Jan ०९, २०१८ १७:१९ Asia/Kolkata

सऊदी अरब ऐसा देश है जो विश्व में सबसे अधिक तेल का स्वामी है। 

संसार में सऊदी अरब, तेल निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है।  विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमरीका ने सऊदी अरब से सस्ते तेल की आपूर्ति के बदले में उसकी सुरक्षा की गारेंटी ली है।  सन 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद से अमरीका और सऊदी अरब के संबन्ध अधिक मज़बूत हुए।  जैसाकि पिछले कार्यक्रम में हमने बताया था कि आतंकवादी गुट दाइश का अस्तित्व, सऊदी अरब के पैसे और वहाबियों के वैचारिक समर्थन से हुआ है जिसने बाद में सऊदी और अमरीकी संबन्धों को प्रभावित किया।  कार्यक्रम में हम इस प्रश्न का जवाब देने का प्रयास करेंगे कि आतंकवाद से संघर्ष का तथाकथित दावा करने वाले अमरीका तथा अलक़ाएदा और दाइश जैसे आतंकी गुटों के समर्थक सऊदी अरब के बीच स्ट्रैटेजिक संबन्ध कैसे संभव हैं?  इस प्रश्न का जवाब, तेल के मुक़ाबले में सुरक्षा जैसी थ्योरी को समझने में बहुत सहायक सिद्ध होगा लेकिन इसके लिए आपको इतिहास में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा।

मंगलवार 11 सितंबर सन 2001 की सुबह अमरीका में एक घटना घटी।  19 लोगों ने 4 यात्री विमानों का अपचालन किया जिनमें से 15 सऊदी नागरिक थे।  इसके बाद अमरीकी इतिहास में सबसे बड़ी आतंकवादी घटना घटी।  इसमें लगभग तीन हज़ार लोग मारे गए थे। न्यूयार्क में विश्व व्यापार संगठन की जुडवां इमारतें, विमानों के टकराने से गिर गईं। उधर वाशिग्टन में पेंटागन की इमारत में आग लग गई।  अमरीका की तत्कालीन सरकार ने इसे वैश्विक आतंकवाद की संज्ञा दी।  तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश ने 11 सितंबर की घटना के बाद यह एलान किया था कि जो भी हमारे साथ नहीं है वह हमारे विरुद्ध माना जाएगा।  दूसरे शब्दों में यह कहा गया कि जो भी आतंकवाद के विरुद्ध कार्यवाही में अमरीका के साथ नहीं है वह उसके विरुद्ध है।  इसी बीच अमरीकी अधिकारियों ने आतंकवादी कार्यवाही से सऊदी अरब को अलग रखने के प्रयास किये।  यहां तक कि व्यापक स्तर पर होने वाले विरोध के बावजूद बुश प्रशासन ने ग्यारह सितंबर के बारे में अमरीकी कांग्रेस की दोनों पार्टियों के सदस्यों पर आधारित समिति की रिपोर्ट के 40 पृष्ठों को गोपनीय घोषित कर दिया।  इसका मुख्य कारण यह था कि वे नहीं चाहते थे कि ग्यारह सितंबर की घटना में लिप्त तत्वों और सऊदी सरकार तथा शाहज़ादों के बीच संबन्धों को गोपनीय रखा जाए।  हालांकि बाद में यह बात सार्वजनिक हो गई कि कुछ विमान अपचालकों को वाशिग्टन में स्थित सऊदी दूतावास का समर्थन प्राप्त था और कुछ ने वहां से आर्थिक सहायता भी प्राप्त की थी।  इतना सबकुछ होने के बावजूद अमरीका ने अलक़ाएदा के बनाने में ग्यारह सितंबर की घटना में सऊदी अरब की भूमिका की जांच के स्थान पर अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया। तत्कालीन अमरीकी सरकार ने इस घटना के लिए अलक़ाएदा को ज़िम्मेदार ठहराया और इसका बदला लेने के लिए अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया और फिर इसी क्रम में, जिसे आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग का नाम दिया गया था, इराक़ पर भी अमरीका ने हमला किया।  इसी बीच 11 सितंबर की घटना के दूसरे ही दिन अमरीका और सऊदी अरब के संबन्ध परिवर्तित हो गए।  हालांकि पहले की ही तरह सऊदी अरब, अमरीका के नेतृत्व में पश्चिम के लिए सस्ती ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिए कटिबद्ध रहा जिसके बदले में अमरीका, सऊदी अरब की सुरक्षा का पाबंद बना रहा।  लेकिन इसके साथ ही अमरीकियों को इस वास्तविकता का भी सामना करना पड़ा कि सऊदी अरब की सांस्कृतिक – राजनेतिक व्यवस्था के गर्भ से तकफ़ीरी आतंकवादी गुट जन्म ले रहा है।  यह गुट जो देखने में छोटे-छोटे थे और जिनका दमन बहुत सरल दिखाई दे रहा था धीरे-धीरे फैलते गए और उनकी हिंसक एवं दमनकारी कार्यवाहियां फैलने लगीं।

