Jun १०, २०१८ १३:१९ Asia/Kolkata

कार्यक्रम में हम इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति के दौरान मस्जिद के राजनैतिक संचालन के बारे में बात करेंगे और ईरान की एक प्रख्यात मस्जिद, मस्जिदे वकील से आपको परिचित कराएंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम इस्लामी समाज के नेता व शासक के रूप में मस्जिद का संचालन पूरी तरह से अपने हाथ में रखते थे। उनके अनुयाई भी हमेशा इस बात के प्रयास में रहते थे कि मस्जिद केवल एक उपासना स्थल में न बदल जाए बल्कि उसमें मुसलमानों के सामाजिक और राजनैतिक मामलों पर भी बात हो क्योंकि अगर मस्जिद, इस्लाम की राजनीति से दूर हो जाए तो यह दुश्मन की इच्छा के अनुकूल होगा। दुश्मन हमेशा से यह चाहता था और अब भी चाहता है कि मस्जिद और नमाज़े जमाअत को सिर्फ़ उपासना और उपासना स्थल में बदल दे ताकि इस तरह उसे मस्जिद की ओर से कोई ख़तरा न रहे।

मस्जिद आरंभ से ही ईश्वर के घर, सर्वाधिक लोकप्रिय स्थान और उपासना के पहले केंद्र के रूप में जानी जाती रही है। जिस प्रकार से मस्जिद, ज्ञान व क़ुरआने मजीद की शिक्षा और धार्मिक मामलों की समीक्षा का पहला स्थान थी उसी तरह उसे इस्लामी समाज में पहले राजनैतिक केंद्र के रूप में विशेष स्थान प्राप्त था। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम भी इस्लाम के राजनैतिक सिद्धांतों पर विशेष का प्रशासनिक मामलों पर उन मुसलमानों से परामर्श करते थे जिनके बारे में उन्हें पता था कि उनके पास लाभदायक अनुभव हैं।

 

इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में इस्लमी क्रांति की सफलता के साथ ही ईरान में भी मस्जिदों की, आरंभिक इस्लामी काल वाली स्थिति बहाल हो गई। इस प्रकार से कि सक्रिय लोग निरंतरता के साथ मस्जिदों में आ कर क्रांति संबंधी गतिविधियां अंजाम देने लगे। इस काल में मस्जिदों ने लोगों को जोड़ने वाले स्थान की भूमिका निभाई और अत्यंत संवेदनशील समय में जब इस्लामी आंदोलन के पास, इस्लामी मानकों के अनुसार कोई संगठित स्थान नहीं था, इस कमी की भरपाई की और लोगों को एकजुट किया। इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद भी इस्लामी सरकार के बहुत से कार्यक्रम मस्जिद में ही आयोजित होते थे जैसे जनमत संग्रह, स्थानीय परिषदें, स्वयं सेवी संगठनों के केंद्र और समय की अन्य आवश्यकताओं के लिए मस्जिदें ही सबसे उपयुक्त स्थान थीं।

इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी इस्लाम में मस्जिद के स्थान पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं। मस्जिद वह स्थान है जिससे मामलों का संचालन होना चाहिए, ये मस्जिदें ही थीं जिन्होंने हमारी विजय का मार्ग प्रशस्त किया। ये संवेदनशील केंद्र हैं जिन पर हमारी जनता को ध्यान देना चाहिए। ऐसा न हो कि हम यह सोचने लगें कि अब तो हम विजयी हो गए अब मस्जिदों का क्या करना है। हमारी विजय, मस्जिदों के संचालन के लिए है।

कुफ़्र व नास्तिकता से संघर्ष में मस्जिद की भूमिका बेजोड़ रही है। इस्लामी क्रांति, मस्जिदों से ही शुरू हुई और यही स्थान एक ठोस मोर्चे के रूप में ईरान के जनांदोलन को शक्ति प्रदान करने में सफल हुआ। इमाम ख़ुमैनी भी मस्जिद के स्थान और उसकी भूमिका के सही ज्ञान के दृष्टिगत पूरे संसार के मुसलमानों से कहते थे। अगर ईश्वर का घर, काबा, मस्जिद और मेहराब, ईश्वर के सिपाहियों और ईश्वर के घरों की रक्षा करने वालों का मोर्चा नहीं हैं तो फिर उनकी शरण स्थली कहां हैं?

