Feb २६, २०१८ १७:०६ Asia/Kolkata

इराक़ के साथ सऊदी अरब की लम्बी संयुक्त सीमाएं हैं जिन्हें सऊदी अरब की सबसे लम्बी सीमाओं में से एक कहा जाता है।

इराक़ के संबंध में सऊदी अरब की नीति बहुत अहम है। यद्यपि इराक़ के पूर्व तानाशाह सद्दाम से सऊदी अरब के शांतिपूर्ण संबंध नहीं थे लेकिन इराक़ के ख़िलाफ़ अमरीका के युद्ध और सद्दाम शासन के पतन से भी वह प्रसन्न नहीं था क्योंकि रियाज़ की दृष्टि में सद्दाम शासन का पतन, इराक़ में इस्लामी गणतंत्र ईरान का प्रभाव बढ़ने का कारण बना था जबकि उससे पहले तक ईरान व इराक़ एक दूसरे के दुश्मन थे। सऊदी अरब इराक़ में दो लक्ष्यों की प्राप्ति चाहता है। एक, मज़बूत शिया सरकार के गठन को रोकना और दूसरे ईरान के प्रभाव को बढ़ने न देना।

 

सऊदी अरब ने इराक़ में एक मज़बूत शिया सरकार के गठन को रोकने के लिए सुन्नी राजनैतिक गुटों के समर्थन को अपने एजेंडे में शामिल कर रखा है। विशेष कर चुनावों के अवसर पर वह इन गुटों का भरपूर समर्थन करता है। इसी के साथ वह इराक़ की सुन्नी आबादी को इस देश की सरकार से अप्रसन्न करने की भी कोशिश कर रहा है। सऊदी अरब इराक़ में पूर्व बासी शासन के बचे खुचे तत्वों और सुन्नी क्षेत्रों के कुछ क़बायली सरदारों से संपर्क के माध्यम से इराक़ में इस अप्रसन्नता को बढ़ा रहा है और इस अप्रसन्नता को अराजकता, सामाजिक अशांति और सरकार विरोधी प्रदर्शनों की दिशा में ले जाने की कोशिश में है।

रियाज़, इराक़ की सरकार को कमज़ोर करने के लिए कुर्दों को भी इस्तेमाल कर रहा है। इराक़ी कुर्दिस्तान में सऊदी अरब का प्रभाव हालिया बरसों में काफ़ी बढ़ा है। सऊदी अरब ने इराक़ से कुर्दिस्तान की स्वाधीनता के विषय पर होने वाले रिफ़्रेंडम के मामले में केवल मौखिक रूप से इराक़ की अखंडता पर बल दिया था लेकिन व्यवहारिक रूप से उसने इस जनमत संग्रह के आयोजन और इराक़ के आंतरिक मतभेदों का समर्थन किया। सऊदी अरब के लिए जो बात अहम है वह कुर्दों का समर्थन नहीं है बल्कि ईरान, तुर्की व सीरिया पर दबाव डालना और इसी तरह इराक़ में एक मज़बूत शिया सरकार के गठन को रोकना है।

इराक़ में सऊदी अरब का एक अहम लक्ष्य, बग़दाद में इस्लामी गणतंत्र ईरान के प्रभाव में वृद्धि को रोकना है। रियाज़, तेहरान को अपना सबसे बड़ा क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी मानता है जिसके साथ उसके संबंध, वर्ष 2015 में शाह सलमान के सत्ता में आने के बाद प्रतिस्पर्धा से गिर कर शत्रुता तक पहुंच गए हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में सऊदी अरब ने हालिया बरसों में इराक़ से अपने संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिश की जिसके अंतर्गत दोनों देशों के अधिकारियों के राजनैतिक दौरों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इराक़ के एक राजनैतिक टीकाकार विसाम अलकबीसी के अनुसार, सऊदी अरब की विदेश नीति में बहुत बदलाव आया है जिसकी सबसे अहम निशानी इराक़ से उसके संबंधों की बहाली, इराक़ी हवाई अड्डों से उड़ानों का संचालन और इराक़ से मिलने वाली संयुक्त सीमाओं पर आवाजाही के लिए मार्ग खोलना है।

