघ में इराक़ के विरुद्ध सहमति बनी तो ओआईसी ने इसका समर्थन किया ख़ुद इस मामले को अपने हाथ में लेने में असमर्थ रहा। अफ़ग़ानिस्तान संधि के मामले में भी ओआईसी ने जो फ़ैसले किए थे वह टिक नहीं सके तथा अफ़ग़ान गुटों के बीच लड़ाई फिर शुरू हो गई और लड़ाई को बंद करवाने की कोशिशें सफल नहीं हुईं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि सदस्य देशों के बीच विवाद को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने के संबंध में ओआईसी भूमिका बहुत कमज़ोर रही।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ओआईसी के रिकार्ड की समीक्षा से पता चलता है कि वर्तमान समय में संगठन के लक्ष्य पूरे नहीं हो सके हैं लेकिन साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि संकटों को किसी हद तक नियंत्रित करने में इस संगठन ने भूमिका निभाई है लेकिन कुछ मामलों में लक्ष्य के लिए काम करने  में आनाकानी की है। लेकिन यहां यह सवाल उठता है कि संगठन के सदस्य देशों के बीच समानताएं बहुत अधिक हैं और विशेष परिस्थितियों में इस संगठन की स्थापना हुई लेकिन फिर भी कई दशकों का समय बीत जाने के बाद भी यह संगठन वांछित एकजुटता नहीं पैदा कर सकी है?

 

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