 

इस्लाम के केंद्र के रूप में मस्जिदें कभी भी राजनीति से दूर नहीं रहीं, जैसा कि स्वयं इस्लाम, राजनीति से जुड़ा हुआ है और राजनीति रहित इस्लाम, इस्लाम ही नहीं है। इमाम ख़ुमैनी भी इस बात पर बल दिया करते थे और कहते थे। राजनीति के बारे में इस्लाम की जो किताबें हैं, वे अधिकतर उन किताबों में से हैं जिनमें उपासना की बातें हैं। हमारे मन में यह ग़लत बात बसा दी गई है कि इस्लाम, राजनीति से अलग है, यह एक उपासना संबंधी आदेश है, इंसान और ईश्वर के बीच। अपनी मस्जिदों में जाइये और जितनी चाहिए दुआ कीजिए, जितना चाहिए क़ुरआन पढ़िए, सरकारों को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इतना जान लीजिए कि यह इस्लाम नहीं है। वे इसी तरह मस्जिद को सच्चाई बयान करने का प्लेटफ़ार्म भी बताते हैं और कहते हैं। सभी धर्मगुरुओं और धर्म के प्रचारकों का दायित्व है कि वे मस्जिदों और धार्मिक स्थलों पर इस्राईल के अपराधों के बारे में लोगों को बताएं।

अलबत्ता यह बात स्पष्ट है कि मस्जिद की राजनीति और उस मस्जिद में अंतर है जिसमें हर गुट व धड़े के लोग इस पवित्र स्थल को धड़ेबंदी से जोड़ देते हैं और मस्जिद के सारे काम उनकी इच्छा के अनुसार होते हैं क्योंकि इस्लाम ने मस्जिद की जो परिभाषा की है उसके अनुसार मस्जिद किसी दल या धड़े का राजनैतिक केंद्र नहीं हो सकती। मस्जिद एक ओर ईश्वर से और दूसरी ओर लोगों से जुड़ी हुई है। इस आधार पर इसे किसी विशेष दल और धड़े तक सीमित नहीं किया जा सकता।

शीराज़ की मस्जिदे वकील

 

कार्यक्रम के इस भाग में हम आपको ईरान के शीराज़ नगर की एक अहम मस्जिद, मस्जिदे वकील या मस्जिदे सुल्तानी से परिचित करवा रहे हैं। यह मस्जिद ज़ंदिया काल की एक ऐतिहासिक मस्जिद है जो करीम ख़ान ज़ंद के आदेश पर बनाई गई थी। इसके निर्माण की तारीख़ सन 1187 हिजरी क़मरी बताई जाती है लेकिन क़ाजार सुलतानों के नाम के कुछ शिलालेखों व टाइलों से इस विचार को भी बल मिलता है कि मस्जिद के कुछ भाग जो करीम ख़ान के काल में पूरे नहीं हो पाए थे वे क़ाजारी काल में पूरे हुए हों या फिर यह कि क़ाजारी काल में टाइलों का फिर से काम कराया गया होगा।

 

इस मस्जिद का डिज़ाइन दो हालों वाला है और इसमें पूर्वी और दक्षिणी दो बड़े हाल हैं। दक्षिणी हाल में पत्थर के बड़े बड़े स्तंभ बने हुए हैं। पत्थर के 48 स्तंभों ने इस मस्जिद की छत को संभाल रखा है। इन स्तंभों की ऊंचाई पांच मीटर और व्यास 80 सेंटी मीटर है। मस्जिद के प्रवेश द्वार के ऊपर दोनों तरफ़ टाइलों का सुंदर काम किया गया है। मस्जिद के प्रवेश द्वार से गुज़रने के बाद दाएं और बाएं दो कोरीडोर दिखाई देते हैं जो थोड़ी दूर जाने के बाद 90 डिग्री कोण के साथ मस्जिद के प्रांगण में पहुंचते हैं। मस्जिद के वास्तुकारों ने इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मस्जिद का क़िब्ला वास्तविक क़िब्ले के अनुसार ही हो और साथ ही मस्जिद के दरवाज़े साथ ही स्थित बाज़ार के अनुकूल हों, कोरिडोरों को इस तरह मस्जिद के प्रांगण तक पहुंचाया है कि उसके टेढ़ होने के बावजूद उसका टेढ़ापन महसूस न हो।