इराक़ में संसदीय चुनाव के आयोजन के अवसर पर सऊदी अरब इस बात की कोशिश कर रहा है कि सुन्नी या अप्रसन्न शिया राजनैतिक दलों का समर्थन करके और इसी तरह स्वयं सेवी बल की राजनैतिक शाखा को चुनावों में भाग लेने से रोक कर, चुनावों को प्रभावित कर दे। इसी के साथ वह इस बात की भी कोशिश कर रहा है कि इराक़ में शिया बहुसंख्यकों की सरकार बनने में बाधाएं उत्पन्न कर दे।

इराक़ में, क्षेत्र से बाहर की सबसे अहम शक्ति अमरीका है। अमरीका ने वर्ष 2003 में इराक़ पर हमला करके और सद्दाम शासन को गिरा कर इस बात की कोशिश की थी इस देश को मध्यपूर्व में अमरीकी समर्थन वाली सरकार के एक सफल माडल के रूप में पेश करे लेकिन आतंकी गुट दाइश के सामने आने और भयंकर मानवीय त्रासदी उत्पन्न होने से यह स्पष्ट हो गया कि अमरीका अपने इस लक्ष्य में विफल रहा है। वास्तविकता यह है कि दाइश के गठन में स्वयं अमरीकियों का हाथ था जिसे वर्ष 2016 के राष्ट्रपति चुनाव के अभियान के दौरान इस देश की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वीकार किया था। इसी के साथ स्वयं अमरीका के भीतर उत्पन्न होने वाले अनेक मतभेदों, अस्थिरता और अशांति में भी इन्हीं लोगों का हाथ था।

इराक़ के बारे में अमरीका की नीति मुख्यतः तीन ध्रुवों पर आधारित है। तेल, ईरान व इस्राईल। इराक़, संसार में तेल पैदा करने वाले सबसे बड़े देशों में से एक है। इराक़ के पेट्रोलियम मंत्री ने फ़रवरी 2017 में कहा था कि इस देश में तेल के सिद्ध स्रोत, 143 अरब बैरल से बढ़ कर 153 अरब बैरल तक पहुंच गए हैं। उन्होंने इसी तरह जनवरी 2018 में बताया था कि इराक़ हर दिन 43 लाख बैरल तेल पैदा कर रहा है।

इराक़ के तेल स्रोतों तक पहुंच, अमरीका के लिए बहुत अहम है। इसके अलावा वह इराक़ में ईरान के बढ़ते प्रभाव से भी अप्रसन्न है। इराक़ी सरकार पर दबाव डालकर वह इस प्रभाव को रोकने की कोशिश कर रहा है। अमरीकी सरकार इसके लिए एक ओर इराक़ में एक मज़बूत शिया सरकार के गठन में रुकावट डालने की कोशिश कर रहा है और दूसरी ओर वह इराक़ के आंतरिक मतभेदों से ईरान की सुरक्षा पर प्रभाव डालने की भी कोशिश में है। अमरीकी सरकार का प्रयास है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात जैसे वाशिंग्टन से क़रीबी अरब देशों से इराक़ के संबंध बेहतर हो जाएं। इस संबंध में इराक़ के एक राजनैतिक टीकाकार विसाम अलकबीसी कहते हैं कि अरब देश अमरीका के समन्वय से इराक़ के साथ राजनैतिक समीकरणों में संतुलन पैदा करने की कोशिश में हैं और इस बीच अमरीका का रवैया, इराक़ के मामले में ईरान के प्रभाव को रोकने पर आधारित है। इस परिप्रेक्ष्य में वह इराक़ व सऊदी अरब के संबंधों को मज़बूत बनाने की कोशिश कर रहा है।

