Jan १६, २०१८ १४:०८ Asia/Kolkata

ईश्वर ने प्रेम व मित्रता को इंसान की प्रवृत्ति मे रखा है और ईश्वरीय पैग़म्बरों ने लोगों को एक दूसरे के प्रति समरसता, प्रेम व स्नेह का निमंत्रण दिया है ताकि शांति व सुरक्षा की छाया में मानवीय समाजों को आध्यात्मिक परिपूर्णता व प्रगति का अवसर प्राप्त हो सके।

 यद्यपि प्रेम, स्नेह व समरसता सामाजिक जीवन में शांति का कारण बनती है लेकिन कभी कभी मानवीय संबंध, दुश्मनी की ओर अग्रसर हो जाते हैं और लोग द्वेष व ईर्ष्या के कारण किसी से दुश्मनी करते हैं। दुश्मन जितना भी चतुर और बात छिपाने वाला हो, किसी न किसी रूप में अपनी दुश्मनी को प्रकट कर ही देता है।

ईश्वर ने दुश्मन की पहचान के लिए जो मानदंड बताए हैं उनमें से अधिकतर में इंसान के व्यवहार पर ध्यान दिया गया है। इस अर्थ में कि दुश्मन जितना भी चालाक हो, अपने सत्य विरोधी व्यवहार के कारण अपनी प्रवृत्ति को प्रकट कर देता है। मूल रूप से दुश्मन कभी भी इंसान की भलाई का इच्छुक नहीं होता। इस आधार पर वह जो भी काम करता है अपने दुश्मन को तकलीफ़ पहुंचाने के लिए करता है। उसकी पुरानी इच्छा यही होती है कि दूसरे को तकलीफ़ और दुख पहुंचे और अगर वह स्वयं यह काम नहीं कर पाता है तो कम से कम इसकी इच्छा तो रखता ही है कि दूसरे को नुक़सान और दुख पहुंचे। इसी लिए दूसरा जब दुख में ग्रस्त होता है तो वह ख़ुश होता है। क़ुरआने मजीद के सूरए आले इमरान की आयत 118 से 120 में ईश्वर ने दुश्मनों की दुर्भावना को एक मानदंड बताया है और इस अहम विषय पर ध्यान देने को कहा है।

जो लोग एक दूसरे से दुश्मनी रखते हैं, वे अपनी बातों में अपने क्रोध और घृणा को प्रकट कर ही देते हैं। उनकी द्वेषपूर्ण बातें, अपने आपको प्रकट ही हर देती हैं चाहे जितने सुंदर ढंग से और मीठे स्वर में बयान की जाएं। अलबत्ता कुछ लोग बहुत अधिक छिपाने के कारण अपने द्वेष और दुश्मनी को प्रकट नहीं होने देते लेकिन उनकी बातों के स्वर से उनकी घृणा और दुश्मनी का पता लगाया जा सकता है। कथनी और करनी में दोमुंहापन या मिथ्या एक अन्य मानदंड है जिसे ईश्वर ने दुश्मन की पहचान के लिए पेश किया है। दुश्मन जो कहता है उसके विपरीत काम करता है और कभी भी उसकी कथनी और करनी में समानता नहीं होती। इस्लाम ने दुश्मन के साथ व्यवहार के बारे में स्पष्ट आदेश दिए हैं और दुश्मन के लिए भी कुछ अधिकारों को औपचारिकता प्रदान की है।

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा हैः ईश्वर से डरने वाला, स्वयं से दुश्मनी करने वाले पर अत्याचार नहीं करता और स्वयं को चाहने वाले के कारण पाप नहीं करता। इस कथन में हज़रत अली ने दो अहम बातों की तरफ़ इशारा किया है। एक यह कि ईश्वर से डरने वाला व्यक्ति अगर इस्लामी व मानवीय मानकों के कारण किसी का दुश्मन बन जाता है तब भी वह उस पर अत्याचार नहीं करता हालांकि उसके लिए अत्याचार, द्वेष और शत्रुता का मार्ग प्रशस्त होता है। दूसरी बात यह कि अगर उन्हीं मानकों के कारण वह किसी से दोस्ती करता है तो अपनी दोस्ती के कारण पाप नहीं करता और उसे प्रसन्न करने के लिए अपनी आस्थाओं और सिद्धांतों को नहीं कुचलता।

जो दूसरों की बुराइयों को क्षमा कर दे तो मानो उसने सभी गुणों को प्राप्त कर लिया है अर्थात दूसरों की बुराइयों की अनदेखी और उन्हें क्षमा करना एक ऐसा शिष्टाचारिक व नैतिक गुण है जिसमें अनेक नैतिक गुण छिपे हुए हैं क्योंकि क्षमा, भलाई का सबसे अच्छा व सुंदर स्वरूप है। अगर समाज के लोगों में यह गुण पैदा हो जाए तो वे अपने साथ ज़बान या व्यवहार से बुराई करने वाले को क्षमा कर देंगे। इसके बड़े अच्छे परिणाम सामने आएंगे। इस प्रकार के समाज से बुराई की जड़ें समाप्त हो जाएंगी और उसके बदले में प्रेम, स्नेह, दया व मित्रता स्थापित होगी।

 

