Jun १८, २०१८ १२:४२ Asia/Kolkata

हम बता चुके हैं कि ईरान ने अल्पकालीन समय में विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है। 

यह प्रगति इस स्तर की रही है कि विश्व में वैज्ञानिक प्रगति पर नज़र रखने वाली संस्थाओं ने भी इसकी सराहना की है।  विशेष बात यह है कि ईरान ने पिछले चार दशकों के दौरान एसी स्थिति में विकास किया है कि जब वह विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों का शिकार रहा है।  हालाकि इन प्रतिबंधों का मुख्य उद्देश्य, ईरान को प्रगति से रोकना रहा है।

हम आपको बता चुके हैं कि वैज्ञानिक प्रगति पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नज़र रखने वाली संस्था ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि सन 2016 में ईरान के वैज्ञानिकों ने 4700 वैज्ञानिक लेख लिखकर मध्यपूर्व में चिकित्सा के क्षेत्र में प्रथम स्थान प्राप्त किया था जबकि विश्व में वह 16वें स्थान पर रहा। 

 

अबतक पेश किये कार्यक्रमों को हम चार भागों में बांट सकते हैं।  पहले भाग में हमने इस्लाम की दृष्टि से ज्ञान की समीक्षा की थी।  हमने बताया था कि इस्लाम में ज्ञान प्राप्त करने को कितना महत्व प्राप्त है।  दूसरे भाग में पहली शताब्दी में इस्लामी सभ्यता के फैलने के दौरान उसपर विज्ञान के पड़ने वाले प्रभाव की समीक्षा करते हुए हमने इस्लाम के कुछ महान विद्वानों का उल्लेख किया था जैसे फ़ाराबी, इब्ने सीना, अबूरैहान बीरूनी, जाबिर बिन हय्यान और ख़ारेज़्म आदि।  तीसरे भाग में ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से आरंभ होने वाले वैज्ञानिक विकास और इस्लामी विचारधारा में शिक्षा के महत्व पर इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई के दृष्टिकोणों को बयान किया था।  इसमें ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद और उसके पहले की वैज्ञानिक स्थिति की समीक्षा भी की गई थी।  चौथे भाग में ईरान में होने वाली वैज्ञानिक प्रगति के संबन्ध में विश्व की अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों का उल्लेख किया था जिसमें दिखाया गया था कि ईरान ने क्षेत्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय प्रगति की है।

“आईएसआई” की रिपोर्ट के अनुसार सन 1979 में ईरान में आने वाली इस्लामी क्रांति से पहले अर्थात पहलवी के शासनकाल में ईरान के विद्धानों की ओर से अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाओ में 2026 लेख छापे गए।  वहीं ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद के लगभग 37 वर्षों में ईरान में दो लाख पैंतालिस हज़ार शोधपत्र और वैज्ञानिक लेख सामने आए हैं।  इस प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में ईरान में बहुत तेज़ी से विकास हुआ और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ईरान की भागीदारी बढ़कर पचास प्रतिशत हो गई।  विशेष बात यह है कि यह विकास और प्रगति एसी स्थिति में हुई है कि जब ईरान ने आठ वर्ष युद्ध में बिताए और आरंभ से प्रतिबंधों का सामना कर रहा है।

इस्लामी क्रांति से पहले ईरान में छात्रों की संख्या एक लाख थी जो अब बढ़कर चार करोड़ हो गई है।  पिछले दो दशकों के दौरान ईरान में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में बहुत तीव्र गति से तरक़्क़ी हुई है।  आईएसआई की रिपोर्ट के अनुसार ईरान में सन 2016 में 2015 की तुलना में वैज्ञानिक प्रगति 4 प्रतिशत रही है।  विश्व में वैज्ञानिक प्रगति पर नज़र रखने वाली एक संस्था है “स्कोपस” जो विश्व के देशों की वैज्ञानिक प्रगति की रिपोर्टें पेश करती है।  उसकी रिपोर्ट के अनुसार तीव्र गति से प्रगति की दृष्टि में ईरान विश्व में सन 2014 में तीसरे स्थान पर रहा।

विज्ञान के क्षेत्र में ईरान में होने वाली प्रगति का एक कारण यह रहा कि इस्लाम में शिक्षा को विशेष महत्व प्राप्त है।  पवित्र क़ुरआन में एसी कई आयते हैं जिनमें ज्ञान और ज्ञानियों की बहुत सराहना की गई है।  इस्लाम में ज्ञान अर्जित करने और उसे दूसरों तक पहुंचाने पर भी बल दिया गया है।  क़ुरआन की एक आयत में ईश्वर, ज्ञानियों को संबोधित करते हुए उन्हें उच्च स्थान देने का वचन देता है।  पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों में ज्ञानिकों को ईश्वरीय दूत की संज्ञा दी गई है।  उनके एक कथन में आया है कि जो भी ईश्वर की प्रसन्नता के उद्देश्य से ज्ञान अर्जित करता है और उसे ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ही लोगों को सिखाता है तो ईश्वर एसे ज्ञानी को सत्तर ईश्वरीय दूतों का पुण्य उसे देगा।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने जीवन में व्यवहारिक रूप में भी ज्ञान के महत्व को समझाया।

इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार ज्ञान को ईश्वर की पहचान का सबसे प्रमुख माध्यम बताया गया है।  कुछ कथनों के अनुसार ज्ञान, ईश्वर की पहचान और ईमान तक पहुंचने की सीढ़ी है।  यही ज्ञान जो विकास, तरक़्क़ी और ईश्वरीय पहचान का माध्यम है कुछ अवसरों पर गुमराही का कारण भी बन सकता है।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ज्ञान उस चाक़ू की भांति है जिसका उपयोग विनाश और विकास दोनों के लिए किया जा सकता है।  इस्लाम के हिसाब से जो ज्ञान जो जनसेवा के लिए हो वह व्यक्ति एवं समाज के कल्याण के साथ ही ईश्वर की निकटता का भी कारण बन सकता है।  उस ज्ञान को लाभदायक कहा जाता है जो लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो।  ज्ञान उसी समय लाभदायक होगा जब उसे ईश्वर की प्रसन्नता के उद्देश्य से प्राप्त किया जाए।  इस बारे में इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हर वह व्यक्ति जो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ज्ञान अर्जित करे फिर उसपर अमल करे और उसे दूसरों तक पहुंचाए तो उसका ज़िक्र आसमानों पर बहुत सम्मान के साथ किया जाएगा।

हम आपको यह भी बता चुके हैं कि दूसरी से पांचवी हिजरी क़मरी के दौरान मुसलमानों ने किस प्रकार से तरक़्क़ी की।  सन 900 से 1200 ईसवी तक का काल इस्लामी सभ्यता का स्वर्णिम दौर रहा जिसके पीछे मुसलमानों में ज्ञान प्राप्ति की चाह थी। इस दौर में मुसलमानों ने चिकित्सा विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, गणित, रसायनशास्त्र और ऑप्टिक्स जैसे क्षेत्रों में बहुत तरक़्क़ी की थी। इस दौर में मुसलमानों और चीनियों में ज्ञान के क्षेत्र में नेतृत्व के लिए प्रतिस्पर्धा थी जबकि यूरोप बहुत पिछड़ा हुआ था। इस काल में विश्व के कोने-कोने से तत्कालीन विद्वानो को विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से एक स्थान पर एकत्रित किया गया।  इन विदवानों ने उस समय की प्रचलित भाषाओं की किताबों का अनुवाद अरबी भाषा में किया।  इस प्रकार इस्लामी ज्ञानकोष में तेज़ी से विकास हुआ।

उस काल में मुसलमानों की प्रगति का एक कारण यह भी था कि उस काल की प्रचलित सभी भाषाओं की महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद अरबी भाषा में हो चुका था।  अरबी भाषा में अनुवाद का काम दूसरी और तीसरी हिजरी शताब्दी में अपने चरम पर था।  अनेक भाषाओं से किताबों के अरबी अनुवाद का क्रम, चौथी शताब्दी या फिर पांचवी शताब्दी के आरंभिक पचास वर्षों तक चलता रहा।  इस दौरान बुक़रात, अरस्तू, जालीनूस, बत्लीमूस और अन्य विद्वानों की डेढ सौ से अधिक रचनाओं का अरबी भाषा में अनुवाद किया जा चुका था।  यही कारण है कि कई शताब्दियों तक अरबी भाषा, संसार में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक भाषा के रूप में प्रचलित रही।

बाद के कार्यक्रम में हमने यह भी बताया था कि स्वर्णिम दौर के बाद इस्लामी सभ्यता का पतन शुरु हुआ।   चरम तक पहुंचने के बाद इस्लामी सभ्यता का पतन आरंभ हुआ।  इसका प्रमुख कारण यह था कि शासकों में भोग-विलास आ चुका था जिसके कारण विकास की भावना को बहुत आघात पहुंचा।  हालांकि इस पतन का केवल एक कारण नहीं था बल्कि दो अन्य महत्वपूर्ण कारक भी हैं।  पहला सलीबी जंग या क्रूसेड युद्ध और दूसरा मंगोलों का हमला।  मुसलमानों के ख़िलाफ़ पश्चिम की सलीबी जंगों की आग बुझी नहीं थी कि पूरब से एक और तबाही वाला तूफ़ान शुरु हुआ। मंगोलिया में बिखरे हुए क़बीले चंगेज़ ख़ान के नेतृत्व में एकजुट हो गए और उन्होंने जिस समय पूरब के इस्लामी क्षेत्रों पर ख़्वारज़्मशाही शासन व्यवस्था का राज था, अपने कुछ व्यापारियों के क़त्ल का बदला लेने के लिए इस्लामी क्षेत्रों पर धावा बोल दिया।  617 हिजरी क़मरी में इस्लामी जगत पर मंगोलों का हमला शुरु हुआ।  इस्लामी सभ्यता को पतन की कगार तक पहुंचाने में इन कारकों की भी अहम भूमिका रही है।  हालांकि इस्लामी सभ्यता के पतन में सलीबी जंगों और मंगोलों के हमलों का बहुत बड़ा रोल रहा है लेकिन इस सभ्यता के पतन में आंतरिक तत्वों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।

 

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