पश्चिम की गुप्तचर एजेन्सियों की रिपोर्ट के अनुसार वहाबी विचारधारा के समर्थन तथा सऊदी अरब की आर्थिक सहायता के बिना दाइश जैसे आतंकवादी गुट का अस्तित्व में आना संभव नहीं था।  पहले तो योजना यह थी कि ईरान तथा शियों के प्रभाव को रोकने के नाम पर दाइश को प्रयोग किया जाएगा।  यही कारण है कि दाइश ने स्वयं को सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधि दिखाने के प्रयास किये।  हालांकि दाइश ने अपने उन विरोधियों का भी जनसंहार किया जो सुन्नी मुसलमान थे।  हालांकि 30 साल पहले अफ़ग़ानिस्तान में की गई ग़लती को फिर दोहराया गया।  दशकों पहले पूर्व सोवियत संघ को समाप्त करने के लिए जिन गुटों को अस्तित्व दिया गया था वे बाद में अनियंत्रित होकर अलक़ाएदा के रूप में सामने आए।  वर्तमान समय में भी एसा ही कुछ हो रहा है।  अंतर केवल इतना है कि अलक़ाएदा के बारे में सऊदी अरब ने बहुत तेज़ी से स्वयं को इस आतंकवादी संगठन से अलग कर लिया था जबकि दाइश के बारे में एसा कुछ नहीं हुआ बल्कि लंबे समय तक सऊदी अरब की ओर से दाइश का समर्थन किया जाता रहा।  एसे में अमरीका ने इसका उपचार करने का रास्ता ढूंढना आरंभ कर दिया।  इसी बीच सऊदियों ने इराक़ के संकट का रुख़ सीरिया की ओर मोड़ दिया और इस विषय के साथ पश्चिम का समर्थन हासिल किया कि सीरिया के राष्ट्रपति बश्शार असद से सत्ता छीन कर वहां पर अपना नियंत्रण बनाएंगे।  अमरीकी शुरु में इस बात से इंकार करते रहे कि दाइशियों को सऊदी वहाबियों का समर्थन प्राप्त है।

इसी बीच सन 2014 और 2015 में तेल के मूल्यों को लेकर वाशिग्टन और रियाज़ के बीच मतभेद उभरे।  उस समय अमरीका और सऊदी अरब ने ईरान पर दबाव डालने के उद्देश्य से तेल मूल्यों को कम किया।  इसके माध्यम से वे ईरान पर परमाणु समझौते को मनवाने के लिए दबाव डाल रहे थे।  इसके अतिरिक्त सऊदी अरब ने तले कंपनी शेल को तेल के मैदान में अपने से दूर रखने के लिए भी तेल के मूल्य घटाए।  विदित रूप में तो अपने इस काम में सऊदी अरब को सफलता मिली किंतु इसने अमरीका को सचेत कर दिया।

इसी बीच 11 सितंबर की घटना के 15 वर्षों के बाद अमरीका में एक क़ानून पास किया गया जिसका नाम था, "जस्टिस अगेन्सट स्पांसर्स आफ टेररिज़्म एक्ट या "आतंकवादियों के समर्थकों के मुक़ाबले में न्याय की स्थापना"।  यह क़ानून, ग्यारह सितंबर की घटना से प्रभावितों को यह अधिकार देता है कि वे अपनी शिकायतों को पेश करके आतंकवाद का समर्थन करने वाले देशों से हर्जाना हासिल कर सकें।  जिस समय अमरीकी कांग्रेस में इस क़ानून के प्रस्ताव पर चर्चा चल रही थी उस दौरान यह स्पष्ट हो चुका था कि ग्यारह सितंबर की घटना में 15 सऊदी नागरिकों की भूमिका के कारण रियाज़ के सिर पर तलवार लटक रही है।  इसी बीच उसी दौरान सऊदी अरब ने यह धमकी दी थी कि अगर जास्टा क़ानून पास होता है तो वे अमरीका से 750 अरब डालर की पूंजी निकाल लेगा।

हालिया कुछ वर्षों के दौरान अमरीका के कई विचारकों और संचार माध्यमों की ओर से सऊदी अरब की आलोचना में वृद्धि हुई है।  उनका मानना है कि सऊदी सत्ता में बैठे लोगों के विचारों और पश्चिमी संस्कृति में खुला विरोधाभास पाया जाता है।  इन लोगों का यह भी कहना है कि अंततः यह देश, अमरीकी हितों के लिए गंभीर ख़तरा हो सकता है।  इन अमरीकियों का कहना है कि सऊदी अरब के अधिकारी विशेषकर वहां के युवराज मुहम्मद बिन सलमान इस समय जो चालें चल रहे हैं वे उनके साथ ही साथ सऊदी अरब के लिए भी हानिकारक सिद्ध होंगी।  इन अमरीकियों ने बहरैन में सऊदी सैनिकों की उपस्थिति, यमन के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही, क़तर के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध और लेबनान के प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देने के लिए विवश करने जैसे उदाहरण पेश करते हुए कहा है कि इस प्रकार की अपरिपक्व कार्यवाहियां निश्चित रूप से वाशिग्टन की नीतियों के लिए ख़तरा साबित हो सकती हैं।

हालांकि डोनल्ड ट्रम्प के वाइट हाउस पहुंचने के बाद "तेल के बदले सुरक्षा" नीति पर आधारित वाशिग्टन तथा रियाज़ के पारंपरिक संबन्ध सामान्य होते दिखाई दे रहे हैं।  इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि युवराज मुहम्मद बिन सलमान ने ट्रम्प के लिए सऊदी अरब के ख़ज़ाने के दरवाज़े खोल दिये हैं।  अमरीका का राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रम्प ने सबसे पहले सऊदी अरब की यात्रा की।  ट्रम्प की इस यात्रा के दौरान अमरीका और सऊदी अरब के बीच 450 अरब डालर के समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे।  इन समझौतों को ट्रम्प की यात्रा की महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया गया था।