इस्लाम और मानवाधिकार- 65
पवित्र क़ुरआन की आयतों में ग़ैर मुसलमानों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहने के बारे में हुक्म है।
इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के आचरण से भी यही बात साबित है और इसका आधार मानवीय प्रतिष्ठा है। ग़ैर मुसलमान और मुसलमान मानवता की दृष्टि से एक समान हैं इसलिए उनका सम्मान होना चाहिए चाहे धर्म व पंत की दृष्टि से अलग हैं। वास्तव में इस्लाम में शांति को बुनियादी हैसियत हासिल है और इसकी पुष्टि पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण से होती है।
सुल्हे हुदैबिया नामक शांति संधि पर पैग़म्बरे इस्लाम का गर्व करना और ईरान और रोम सहित दूसरे क्षेत्रों के शासकों के साथ उनका पत्राचार करना, इस्लाम के शांति प्रेमी व्यवहार के नमूने हैं। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम ने अम्र बिन हज़्म को यमन भेजते वक़्त निर्देश दिया था कि “जो यहूदी या ईसाई मुसलमान हो जाएं और शुद्ध इस्लाम को प्रकट करें तो वह मोमिन गुट में शामिल हैं। जो कुछ मुसलमानों को अधिकार हासिल है, उन्हें भी हासिल होंगे। वह फ़ायदे और नुक़सान में मुसलमानों के साथ सहभागी होंगे और जो यहूदी या ईसाई अपने धर्म पर बाक़ी रहना चाहें तो उसे उसका धर्म छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा। क्योंकि सभी ईश्वरीय दूतों की ज़िम्मेदारी और धर्म का संदेश शांति व न्याय क़ायम करना, अध्यात्म फैलाना, मानव जाति को परिपूर्णतः तक पहुंचाना और मुक्ति दिलाना है।”
इस्लाम की नज़र में विभिन्न धर्मों के लोगों का शांतिपूर्ण ढंग से एक दूसरे के साथ रहना ही एक उद्देश्य है। शांति किसी लक्ष्य के लिए नहीं की जाती बल्कि शांति मानव प्रवृत्ति से अनुकूल है। शांतिपूर्ण हालात में इंसान में परिपूर्णतः, सत्य की ओर रुझान और मुक्ति पाना मुमकिन है।
इस्लाम ने चूंकि किसी को धर्म क़ुबूल करने पर मजबूर नहीं किया है इसलिए कभी दूसरों की आस्था की जांच के लिए कोई अदालत क़ायम नहीं की। किसी भी समय इस्लाम ने दूसरों पर अपने विचार नहीं थोपेना बल्कि इस पवित्र धर्म को लाने वाले पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन इस्लामी शिक्षाओं को दूसरों के सामने पेश करते थे और लोगों को उसे स्वीकार करने का पूरी तरह अख़्तियार होता था यहां तक कि उन लोगों के ख़िलाफ़ ज़ोर ज़बर्दस्ती नहीं की जो लोगों को इस्लाम स्वीकार करने से रोकते थे।
मुसलमान पवित्र क़ुरआन के आदेशानुसार, पहले के सभी ईश्वरीय दूतों और उन पर उतरने वाली किताबों पर आस्था रखते हैं। मुसलमान सभी पैग़म्बरों को ईश्वर के सदाचारी बंदे मानते हुए उनका सम्मान करते और उनके बीच किसी प्रकार का भेद नहीं करते।
अन्य धर्मों के अनुयाइयों के अधिकार पर इस्लाम ने इतना ज़्यादा ध्यान दिया है कि जब पहली बार जेहाद का आदेश आया तो इसके पीछे उद्देश्य को पवित्र क़ुरआन ने यूं बयान किया, “अगर ईश्वर कुछ लोगों को कुछ लोगों के ज़रिए न रोकता होता तो सभी गिरजाघर, यहूदियों के उपासना स्थल, ज़रतुश्तियों के इबादत ख़ाने और मस्जिदें ध्वस्त की जातीं।”
इस बात के मद्देनज़र कि दूसरे धर्मों के उपासना स्थल मुसलमानों के उपासना स्थल मस्जिद से पहले वजूद में आए, इस आयत में इस्लाम की ओर से धार्मिक अल्पसंख्यकों का मानवीय दृष्टि से समर्थन स्पष्ट है। इसमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है।