पिछले कार्यक्रमों में इंसान के विरुद्ध मुक़द्दमा करने वाले व्यक्ति या उस इंसान द्वारा जिसके विरुद्ध मुक़द्दमा किया जा रहा है उसके अधिकारों की ओर इशारा किया गया था। इन दोनों पक्षों के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की पहली सिफ़ारिश यह थी कि कोई ऐसा मार्ग ज़रूर खोलें जिससे विवाद और झगड़े की जड़ को समाप्त किया जा सके ताकि यह रोग दूसरे रूपों में सामने न आ सके क्योंकि संभव है कि यह बीमारी अस्थायी रूप से तो ठीक हो जाए लेकिन अगर उसके अस्ल कारण को उपचार करके ख़त्म न किया जाए तो फिर वह कुछ समय बाद दूसरे रूप में सामने आ जाती है। न सिर्फ़ इमाम ज़ैनुल आबेदीन बल्कि सभी इमामों के शिष्टाचारिक आदेशों में यही कहा गया है कि इंसान की सभी बुराइयों, नैतिक अवगुणों और ग़लत आदतों की जड़ को समाप्त किया जाना चाहिए।

पापों और बुराइयों को जड़ से समाप्त करने के लिए न्याय स्थापित करना चाहिए क्योंकि अगर न्याय स्थापित हो गया तो इस बीमारी की जड़ उखड़ जाएगी। ईश्वर सुरए हुजुरात की नवीं आयत में कहता है। जब कभी ईमान वालों के दो गुटों के बीच विवाद और लड़ाई हो जाए तो उनके बीच सुलह सफ़ाई करा दो और अगर उनमें से कोई एक दूसरे पर अतिक्रमण करे तो अतिक्रमणकारी से युद्ध करो यहां तक कि वह ईश्वर के आदेश की ओर लौट आए। तो जब वह लौट आए और शांति व संधि का मार्ग प्रशस्त हो जाए तो उन दोनों के बीच न्याय के साथ सुलह सफ़ाई करा दो और न्याय से काम लो कि ईश्वर न्याय करने वालों को पसंद करता है।

यद्यपि इस्लाम के क़ानूनी तंत्र में बदला लेता उस व्यक्ति का हक़ है जिस पर अत्याचार किया गया है लेकिन अधिकांश अवसरों पर दुश्मनी और द्वेष का ख़ात्मा नहीं होता और संभव है कि वह द्वेष आगामी पीढ़ियों में फट पड़े और फिर बुराई पैदा करे लेकिन अगर इंसान क्षमा कर दे तो बुराई का जड़ से अंत हो जाता है।

 

क़ुरआने मजीद सूरए आराफ़ की आयत क्रमांक 199 में कहता है। (हे पैग़म्बर!) प्रत्येक दशा में उनके साथ सहनशील रहिए, अगर वे क्षमा मांगें तो उन्हें माफ़ कर दीजिए, उन्हें भलाइयों का आदेश दीजिए, अज्ञानियों से (नर्मी से) मुंह मोड़ लीजिए और दनसे झगड़ा न कीजिए। यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को सिफ़ारिश करती है कि वे क्षमा को कर्म का मादंड बनाए और अज्ञानियों से दूर रहें क्योंकि अधिकतर बुराइयां अज्ञानता के कारण सामने आती हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम की ओर से क्षमा का एक बड़ा उदाहरण मक्का नगर पर विजय के बाद सामने आया। मक्के के अनेकेश्वरवादियों ने तेरह साल तक पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व मुसलमानों के साथ अत्यंत बुरा व्यवहार किया और उनके विरुद्ध जघन्य अपराध किए लेकिन जब मक्के की विजय के बाद पैग़म्बरे इस्लाम नगर में दाख़िल हुए तो उन्होंने फ़रमायाः तुम्हारे विचार में मैं तुम्हारे साथ क्या करूंगा? मक्के के लोगों ने, जो अनेकेश्वरवादी भी थे और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से कई युद्ध भी किए थे लेकिन हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के व्यवहार से अच्छी तरह अवगत थे, कहा कि हमने आपसे भलाई के अलावा कोई चीज़ नहीं देखी है। आप एक दयावान भाई और दयावान भाई के बेटे हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने भी उनसे कहा कि जाओ तुम सभी स्वतंत्र हो।

ईमान वाला व्यक्ति बदला लेने का प्रयास नहीं करता अतः अगर उस पर कोई अत्याचार किया भी जाए तो वह यह सोच कर धैर्य से काम लेता है ईश्वर उसका बदला लेगा। अलबत्ता यह उन लोगों के लिए होता है जिनके बारे में उसे लगता है कि बदला न लेने से उन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा या अत्याचारियों से वह प्रतिशोध नहीं लेता जिनसे बदला लेने की उसमें क्षमता नहीं होती लेकिन वह इस पर चीख़ता-चिल्लाता नहीं है बल्कि अपने प्रतिशोध को ईश्वर के हवाले कर देता है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम दुश्मन के हक़ के बारे में कहते हैं। उस व्यक्ति का हक़, जिसने संयोग से तुम्हारे साथ बुराई कर दी, यह है कि अगर उसने जान बूझ कर वह काम कया है तो बेहतर है कि तुम उसे क्षमा कर दो ताकि दुश्मनी जड़ से समाप्त हो जाए। इस प्रकार के लोगों से शिष्टाचार से मिलो कि ईश्वर ने कहा है अगर तुम बदला लो तो वह उसी मात्रा में होना चाहिए जितना तुम्हें घाव लगा है और अगर तुम संयम से काम लो तो यह धैर्य करने वालों के लिए बेहतर है। यह जान बूझ कर की जाने वाली बुराई के बारे में है और अगर उसने वह काम जान बूझ कर नहीं किया है तो जान बूझ कर बदला लेकर उस पर अत्याचार न करो और उसने ग़लती से जो काम कर दिया है उसका बदला जान बूझ कर बुराई से न दो और जहां तक संभव हो उसके साथ नर्मी का व्यवहार करो।