अमरीका की ओर से इराक़ के स्वयं सेवी बल हश्दुश्शाबी का विरोध अब तक प्रभावी नहीं रहा है लेकिन अमरीकी सरकार इस बात की कोशिश में है कि दाइश के बाद इस बल को इराक़ के राजनैतिक व सुरक्षा ढांचे से दूर कर दे क्योंकि वह स्वयं सेवी बल को ईरान के निकट समझता है। इस संबंध में एक अरब टीकाकार और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ अमीन हुतैत का कहना है कि अमरीका कोशिश कर रहा है कि इराक़ में ईरान के प्रभाव को कम कर दे। इस लिए वह इराक़ में स्वयं सेवी बल को नुक़सान पहुंचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है। इसी के साथ अमरीका, इराक़ में स्वयं सेवी बल को मज़बूत होने से रोककर क्षेत्र में प्रतिरोध के मोर्चे को भी मज़बूत नहीं होने देना चाहता क्योंकि इस क्षेत्र में अमरीका की सबसे बड़ी प्राथमिकता, इस्राईल की सुरक्षा और उसके हितों की रक्षा है।

मई 2018 में इराक़ में आयोजित होने वाले संसदीय चुनाव के संबंध में अमरीका भी यह कोशिश कर रहा है कि बहुसंख्यक शियों की सरकार गठित न होने पाए, ईरान से निकट राजनैतिक गुट विजयी न हों और इसी तरह ईरान की क़रीबी हस्तियों को प्रधानमंत्री पद तक न पहुंचने दिया जाए। इसके साथ ही वह सुन्नियों के राजनैतिक दलों की पोज़ीशन को मज़बूत बनाने की भी कोशिश कर रहा है।

इस्राईली सरकार इराक़ में सबसे अधिक कुर्दों के विषय पर केंद्रित है। केवल ज़ायोनी शासन ही था जिसने इराक़ से कुर्दिस्तान की स्वाधीनता के जनमत संग्रह का खुल कर समर्थन किया था। यह समर्थन बेन गूरियन की क्षेत्रीय एकता की विचारधारा के अनुरूप है। इस थियोरी के अनुसार ज़ायोनी शासन को इस्लामी देशों में अप्रसन्न जातीय व धार्मिक गुटों के बीच प्रभाव के माध्यम से मध्यपूर्व में नए घटक बनाने के उद्देश्य से इन गुटों की पृथकतावादी कार्यवाहियों का समर्थन करना चाहिए। वर्तमान समय में ज़ायोनी शासन की इस विचारधारा का सबसे अहम लक्ष्य, इराक़ के कुर्द हैं और इसी लिए इस्राईली मंत्रीमंडल ने इराक़ से कुर्दिस्तान की पृथकता का खुल कर समर्थन किया।

ज़ायोनी शासन भी सऊदी अरब की तरह इराक़ में मज़बूत केंद्रीय सरकार के गठन और बग़दाद में ईरान के प्रभाव का विरोधी है। इसके लिए उसने इराक़ी कुर्दिस्तान पर ध्यान केंद्रित कर रखा है। ज़ायोनी सुरक्षा बल, इराक़ी कुर्दिस्तान में आर्थिक व व्यापारिक दलों व कंपनियों के रूप में सक्रिय हैं और अपनी विध्वंसक गतिविधियों को आगे बढ़ा रहे हैं। ईरान की संसद में राष्ट्रीय सुरक्षा व विदेश नीति आयोग के सदस्य हशमतुल्लाह फ़लाहत पीशे का कहना है कि इस्राईल, इराक़ी कुर्दिस्तान के मामले को इस्लामी जगत में मतभेद और अस्थिरता का एक स्थायी विषय बनाना चाहता है ताकि फ़िलिस्तीन की समस्या की ओर मुसलमानों का ध्यान कम हो जाए। इसके अलावा ज़ायोनी शासन, इराक़ी कुर्दिस्तान के क्षेत्र के तेल के स्रोतों पर भी लोभ की दृष्टि रखे हुए है।

कुल मिला कर कहना चाहिए कि सऊदी अरब, अमरीका व ज़ायोनी शासन का त्रिकोण इराक़ में मज़बूत केंद्रीय सरकार और विशेष कर शिया बहुसंख्यकों की सरकार के गठन का विरोधी है और इसी तरह वह इस देश में इस्लामी गणतंत्र ईरान के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है। इसके लिए वह इराक़ में अराजकता फैलाने, हिंसा, आतंकी कार्यवाहियों और विस्फोटों से भी नहीं हिचकिचाता। इस त्रिकोण की इस निंदनीय नीति का चरम बिंदु वर्ष 2014 में देखने में आया जब आतंकी गुट दाइश ने इराक़ के अनेक क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया था।