इस्लाम में अहले ज़िम्मा उन ग़ैर मुसलमान लोगों को कहा जाता है जो इस्लाम की विजय के बावजूद भी मुसलमान नहीं होते थे बल्कि अपने ही धर्म पर बाक़ी रहते थे। अहले ज़िम्मा इस्लामी शासन व समाज में रहते थे। वे एक संधि के तहत जिसे धर्मशास्त्र में ज़िम्मा कहते हैं, इस्लामी समाज में रहते थे और किसी को उनका विरोध करने का अधिकार न था। अहले ज़िम्मा के लिए यह शर्त थी कि इस्लामी शासन की ओर से उनकी जान-माल की रक्षा के बदले में वे इस्लामी शासन को सालाना कर दें और उन सामाजिक व क़ानूनी नियम पर अमल करें जो मुसलमान अधिकारी ने संधि में उनके लिए निर्धारित किए हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैं, “जान लो अगर किसी ने उन ग़ैर मुसलमानों पर कि जिन्होंने संधि कर रखी है, नियम का पालन करते हैं और मुसलमानों के हितों के ख़िलाफ़ काम नहीं करते, अत्याचार किया, क्षमता से अधिक उन पर ज़िम्मेदारी का बोझ डाला, या उससे पूछे बिना उसका माल ले लिया तो प्रलय के दिन में उसका विरोध करूंगा।”
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जब मालिके अश्तर को मिस्र का राज्यपाल बनाया तो उन्हें लिखा, “लोगों के दो गुट हैं एक तुम्हारे धार्मिक बंधू और दूसरे सृष्टि में तुम्हारे बराबर हैं। जिस तरह तुम यह चाहते हो कि ईश्वर तुम्हे माफ़ कर दे और तुम्हारी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ कर दे उसी तरह उनके साथ भी मेहरबानी से पेश आओ!” हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कूफ़े की जनता को संबोधित करते हुए कहा, “मुझे यह सूचना मिली है कि मोआविया की फ़ौज के सिपाही मुसलमान और ज़िम्मी औरतों से उनके ज़ेवर छीन कर ले गये और वे बेचारी मदद की गुहार लगाती रहीं। ये अत्याचारी सिपाही इस तरह सुरक्षित भागने में सफल रहे कि उनमें से कोई घायल न हुआ। अब अगर इस घटना पर कोई मुसलमान दुख से मर जाए तो उसे बुरा भला कहना सही नहीं है।”
इस्लामी समाज का एक प्रचलित नियम मुसलमानों का ग़ैर मुसलमानों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहना है। इस्लाम कुछ ग़ैर मुसलमान विचारकों और कुछ झूठे प्रचारों के विपरीत कि जिसमें इस्लाम को जंग का धर्म कहा गया है, ग़ैर मुसलमानों के साथ शांतिपूर्ण जीवन बिताने पर बल देता है।
जैसा कि पवित्र क़ुरआन में एक आयत भी ऐसी नहीं है जिसमें जंग के ज़रिए लोगों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करने के लिए कहा गया हो। इस्लाम में जंग रक्षात्मक आयाम पर आधारित है। इस्लाम में अपनी रक्षा के लिए या हमले को रोकने के लिए, रक्तपात व विध्वंस को रोकने के लिए जंग की इजाज़त दी गयी है।
पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने ग़ैर मुसलमान के अधिकारों के बारे में लिखा है, “अहले ज़िम्मा के अधिकार के बारे में हुक्म यह है कि जो कुछ ईश्वर ने उनके लिए स्वीकार किया है तुम भी उसे स्वीकार करो और ईश्वर ने उनके लिए जिस तरह का वचन दिया है तुम उसे पूरा करो और उनके हवाले वह बात करो जिस पर अमल करने की उनसे मांग की गयी है। उनके साथ ईश्वर के आदेशानुसार अमल करो और उन पर किसी तरह का अत्याचार मत करो। क्योंकि वे ईश्वर और उसके पैग़म्बर की शरण में हैं और यही बात पैग़म्बरे इस्लाम से हम तक आयी है कि जो संधि करने वाले पर अत्याचार करे तो मैं उसका दुश्मन हूं। तो इस मार्ग में ईश्वर से डरो।”