इस्लाम और मानवाधिकार- 59
स्वभाविक सी बात है कि विभिन्न विषयों पर लोगों के बीच नाना प्रकार के मतभेद उत्पन्न होते रहते हैं।
सामाजिक जीवन में इस प्रकार के मतभेदों से बचना बहुत कठिन है। यह मतभेद कभी तो छोटे-मोटे होते हैं जिन्हें आपसी बातचीत या बड़ों को बीच में डालकर हल कर लिया जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि लोगों के मतभेद केवल बड़ों के हस्तक्षेप से हल नहीं होते बल्कि उन्हें न्यायिक प्रक्रिया के हवाले किया जाता है। हर समाज में न्यायिक व्यवस्था पाई जाती है जो गंभीर मतभेदों का समाधान करती है। न्यायिक प्रक्रिया में जो व्यक्ति लोगों के बीच फैसले सुनाता है उसे क़ाज़ी या न्यायधीश कहते हैं। जो व्यक्ति न्यायालय में अपनी शिकायत लेकर आता है उसे मुद्दई कहा जाता है जबकि जिसके विरुद्ध आरोप लगाए जाते हैं उसे मुद्दआ अलैह कहते हैं।
इस्लाम की न्यायिक व्यवस्था में भी लोगों के बीच मतभेद उत्पन्न होने की स्थिति में न्याय दिलाने का प्रबंध किया गया है। इस्लाम में मुद्दई और मुद्दआ अलैह दोनों के हितों और उनके अधिकारों को दृष्टिगत रखा गया है। क़ाज़ी या न्यायाधीश को चाहिए कि वह अपना निर्णय सुनाते समय मुद्दई और मुद्दआ अलैह, दोनों पक्षों की बातें सुनकर न्यायपूर्ण फैसला सुनाए।
राष्ट्रों की स्वतंत्रता और स्वावलंबन का एक आधार, वहां की न्यायिक व्यवस्था का स्वतंत्र होना है। किसी भी राष्ट्र या समाज की न्यायिक व्यवस्था यदि स्वतंत्र नहीं होगी तो वह समाज या राष्ट्र किसी भी स्थिति में वास्तविक स्वावलंबन प्राप्त नहीं कर सकता। पवित्र क़ुरआन ने इसे बहुत ही महत्वपूर्ण बताया है। न्याय व्यवस्था के संबन्ध में पवित्र क़ुरआन के सूरे नूर की आयत संख्या 51 और 52 में कहा गया है कि मोमिनों की बात तो बस यह होती है कि जब फैसले के लिए अल्लाह और उसके रसूल की ओर बुलाए जाएँ, तो वे कहें कि हमने सुना और आज्ञापालन किया। और वही सफलता प्राप्त करने वाले हैं। और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करे और अल्लाह से डरे तथा उसकी सीमाओं का ख़याल रखे तो ऐसे ही लोग सफल होने वाले हैं।
इसी विषय की ओर सूरे नेसा में ईश्वर कहता है कि ईश्वर की सौगन्ध वे मोमिन हो ही नहीं सकते मगर यह कि मतभेद के समय वे तुझसे न्याय की गुहार लगाएं और फिर तेरे निर्णय से असंतुष्ट न हों बल्कि उसे पूर्ण रूप से मान लें। ईश्वर ने धरती पर अपने जो दूत भेजे हैं उनके दायित्वों में से एक दायित्व, लोगों के मतभेदों का समाधान करना है। इस बारे में पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि हमने अपने दूतों को स्पष्ट निशानियों के साथ भेजा और हमने उन्हें आसमानी किताब तथा सच और झूठ को स्पष्ट करने वाले मानदंड एवं न्यायपूर्ण नियमों के साथ उतारा ताकि लोगों के बीच न्याय स्थापित किया जा सके।
इसी प्रकार न्याय करने वालों से अमानतदारी के बारे में विशेष रूप से अमल करने पर बल दिया गया है। इस बारे में ईश्वर कहता है कि तुमको आदेश दिया जाता है कि अमानतों को उनके मालिकों तक पहुंचाओ और लोगों के बीच न्याय करो। ईश्वर तुमको अच्छी नसीहतें करता है। वह सुनने वाला और देखने वाला है। इस्लामी दृष्टि से जो व्यक्ति भी क़ाज़ी या न्यायधीश हो उसमें कुछ विशेषताएं होनी चाहिए जैसे न्यायप्रिय हो, ज्ञानी हो, अनुभवी हो, सच्चा हो, धैर्यवान हो, दूरदर्शी हो और अपने काम को पूजा के समान समझता हो। काम की अधिकता से उसे थकना या ऊबना नहीं चाहिए। न्यायाधीश या जज को चाहिए कि वह थकन की हालत में, नींद की हालत में, दुख की हालत में, भूख की हालत में और अधिक सर्दी या अधिक गर्मी की हालत में कभी भी कोई फैसला न सुनाए बल्कि इन स्थितियों में अपना फैसला सुनाने से बचे। यह शर्तें इस लिए रखी गई हैं कि इस बात की संभावना पाई जाती है कि यह परिस्थितियां जज के फैसले को प्रभावित न कर दें।