 

मस्जिद का दो पटों वाला प्रवेश द्वार, जो इसके उत्तरी छोर पर स्थित है, ज़ंदिया काल की लकड़ी से बना हुआ है। इसका हर पट आठ मीटर ऊंचा और तीन मीटर चौड़ा है। प्रवेश द्वार पर टाइलों का बड़ा सुंदर काम हुआ है जबकि प्रवेश द्वार के ताक़ पर मुक़रनस का बड़ा मनमोहक काम दिखाई देता है। मस्जिद का वर्गाकार प्रांगण बड़े बड़े पत्थरों से सुसज्जित है और इसके बीच में एक बड़ा हौज़ है। प्रांगण के चारों ओर विभिन्न आकारों के ताक़ बने हुए है।

 

मस्जिद के प्रांगण के दक्षिणी छोर पर एक बड़ा और वैभवशाली ताक़ है। इस ताक़ के नीचे मस्जिद के भीतरी हाल में प्रवेव का दरवाज़ा है। मस्जिद का भीतरी हाल, दक्षिणी ताक़ के पीछे स्थित है और इसकी लम्बाई 36 मीटर और चौड़ाई 75 मीटर है। मस्जिद के प्रांगण के पूर्वी छोर पर एक बड़ा हाल है लेकिन इसके दरवाज़े बंद ही रहते हैं और केवल शीत ऋतु में इस हाल को इस्तेमाल किया जाता है।

 

मस्जिद की मेहराब बहुत सुंदर है जिसकी दीवार एक मीटर की ऊंचाई तक संगे मरमर की है और बाक़ी टाइलों से सुसज्जित है जिन पर फूल पौधों का काम किया गया है जबकि मेहराब की छत पर मुक़रनस का सुंदर काम है। मेहराब के दोनों ओर मुअर्रक़ शैली में टाइलों का काम दिखाई देता है जिन पर कूफ़ी लीपि में या अली लिखा हुआ है। मेहराब की दाहिनी तरफ़ मस्जिद का मिम्बर रखा हुआ है जो संगे मरमर का बना हुआ है। मिम्बर की चौदह सीढ़िया हैं जिनके दोनों ओर उभरे हुए फूलों का चित्र उकेरा गया है।

 

यह मिम्बर अपने आप में बेजोड़ है और इसका पत्थर आज़रबाइजान प्रांत के मराग़े नगर की खदानों से शीराज़ लाया गया है। आरंभ में ये एक चटान के रूप में था और बाद में इसे तराश कर मिम्बर का रूप दिया गया। इस मिम्बर का वास्तविक मूल्य उस समय समझ में आता है जब हमें यह पता चलता है कि इस चटान को ऊबड़ खाबड़ रास्तों से चौपायों और हाथ गाड़ियों के माध्यम से मराग़े से शीराज़ लाया गया है। यही कारण है कि करीम ख़ान ज़ंद ने कहा था कि अगर मैं इस मिम्बर को सोने से बनवाता तब भी वह इसके मुक़ाबले में सस्ता पड़ता।

प्रख्यात सैलानी पीरलॉटी ने अपने यात्रा लेख में मस्जिदे वकील का इस प्रकार वर्णन किया है। आज मुझे करीम ख़ान मस्जिद के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। निःसंदेह अगर मैं कुछ समय यहां रहूं तो उन सभी स्थानों पर जाने की कोशिश करूंगा जहां जाना मेरे लिए प्रतिबंधित है। यहां के लोग अत्यंत दयालु हैं। मस्जिद में बने हुए चित्र व डिज़ाइलन बड़े सादा और मनमोहक हैं लेकिन हर स्थान पर मीनाकारी और लाल व नीले रंगों को देखा जा सकता है। दीवार का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जिस पर मीनाकारी न की गई हो। ऐसा लगता है जैसे मैं नीले रंग के महल में आ गया हूं। (HN)