इस्लामी दृष्टि से काज़ी को चाहिए कि वह मुद्दई और मुद्दआ अलैह दोनो पक्षों की बातों को ध्यानपूर्व सुने और उनमें से किसी एक भी पक्ष के प्रति उसमें झुकाव नहीं होना चाहिए। उसको दोनों पक्षों के साथ समान रूप से व्यवहार करना चाहिए। यहां तक कि अगर व सलाम करे तो दोनो पक्षों के लोगों को न कि केवल किसी एक पक्ष वाले को। इस्लामी शिक्षाओं में कहा गया है कि न्यायाधीश को निर्णय सुनाते समय इतना अधिक निष्पक्ष रहना चाहिए कि उसके अपने रिशतेदार और जान-पहचान वाले उससे लौ न लगाएं और न ही उसके शत्रु उससे न्याय की आस ही छोड़ बैठें।
इस्लाम की शिक्षाओं में न्यायाधीश के लिए जो शर्तें निर्धारित की गई हैं उनमें से एक यह है कि अपना फैसला सुनाने के लिए वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो। कहते हैं कि न्यायाधीश कितना ही पढ़ालिखा और अनुभवी क्यों न हो स्वतंत्र न रहने की स्थिति में उसका निर्णय प्रभावित हो ही जाता है। ऐसे में लोगों के अधिकारों का हनन होता है और वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। यदि किसी न्यायाधीश के फैसले में न्याय न हो तो इस फैसले से क्या फ़ाएदा। यही कारण है कि इसलामी दृष्टि से क़ाजी, अपना फैसला सुनाते समय पूरी तरह से स्वतंत्र होना चाहिए।
इस्लामी शिक्षाओं में क़ज़ावत या न्यायधीश के काम को उपासना समान बताया गया है। यही कारण है कि इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार न्यायाधीश को अपने दायित्व के बदले मुद्दई और मुद्दआ अलैह से पैसे लेने का अधिकार नहीं है। हां जब इस्लामी शासक की ओर से न्यायाधीश का निर्धारण किया जाए तो उसको चाहिए कि वह उसके लिए वेतन निर्धारित करे। इस प्रकार न्यायाधीश, लोगों से नहीं बल्कि सरकार से वेतन लेगा।
यहां तक तो हमने इस्लामी दृष्टि से न्यायाधीश के अधिकारों और उसके दायित्वों का वर्णन किया किंतु अब हमको यह देखना है कि यदि हमको मुद्दई या मुद्दआ अलैह के रूप में न्यायालय में उपस्थित होना पड़े तो हमको क्या करना चाहिए। जो लोग विनम्र व्यवहार नहीं अपनाते उनको अपने जीवन में बहुत से स्थानों पर मतभेदों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें कभी-कभी अदालतों का भी रुख़ करना पड़ सकता है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य को लड़ाई-झगड़ों से सदा दूर रहना चाहिए। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार नीच इन्सान से जितनी दूरी बना कर रख सके उतना ही बेहतर है क्योंकि एसे लोग किसी के लिए भी अच्छे सिद्ध नहीं होते। इस प्रकार के लोगों को दूसरों को सताने और परेशान करने में आनंद आता है। नीच या गिरे हुए लोगों से दूर रहने के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि अगर किसी सम्मानीय व्यक्ति का किसी नीच इन्सान से मतभेद हो जाता है तो इससे उसके मान-सम्मान को ठेस पहुंचती है। इमाम कहते हैं कि नीच लोगों से लड़ने- झगड़ने से बचते रहो।
मुद्दई और मुद्दआ अलैह के अधिकारों के बारे में इमाम ज़ैनुल आबेदीन कहते हैं कि यदि मुद्दई सही बात कह रहा है तो उसके तर्क को माना जाए और उसे रद्द करने के लिए कोई तर्क पेश न किया जाए। अब यदि उसका दावा ग़लत है तो उसे समझाए कि वह ग़लती पर है और इस बुराई का दंड क्या है यह भी उसको बताया जाए। एसा करने से यह हो सकता है कि वह सीधे रास्ते पर आ जाए। वैसे अपनी बात को रखने के लिए भी कभी बुरे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और सामने वाले पक्ष का अपमान करने की भी कोशिश नहीं की जानी चाहिए।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एसी स्थिति में यदि सच के मार्ग को अपना लिया जाए तो सारे मतभेद मिटाए जा सकते हैं।